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12. प्रभु-प्रकाश पर्व

इसायाह 60:1-6; एफ़ेसियों 3:2-3,5-6; मत्ती 2:1-12

(फादर माईकल सबास्टीन)


मैक्रो पोलो ने भारत और चीन की यात्रा की, क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की, एडमिरल बर्ड ने दक्षिण ध्रुव की, आर्म स्ट्राँग ने चाँद की। ऐसा करते हुए इन सभी लोगों ने कुछ साहसिक कार्य अपने हाथों में लिया। डेविड लिविंगस्टन की अफ्रीकी यात्रा के लम्बे विवरण पढ़कर हम साहसिकता को परख सकते हैं। इसी प्रकार जैसे कि सुसमाचार में वर्णित है, तीन विद्वानों ने नवजात बालक येसु की खोज में यात्रा की। उन्होंने अपने देश, घर-बार, सुरक्षा, सबकुछ छोड़कर एक अजनबी देश जाने का जोखिम उठाया ताकि वे उस मुक्तिदाता को खोज सकें।

ये विद्वान संभवतः ज्योतिष होंगे और उनके इस प्रश्न से सारा येरुसालेम घबरा गया- ’’यहूदियों का नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा और हम उनको दण्डवत् करने आए हैं।’’ नबियों के साथ-साथ सभी लोग उस महान राजा के जन्म की राह देख रहे थे। उन्हें दाऊद, यहूदियों के इतिहास के महान राजा के वंश में बेथलेहेम में जन्म लेना था।

जब हेरोद को इस के बारे में पता चला तो उसने उन्हें अपना प्रतिद्वंदी समझा जो आगे चलकर उसके अधिकार के प्रति चुनौती उत्पन्न करेगा। बहुत से लोगों ने उन्हें एक ऐसा नेता समझा जो उन्हें रोमियों के घृणित शासन से मुक्त करेगा। परन्तु उन विद्वानों के बारे में क्या? उनका इस नये राजा के बारे में क्या विचार था? संत मत्ती बताते हैं, ’’घर में प्रवेश कर उन्होंने बालक को उसकी माता मरियम के साथ देखा और उसे साष्टांग प्रणाम किया।’’ येसु को, जिन्हें हेरोद और यहूदियों के नेताओं ने अस्वीकार किया था, उन ज्योतिषियों ने ईश्वर के रूप में स्वीकार किया। यहूदी लोग इन गैर-यहूदियों को विदेशी, विधर्मी और अविश्वासी मानते थे, परंतु उन्हें ईश्वर के दर्शन होने पर इस प्राप्त अवसर का भरपूर आनन्द लेने के लिए वे ईश्वर के बताये हुए मार्ग पर चलकर बालक येसु के गौशाले तक पहुँच जाते हैं।

तारे तो कई लोग देखते हैं परन्तु उनके उदय होने का अर्थ समझने वाले कम होते हैं। अर्थ समझने वालों में उनका अनुसरण करने वाले भी बिरले हैं। हमारे जीवन में ऐसी कई घटनाएं घटती हैं जो तारे के रूप में हमें येसु तक पहुँचा सकती हैं परन्तु हम कितने ही ऐसे अवसरों को खो देते हैं। कभी-कभी हमारी दृष्टि पाप से इतनी दूषित होती है कि हम उस तारे को देख नहीं पाते हैं। कभी-कभी उसे देखकर भी उसका अनुसरण करना नहीं चाहते हैं क्योंकि वह जोखिम भरा रास्ता होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम चरनी के चारों तरफ चक्कर काटते तो हैं परंतु चरनी में लेटे प्रभु को पहचान नही पाते हैं क्योंकि हमारी सोच के अनुसार प्रभु का जन्म राजमहल में ही हो सकता है। इसी कारण हमें हेरोद के राजमहल में हमारी यात्रा समाप्त कर हताश होकर वापस जाना पड़ता है।

हेरोद और यहूदियों के नेताओं के समक्ष एक चुनाव था- या तो वे उस तारे का अनुसरण कर सकते थे जैसे उन ज्योतिषियों ने किया था या उस कार्य से पीछे हट सकते थे। उन्होंने उसका अनुसरण न करना उचित समझा और वे उस अनोखे अनुभव से वंचित रह गये जिसे ईश्वर ने उनके लिए छोड़ रखा था। वे ईश्वर के अनुभव से चूक गये। यही चुनाव सभी यहूदियों के सामने रखा गया था। ईश्वर मिस्र देश से प्रतिज्ञात देश की ओर उनकी यात्रा में उनका पथ-प्रदर्षन करते रहें। वे रात में अग्नि के रूप में और दिन में बादलों के स्तंभ के रूप में उनके आगे आगे चलते रहे और वे प्रतिज्ञात देश की सीमाओं तक पहुँच गये। मूसा ने उन्हें विधान की संहिता के विभिन्न बिन्दुओं का स्मरण कराया तथा इसका सारांश स्वरूप दस आज्ञाएं उन्हें दी। संहिता के प्रति निष्ठा का मतलब था ’जीवन’ और ’ईश्वर के साथ मिलन’। संहिता के उल्लंघन का मतलब था ’मरण’। ’’आज मैं तुम लोगों के सामने जीवन और मृत्यु, भलाई और बुराई, दोनों रख रहा हूँ। तुम्हारे प्रभु-ईश्वर की जो आज्ञाएं मैं तुम्हें दे रहा हूँ, यदि तुम उनका पालन करोगे, यदि तुम अपने ईश्वर को प्यार करोगे, उसके मार्ग पर चलोगे और उसकी आज्ञाओं, विधियों तथा नियमों का पालन करोगे, तो जीवित रहोगे।’’ (देखिए विधि-विवरण 30:19-20)

कन्निंगम नामक अमरिकी नौसेना अफसर के बारे में एक कहानी प्रचलित है। बचपन से ही उनकी एक जंगी जहाज का कप्तान बनने की बड़ी इच्छा थी। एक दिन वह पूरी हुई। वे कप्तान बने। इस पर उनके दोस्तों तथा शुभचिन्तकों ने उन्हें बधाई दी। उनकी पहली जलयात्रा प्रारंभ हुई तो वे बहुत ही उत्तेजित थे। दो रात बीत गई। तीसरी रात में एक बहुत बड़ा तूफान आया। बड़ी चतुरता से वे अपने अफसरों को आदेश दे रहे थे। अचानक सामने कुछ दूरी पर उन्होंने एक प्रकाश देखा। यह सोचकर कि वह एक जहाज है, उन्होंने उसे यह संकेत भेजा कि तुम अपना रास्ता बदलकर पच्चीस डिग्री उत्तर की तरफ जाओ। तुरंत वहाँ से वापस संकेत आया कि तुम अपना रास्ता बदलकर पच्चीस डिग्री उत्तर की तरफ जाओ। पुनः कप्तान ने वही संकेत भेजा तो वही जवाब मिला। इस पर क्रोधित होकर कप्तान ने चेतावनी देकर फिर से संकेत भेजा कि यह कप्तान कन्निंगम का आदेश है, तुम्हें अपना रास्ता बदलना ही पडे़गा, नहीं तो मैं तुम्हें खत्म कर दूँगा। तब वहाँ से वापस संकेत आया कि यह दीप-स्तंभ है तुम्हें ही अपना रास्ता बदलना पडे़गा। तब तक देर हो चुकी थी, जिस पत्थर पर उस दीप-स्तंभ का निर्माण हुआ था उसी से टक्कर खाकर उस जहाज का सर्वनाश हो गया।

प्रभु प्रकाश के इस पर्व के अवसर पर हमारे सामने भी इसी प्रकार का चुनाव है- या तो हम उस अविश्वासी हेरोद के समान येरुसालेम में रुक सकते हैं या उन ज्योतिषियों के समान तारे का अनुसरण करके बेथलेहेम पहुँच सकते हैं। हम या तो येसु को स्वीकार कर सकते हैं या उनका तिरस्कार। येसु को स्वीकार करने का मतलब है जीवन को चुनना और उनका अस्वीकार करने का मतलब है ईश्वरीय अनुभव का अस्वीकार करना, उनके सामने अपने आँखें बन्द कर लेना जो हमारे जीवन को सच्चा अर्थ दे सकता है। अगर हम उस कप्तान की तरह अपने ही मार्ग पर चलना चाहेंगे तो कौन हमें बचा सकता है। हमारा भी सर्वनाश अवश्य होगा। हमको भी संत पेत्रुस के समान घोषित करना चाहिए, ’’हे प्रभु हम किसके पास जाएं! अपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।’’ (योहन 6:68)


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