चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का तैंतीसवाँ इतवार_2017

पाठ: सूक्ति 31:10-13,19-20,30-31; 1 थेसलनीकियों 5:1-6; मत्ती 25:14-30 या 25:14-15,19-21

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वाँन


सृष्टि के प्रारंभ से ही ईश्वर की मनुष्य से यही अपेक्षा रही है कि वह फल पैदा करे। ईश्वर ने आदि मानव की सृष्टि के बाद उन्हें सर्वप्रथम आशीर्वाद देकर कहा, ’’फलो-फूलो....।’’ ईश्वर ने यह जीवन तथा उसके दान हमें ’उचित फल’ उत्पन्न करने के लिए प्रदान किया है। येसु ने भी विभिन्न दृष्टांतों द्वारा तथा अनेक अवसरों पर फल उत्पन्न करने की शिक्षा दी। अंजीर के पेड को सूख जाने का शाप प्रभु ने इसलिए दिया कि वह फलहीन था तथा व्यर्थ ही ’’भूमि छेंके हुआ था’’। इसी प्रकार हिंसक असामियों के दृष्टांत द्वारा प्रभु ने समय पर फल देने की शिक्षा पर जोर दिया, ’’अपनी दाखबारी का पट्टा दूसरे असामियों को देगा, जो समय पर फसल का हिस्सा देते रहेंगे’’। (मत्ती 21:41) बीज बोने वाले का दृष्टांत भी फल की उत्पादकता तथा उसे प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के बारे में विस्तृत रूप से समझाता है। जिसको समझाकर प्रभु अंत में कहते हैं, ’’ जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं; ये वे लोग है, जो वचन सुनते हैं, उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं- कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।’’ (मारकुस 4:20) तथा ’’जिसके कान हों, वह सुन ले।’’ (मत्ती 13:9) अशर्फियों का दृष्टांत प्राथमिक रूप से केवल फल उत्पन्न करने पर जोर देता है तथा जो सेवक फल उत्पन्न करना तो दूर उसके बारे में सोचता भी नहीं वह दण्डित किया जाता है।

अशर्फियों का दृष्टांत शिक्षा एवं अंतदृष्टि से आध्यात्मिक रूप से प्रचुर मात्रा में सम्पन्न है। इसमें स्वर्गराज्य के लिये फल उत्पन्न करने की अनिवार्यता की सूक्ष्म तथा गूढ बातों को सरल एवं सांकेतिक रूप से बताया गया है।

आमतौर पर यह माना जाता है कि ईश्वर ने सभी को एक समान बनाया है तथा इस कारण हम आपस में एक-दूसरे के साथ परस्पर तुलना करते रहते हैं। किन्तु यह धारणा सही नहीं है। ईश्वर ने किसी को किसी विशेष क्षेत्र में अधिक ज्ञान या हुनर दिया है तथा किसी को कम। इसी विभिन्नता को समझाते हुये संत पौलुस कहते हैं, ’’हम को प्राप्त अनुग्रह के अनुसार हमारे वरदान भी भिन्न-भिन्न होते हैं।...तो विश्वास के अनुरूप उसका उपयोग करे।’’ (रोमियों 12:6) अशर्फियों के दृष्टांत में स्वामी द्वारा किसी को ज्यादा तो किसी को कम अशर्फियाँ देना यही प्रतिपादित करता है कि ईश्वर ने सब को एक समान गुण एवं योग्यता प्रदान नहीं की है। स्वामी ने अपने सेवकों को उनकी ’’योग्यता का ध्यान रखकर एक सेवक को पाँच हजार, दूसरे को दो हजार और तीसरे को एक हजार अशर्फियाँ दी।’’ (मत्ती 25:15) इस प्रकार येसु यह स्पष्ट करते हैं कि हम मनुष्यों को ईश्वर ने अपनी योग्यता के अनुसार ही जिम्मेदारी प्रदान की है। सब की योग्यताएं एवं क्षमताएं एक समान नहीं है, लेकिन सभी योग्य एवं सक्षम है। इसी प्रकार जिसको जितना दिया गया है उससे भी उतने की ही आशा की जाती है।

स्वामी ने जाते समय इन अशर्फियों से क्या करना है इसके लिये सेवकों को कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया था। लेकिन प्रथम दो सेवकों ने अपनी ही बुद्धि से यह समझ लिया था कि स्वामी का इस प्रकार अशर्फियाँ देने का क्या उद्देश्य हो सकता है। इसलिए उन्होंने इन अशर्फियों को तुरन्त व्यापार में लगा दिया। दस कुँवारियों के दृष्टांत में भी पाँच कुँवारियों को समझदार इसलिए माना गया कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भली-भांति समझ कर स्वयं ही अपनी मशालों के साथ कुप्पियों में तेल भी लायी थी। इसलिए संत पेत्रुस हमें चेताते हुये कहते हैं, ’’जिसे जो वरदान मिला है, वह ईश्वर के बहुविध अनुग्रह के सुयोग्य भण्डारी की तरह दूसरों की सेवा में उसका उपयोग करें।’’ (1पेत्रुस 4:10)

एक और मुख्य बात जो यह दृष्टांत हमें बताता है वह यह है कि सेवकों ने ’’तुरन्त जाकर उनके साथ लेन-देन किया’’। सेवकों ने बिना कोई समय गवायें, प्रदान की गयी अशर्फियों को व्यापार में लगा दिया। ईश्वर की योजनाओं के प्रति यह तत्परता एवं तेजी हम यूसुफ और मरियम के जीवन में भी पाते हैं। जब प्रभु के दूत ने स्वप्न में युसूफ को बालक और मरियम को मिस्र देश ले जाने का आदेश दिया तो यूसुफ ’’उसी रात बालक और उसकी माता को लेकर मिस्र देश चल दिया’’। (मत्ती 2:14) इसी प्रकार जब दूत ने यूसुफ को मरियम की गर्भवती होने तथा उनकी निष्कलंकता के बारे में बताया तो यूसुफ उसी समय ’’नींद से उठकर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।’’ (मत्ती 1:24) जब स्वर्गदूत ने मरियम को ऐलीज़बेथ के गर्भवती होने की सूचना दी तो ’’मरियम पहाडी प्रदेश में यूदा के एक नगर के लिए शीघ्रता से चल पड़ी’’। (लूकस 1:39) एम्माउस जाने वाले शिष्यों के बारे में यह कहा गया है कि वे “उसी घड़ी उठ कर येरुसालेम लौट गये” (लूकस 24:33)। हमें ईश्वर के कार्यों को करने में कोई आलस्य नहीं दिखाना चाहिए। ईश्वर भी ऐसे ही लोगों को पसंद करते हैं जो उनके कार्यों को उत्साह तथा पूरी तत्परता के साथ करने में जुट जाते हैं।

स्वामी जो कुछ भी उन्हें देकर गया था उसे पहले दो सेवकों ने व्यापार में लगा दिया। उन्होंने अपने स्वयं के लिये कुछ भी नहीं छोडा। कई बार हम सोचते हैं कि जब हम अच्छी स्थिति में होंगे तब हम ईश्वर के लिए कार्य करेंगे। किन्तु ऐसी सोच में यह समस्या है कि हम पहले अपने लिये बचाना चाहते हैं फिर जो बच जाता है उसमें प्रभु के लिए कुछ करना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण हमें पूरी ईमानदारी एवं लगन के साथ ईश्वर के कार्य करने से रोकता है। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि यह जीवन तथा जो कुछ भी हमें प्राप्त है वह ईश्वर का दान है इसी सत्य का स्मरण दिलाते हुए संत याकूब लिखते हैं, ’’सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो कोई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार। उसने अपनी ही इच्छा से सत्य की शिक्षा द्वारा हम को जीवन प्रदान किया,...’’(याकूब 1:17-18) इसलिए हमें अपना समय तथा कार्य ईश्वर की सेवा में सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना चाहिए।

यह सही है कि स्वामी ने सभी को एक समान अशर्फियाँ नहीं दी थी क्योंकि उन तीनों की योग्यताएं कम ज्यादा थी। किन्तु स्वामी ने सभी को योग्य माना था इसलिए उसने तीनों को अलग-अलग मात्रा में अशर्फियाँ प्रदान की। जिस को एक हजार अशर्फियाँ दी गयी थी उसकी क्षमता कम थी किन्तु नगण्य नहीं। यदि वह बिलकुल ही असक्षम होता तो उसे कुछ भी नहीं दिया जाता। लेकिन उस तीसरे सेवक ने अपनी योग्यता की कमी के कारण नहीं बल्कि अपने आलस्य के कारण कुछ भी पैदा नहीं किया। इसी आलस एवं निकम्मेपन के कारण उसे दोषी माना गया।

इस दृष्टांत का सबसे रोचक पहलू यह है कि तीसरे सेवक ने अपनी नाकामी का दोष स्वामी के स्वभाव पर मढा। वह कहता है कि मैंने इसलिए कुछ भी नहीं किया कि, ’’आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं। इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।’ (मत्ती 25:24-25) उसका यही दोषारोपण उसकी दुष्टता एवं निकम्मेपन को साबित करता है। क्योंकि यह तीसरा सेवक स्वामी के कठोर स्वाभाव से भलीभांति परिचित था। वह जानता था कि स्वामी कुछ न कुछ लाभ की आशा हर जगह लगाये रहता था। इस कारण उसके लिए यह निष्कर्ष निकालना काफी सरल होता कि उसे दी गयी अशर्फियों का क्या अर्थ हो सकता है। ’’स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ, तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।....और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’’ (मत्ती 25:26-27,30) आइए हम भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन तथा उसके वरदानों से प्रति पूरी तत्परता, समपर्ण तथा जिम्मेदारी के साथ अपनी-अपनी योग्यताओं के अनुसार फल उत्पन्न करें।


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