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चालीसे का दूसरा इतवार_2018

उत्पत्ति 22:1-2,9अ,10-13,15-18; रोमियों 8:31ब-34; मारकुस 9:2-10

फादर रोनाल्ड वाँन


येसु के रूपांतरण का उद्देश्य शिष्यों को येसु के भावी दुःखभोग को साहस एवं विश्वास के साथ साक्ष्य देने के लिए सक्षम बनाना था। रूपांतरण के दौरान पिता परमेश्वर येसु की प्रभुता को प्रदर्शित करते हैं तथा साथ ही साथ उन्हें स्वर्गिक वाणी “यह मेरा प्रिय पुत्र है” को सुनाते हैं। यह दृश्य तथा दिव्य वाणी येसु की प्रभुता में विश्वास करने के लिए शिष्यों को तैयार कर रही थी जिससे प्रेरित होकर वे येसु के दुःखभोग तथा क्रूस-मरण से निराश न हो बल्कि विश्वास में दृढ बने रहें। येसु का यह निर्देश कि “जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।”(मारकुस 9:9) उनके इसी उद्देश्य की पुष्टि करता है कि उन्हें न सिर्फ विश्वास में दृढ बने रहना है बल्कि येसु के पुनरूत्थान के बाद इस रूपांतरण की घोषणा भी करना है।

रूपांतरण का अनुभव अस्थायी था लेकिन उसका उद्देश्य प्रभावशाली था। पेत्रुस उस आध्यात्मिक वातावरण में ही बना रहना चाहते थे। वे उस गौरवमय क्षणों में हमेशा बने रहना चाहते थे। शायद इसलिये वे कहते हैं, “गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।” किन्तु पेत्रुस की इस अभिव्यक्ति एवं सुझाव पर येसु कोई उत्तर नहीं देते हैं क्योंकि शायद ये बातें अप्रासंगिक थी। जो बात प्रासांगिक थी वह यह कि वे येसु की प्रभुता एवं दिव्यता का अनुभव करे तथा अपने कठिन समय में यह याद रखें कि येसु सचमुच में कौन हैं।

ईश्वर सोदोम और गोमोरा का विनाश करने से पूर्व इब्राहिम को इसका आश्वान्वित करना चाहते थे। वे इब्राहिम से कहते हैं कि, “सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है। मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।” (उत्पत्ति 18:20-21) ईश्वर का इस प्रकार इब्राहिम को अपनी योजना बताना इस बात का सूचक था कि इब्राहिम को सोदोम निवासी अपने भतीजे लोट एवं उसके परिवार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर इब्राहिम के इस निवेदन को कि यदि वहाँ पर दस धर्मी व्यक्ति भी मिलेंगे तो भी वह उसे नष्ट नहीं करेंगे को भी स्वीकार करता है। इस प्रकार ईश्वर इब्राहिम को विश्वास में लेकर ही यह कदम उठाते हैं जिससे इब्राहिम का साहस बना रहे। (देखिए उत्पत्ति 18:20-33)

मूसा भी ईश्वर के आज्ञानुसार लोगों का नेतृत्व करते समय अनिश्चितता एवं संशय की स्थिति में था। ऐसी स्थिति में वह भी ईश्वर के दर्शन की अभिलाषा करता है जिससे संकट एवं कठिन परिस्थितियों में उसका मनोबल बना रहे। “मूसा ने प्रभु से कहा,...यदि मैं सचमुच तेरा कृपापात्र हूँ, तो मुझे अपना मार्ग दिखला, जिससे मैं तुझे जान सकूँ और तेरा कृपापात्र बना रहूँ। यह भी ध्यान रख कि ये लोग तेरी ही प्रजा हैं। ....प्रभु ने मूसा से कहा, तुमने अभी जिस बात के लिए प्रार्थना की है, वही मैं करूँगा, क्योंकि तुम मेरे कृपापात्र हो और मैंने तुम को चुना है”। इस पर मूसा ने निवेदन किया, “मुझे अपनी महिमा दिखाने की कृपा कर।” उसने कहा, “मैं अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ तुम्हारे सामने से निकल जाऊँगा और तुम पर अपना ’प्रभु’ नाम प्रकट करूँगा। मैं जिनके प्रति कृपालु हूँ, उन पर कृपा करूँगा और जिनके प्रति दयालू हूँ, उन पर दया करूँगा।” (देखिए निर्गमन 33:12-19)

इस प्रकार ईश्वर मूसा पर अपनी महिमा प्रकट करते हैं और मूसा के हृदय में इस ईश्वरीय महिमा की स्मृति सदैव बनी रहती है। इस अनुभव से प्रेरित होकर मूसा प्रभु की प्रजा को नेतृत्व प्रदान करते हैं।

हमारे जीवन में भी ईश्वर हमें इस प्रकार का अनुभव कराते हैं। हमें भी ईश्वर की अद्वितीय निकटता तथा सहायता का अहसास होता है। इसके फलस्वरूप हमारा विश्वास एक नये मुकाम पर पहुँचता है। किन्तु यह सदैव नहीं बना रहता है। लेकिन इस अनुभव की छाप सदैव हमारे स्मृतिपटल पर बनी रहती है। यह स्मृति हमें हमारे कठिन दौर में हमारे विश्वास को बनाये रखने में सहायक होती है।

शायद रूपांतरण के इसी अनुभव को ध्यान में रखकर संत योहन साक्ष्य देते हैं, “... शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण।” (योहन 1:14) तथा “हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं।” (1 योहन 1:1:2) संत योहन को येसु की दिव्यता एवं प्रभुता में विश्वास था क्योंकि उन्होंने इसका अनुभव किया था तथा वे अपने इस ईश्वरीय अनुभव को सारी जीवन संजोय रखते हैं। उनकी इस स्मृति के कारण उन्होंने अपने प्रेरिताई के जीवन के सारे दुःख-संकट विश्वास के साथ झेले। संत पेत्रुस कहते हैं, “जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, “यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” जब हम पवित्र पर्वत पर उनके साथ थे, तो हमने स्वयं स्वर्ग से आती हुई यह वाणी सुनी।” (2 पेत्रुस 1:16-18)

आइए हम भी अपने जीवन में ईश्वरीय अनुभवों की स्मृति संजोए रखें जिससे अपने निजी दुःखभोग में हमारा विश्वास दृढ़ बना रहें।


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