प्रवक्ता 24:1-2, 8-12; एफे़सियों 1:3-6, 15-18; योहन 1:1-8
वह कहती है-’’यह सब तो आपके कहने की बात है, किन्तु आपके कथन पर मुझे तभी विश्वास होगा जब मैं आपसे वैवाहिक अंगूठी पहनूँगी।’’ ’’मैं प्रतिज्ञा करता हूँ’’, वह जवाब देता है, ’’यह सब जल्द ही पूरा होगा। तुम देखोगी।’’ ’’शर्त लगाओ!’’ वह युवक से कहती है, ’’इतने दिनों तक केवल झूठे सपने दिखा रहे हो। इतने इंतजार का क्या मतलब?’’
प्रतिज्ञा करने का हमेशा यह अर्थ होता है कि हम अपने आपको किसी के लिए गिरवी रखते हैं। इससे आप किसी अन्य को अपने ऊपर विश्वास करने का निमंत्रण देते हैं। आप केवल अपना वचन दे सकते हैं।
जिस प्रकार दो हजार साल पहले रोमी कवि ओविद (Publius Ovid Naso) ने गौर किया था, ’’यदि हम केवल प्रतिज्ञा पर आधारित रहें तो हम सचमुच करोड़पति बन सकते हैं’’। दूसरी तरफ हम कभी-कभी अपनी ही प्रतिज्ञाओं की अक्षमता पर इतने सशंकित रहते हैं कि अगली प्रतिज्ञा नहीं करने पर आमादा रहते हैं।
प्रतिज्ञा पर विश्वास करने का मतलब है उस पर भरोसा रखना जो हमारे लिए प्रतिज्ञा करते हैं, उस व्यक्ति की प्रतिज्ञा के प्रति वचनबद्ध होकर हमेशा आशावादी बने रहना। यदि वे प्रतिज्ञाएं पूरी हो जाती है तो उन पर हमारा भरोसा और गहरा हो जाता है।
यदि लोग आनाकानी करते हुए बारम्बार अपनी बातों के प्रति विश्वस्त नहीं रहते हैं तो हम उनकी नयी लुभावनी प्रतिज्ञा के प्रति सतर्क हो जाते हैं। हम भी अपनी पुरानी प्रतिज्ञाओं को दोहराने में कन्नीं काटते हैं। स्वयं हमारा जीवन एक प्रतिज्ञा बनकर आता है और हमारा भरोसा हमारी इन्हीं प्रतिज्ञाओं के इर्द-गिर्द डोलने लगता है।
संत अगस्टीन लिखते हैं-’’नए नियम में पुराने नियम छिपे हैं, पुराने नियम नए में प्रकट होते हैं।’’ इन वचनों को हमने प्रवक्ता-ग्रन्थ में पढ़ा। वे व्याख्या करते हैं कि प्रज्ञा ईश्वर का ज्ञान और शक्ति है। यह उनसे भिन्न है। किन्तु उनके समान ही हैं। हम भाग्यशाली हैं, ईश्वर के पुत्र-पुत्रियाँ चुने जाने पर उन्होंने हमारे लिये अपने अस्तित्व के दैवी-प्रकृति को प्रकट करने की कृपा की है जो हमारे विश्वास की आवश्यक और मौलिक नींव है। जब तक हम पवित्र-त्रित्व के सिद्धांत पर विश्वास नहीं करते हैं तो प्रभु येसु का अनुसरण करना बेकार और अर्थहीन है।
संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में अपने मन-परिवर्तन एफेसियों के लिए प्रार्थना करने का समय ढूँढ़ते हैं। उन्होंने अपने लिए ईश्वर के वैभवपूर्ण कृपा की माँग ईश्वर से की है जिसकी आवश्यकता आज हम सबके लिये भी अति आवश्यक है। संत पौलुस ने यह भी प्रार्थना की, कि ईश्वर उन्हें मन की ज्योति प्रदान करें जिससे वे यह देख सकें कि ईश्वर के द्वारा बुलाए जाने के कारण उनकी आभा कितनी महान है। कितनी बार हम ख्रीस्तीय होने का अर्थ ही भूल जाते हैं। अपनी बुलाहट को समझने का अर्थ है कि हम ईश्वर के पुत्र-पुत्रियाँ हैं, भाई-बंधु हैं और ईश्वर के राज्य के अधिकारी हैं।
संत पेत्रुस अपने पहले पत्र (1 पेत्रुस 2:9) में कहते हैं कि हम ईश्वर की चुनी हुई प्रजा हैं जो प्रभु येसु की राजकीय पुरोहिताई के सहभागी हैं, एक पवित्र राष्ट्र के नागरिक हैं जो प्रभु के पवित्र रक्त से खरीदे गए हैं।
क्या हम कबूल करते हैं कि हम ईश्वर के विशेषाधिकृत प्रजा हैं, और क्या हम अपने गौरवमयी एवं प्रतिष्ठित बुलाहट से प्रेम करते हैं? हम ईश्वर के असीम प्रेम की कभी थाह नहीं ले सकते जिसे उसने अपने पवित्र शरीरधारण द्वारा हमारे लिए प्रकट किया है।
हम दुनियावी राजा की कल्पना कर सकते हैं जो अपने किसी अधीनस्थ के परिवार को प्यार करते हैं और उस परिवार को अपने राजमहल में रहने के लिये निमंत्रण देते हैं। वह राजा अपने निज़ पुत्र को उस परिवार के घर में भेजते हैं उसकी तैयारी में जब उस परिवार वाले उनके राजमहल में निवास करने आयेंगे और उनके वैभव एवं सभी सुख-सुविधाओं के हकदार होंगे। क्या आप उनके आनंद का अंदाज़ा कर सकते हैं?
हमारा आनन्द भी स्वर्ग में ऐसा ही होगा यदि हम ख्रीस्त की प्रतिज्ञा में बने रहेंगे। किन्तु उन ख्रीस्तीयों का क्या होगा जो ख्रीस्त के दिखाए नियमों पर नहीं चलते और सांसारिक सुख-सुविधाओं में खोये रहते हैं और स्वर्ग की ओर अपना मार्ग स्वयं बंद कर देते हैं?
चलिए हम अपने ख्रीस्तीय धर्म के दो अद्भुत रहस्यों एवं सिद्धांतों को अपने जीवन में आत्मसात करें। पवित्र त्रित्व एवं येसु के शरीर धारण के दो अद्भुत रहस्य। पवित्र शरीर धारण के द्वारा ईश्वर ने हमारे मानव जीवन को इतना ऊँचा उठा दिया है कि हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के जीवन के सहभागी हो सकते हैं और स्वर्ग की वसीयत ग्रहण करके सदैव स्वर्ग का अनंत आनन्द ले सकते हैं।