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14. वर्ष का दूसरा इतवार

1 समूएल 3:3ब-10,19; 1 कुरिन्थियों 6:13स-15अ,17-20; योहन 1:35-42

फादर फ्रांसिस स्करिया


आज के पाठों में हम शिष्यों की बुलाहट के बारे में सुनते हैं। पहले पाठ में हम देखते हैं कि बालक समूएल प्रभु के मन्दिर में, जहाँ ईश्वर की मंजूषा रखी हुई थी, सो रहा था। तब प्रभु ने उनको बुलाया, लेकिन बालक ने सोचा कि याजक एली ने उन्हें बुलाया। इसलिए समूएल ने एली के पास जा कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने कहा, “मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’ वह लौट कर लेट गया। प्रभु ने दूसरी बार बालक को पुकारा। समूएल फिर से एली के पास गय़ॆ। एली ने उन्हें फिर से वापस भेजा। प्रभु ने तीसरी बार उन्हें पुकारा। इस बार एली समझ गया कि प्रभु बालक को बुला रहे हैं। इसलिए उन्होंने बालक से कहा, “जा कर सो जाओ। यदि तुम को फिर बुलाया जायेगा, तो यह कहना, ‘प्रभु! बोल तेरा सेवक सुन रहा है।’ समूएल गया और अपनी जगह लेट गया। प्रभु ने पहले की तरह उन्हें पुकारा, ‘‘समूएल! समूएल!’’ समूएल ने उत्तर दिया, ‘‘बोल, तेरा सेवक सुन रहा है।’’ उस समय से समूएल ईश्वर के विश्वस्त सेवक बने रहे।

इस प्रकार एली ने समूएल को अपनी बुलाहट और ईश्वर से मुलाकात को भली भाँति समझने के लिए मार्गदर्शन दिया। इस प्रकार समूएल के ईशसेवा के कार्य में याजक एली का बडा योगदान रहा।

इसी प्रकार आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि संत योहन बपतिस्ता अपने दो शिष्यों को प्रभु येसु के शिष्य बनने के लिए प्रेरित करते हैं। उन में से एक अन्द्रेयस कुछ समय येसु के साथ बिताने के बाद अपने भाई सिमोन का येसु से परिचय कराते हैं। येसु सिमोन को पेत्रुस नाम दे कर उन्हें प्रेरितों का अगुआ बनाते हैं। एली और योहन बपतिस्ता हमारे सामने एक आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करते हैं। ये दोनों वास्तव में अपने शिष्यों को अपने अधीन करने के बजाय उन्हें ईश्वर के दर्शन तथा ईश्वर की सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।

प्रेरित-चरित, अध्याय 9 में हम पढ़ते हैं कि साऊल अपने मनपरिवर्तन के बाद येरूसालेम पहुँच कर प्रभु येसु के शिष्यों के समुदाय में शामिल होने की कोशिश करता रहा। लेकिन शिष्यों ने उन्हें शामिल नहीं किया क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वास्तव में साऊल का मनपरिवर्तन हुआ है। तब बरनाबस ने उसे प्रेरितों के पास ले जा कर उन्हें बताया कि साऊल ने मार्ग में प्रभु के दर्शन किये थे और प्रभु ने उस से बात की थी और यह भी बताया कि साऊल ने दमिश्क में निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार किया था। फिर साऊल बरनाबस के सहयोगी के रूप में सेवा कार्य करने लगते हैं। बाद में बरनाबस स्वयं साऊल के सहयोगी के रूप में सेवा कार्य करने लगते हैं।

इन सब में हम यह देखते हैं कि सुसमाचार के सच्चे सेवक लोगों को प्रभु की ओर ले जाते हैं। वे कभी भी लोगों को अपने आप तक सीमित नहीं रखते हैं।

रोमियों के नाम पत्र में संत पौलुस नबी इसायाह के ग्रन्थ के वचन को दोहराते हुए कहते हैं, “शुभ सन्देश सुनाने वालों के चरण कितने सुन्दर लगते हैं “ (रोमियों 10:15)! प्रभु येसु ने भी अपने शिष्यों से कहा, फसल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं। इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।“ (मत्ती 9:37-38)

गणना ग्रन्थ अध्याय 11 में हम देखते हैं कि मूसा ने सत्तर वयोवृद्धों को बुला कर दर्शन-कक्ष के आसपास खड़ा कर दिया। तब प्रभु ने मूसा की शक्ति का कुछ अंश उन सत्तर वयोवृद्धों को प्रदान किया। इसके फलस्वरूप उन्हें एक दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे भविष्यवाणी करने लगे। इनके अलावा एलदाद तथा मेदाद नाम के दो पुरुष शिविर में रह गये थे। उन्हें वहीं दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे शिविर में ही भविष्यवाणी करने लगे। एक नवयुवक दौड़ कर मूसा से यह कहने आया - ''एलदाद और मेदाद शिविर में भविष्यवाणी कर रहे हैं''। मूसा के पास खडे योशुआ ने यह कह कर अनुरोध किया, ''मूसा! गुरूवर! उन्हें रोक दीजिए।'' इस पर मूसा ने उसे उत्तर दिया, ''क्या तुम मेरे कारण ईर्ष्या करते हो? अच्छा यही होता कि प्रभु सब को प्रेरणा प्रदान करता और प्रभु की सारी प्रजा भविष्यवाणी करती।''

इस प्रकार पवित्र बाइबिल ईश्वर के महान सेवकों के आदर्श जीवन को हमारे सामने रखते हुए हमें यह शिक्षा देती है कि हमें सभी लोगों के साथ मिल कर ईश्वर की सेवा करना चाहिए। कभी भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश नहीं करना चाहिए। संत योहन प्रभु येसु की बढ़ती ख्याति पर आनन्द मनाते हुए कहते हैं, “यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ” (योहन 3:30)। आईए, हम भी इसी तरह ईश्वर के विनम्र सेवक बनें।


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