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पास्का का तीसरा इतवार_2018

प्रेरित चरित 3:13-15,17-19; 1 योहन 2:1-5अ; लूकस 24:35-48

फादर रोनाल्ड वाँन


मानव अनादि काल से ही शांति की खोज करता रहा है। इब्रानी भाषा में शांति को ’शालो’ कहते हैं जिसका अर्थ है, ’परिपूर्णता’, ’परिपक्वता’, ’सम्पूर्ण’। जब मनुष्य अपने अंतरतम में परिपूर्णता का अनुभव करता है तो उसे वह शांति प्राप्त होती है जिसकी तलाश उसे हमेशा से होती रही है। हम जिंदगी में शांति को समृद्धि में खोजने का प्रयत्न करते हैं। उपलब्धि, संपत्ति, अधिकार, विलक्षणता आदि के द्वारा भी हम परिपूर्णता या शांति को प्राप्त करना चाहते हैं। मानव पहाडों, गुफाओं, रेगिस्तानों जैसी एंकात स्थानों में शरण लेता है। जीवन जीने की विभिन्न शैलियॉ अपनाता तथा योग, प्राणिक चंगाई आदि कसरतें करता है। किन्तु ये मानवीय प्रयत्न क्षणिक सांसारिक उल्लास या सुख प्रदान करते हैं। स्थायी शांति फिर भी दूर बनी रहती है।

’शांति’ प्रभु येसु का वह अनमोल उपहार है जिसे उन्होंने अपने शिष्यों को दिया है। “मैं तुम्हारे लिये शांति छोड जाता हूँ। अपनी शांति तुम्हें प्रदान करता हूँ। वह संसार की शांति-जैसी नहीं है। तुम्हारा जी घबराये नहीं। भीरु मत बनो।” (योहन 14:27) प्रभु के जन्म पर भी स्वर्गदूतों के समूहों ने शांति के वरदान की घोषणा की थी, ‘‘सर्वोच्च स्वर्ग में ईश्वर की महिमा प्रकट हो और पृथ्वी पर उसके कृपापात्रों को शान्ति मिले!” (लूकस 2:14) प्रभु येसु के जन्म की भविष्यवाणी में भी नबी इसायाह उन्हें शांति का राजा कहते हैं, “....हम को एक पुत्र मिला है। उसके कन्धों पर राज्याधिकार रखा गया है और उसका नाम होगा- अपूर्व परामर्शदाता, शक्तिशाली ईश्वर, शाश्वत पिता, शान्ति का राजा।” (इसायाह 9:5) अपने शिष्यों का प्रेषण करते समय येसु उन्हें इसी शांति के साथ भेजते हैं। “जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’ यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।” (लूकस 10:5-6) इब्रानियों के नाम पत्र का लेखक भी येसु को शांति का राजा बताते हैं। वे मेलखिसेदेक को, येसु का पूर्व-चिन्ह बताते हुये इंगित करते हैं, “सालेम के राजा और सर्वोच्च ईश्वर के पुरोहित ....मेलखिसेदेक का अर्थ है -धार्मिकता का राजा। वह सालेम के राजा भी है, जिसका अर्थ है- शान्ति के राजा।”(इब्रानियों 7:1-2)

प्रभु की मृत्यु के बाद जब शिष्य निराश एवं भयभीत थे तो पुनर्जीवित प्रभु तीन बार शिष्यों को पुनः शांति प्रदान करते है। “...ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, “तुम्हें शांति मिले!” और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, “तुम्हें शांति मिले!” (योहन 20:19-20) “वे इन सब घटनाओं पर बातचीत कर ही रहे थे कि ईसा उनके बीच आ कर खड़े हो गये। उन्होंने उन से कहा, ‘‘तुम्हें शान्ति मिले!” (लूकस 24:36) इस प्रकार शांतिप्रदाता येसु शिष्यों के हृदयों की उथलपुथल को अपनी शांति से शांत करते हैं।

हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि हमारा ईश्वर शांति का ईश्वर है तथा उसने हमें शांति का जीवन जीने के लिए बुलाया है। जो शांति प्रभु हमें प्रदान करते हैं वह संसार की शांति के समान नहीं है जो कुछ क्षण के लिए हमें केवल शांति का अहसास कराती है। प्रभु की शांति उनके सानिध्य एवं सामिप्य से प्राप्त होती है।

जब येसु शिष्यों के साथ नाव में जा रहे थे तो नाव तूफान से घिर गयी थी। शिष्यों में भय छा गया था। वे इस डर और घबराहट के बीच येसु को जगाते हैं। येसु ने “वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, “शान्त हो! थम जा!” वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।” (मारकुस 4:39) संत पौलुस कहते हैं, “ईश्वर कोलाहल का नहीं, वरन् शान्ति का ईश्वर है।...” (1 कुरि. 14:33) हमारे जीवन में भी हम अव्यवस्था, अंशांति एवं तूफानों से गुजरते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमें शांति के राजा येसु को पुकारना चाहिए जो सारे कोलाहल को शांत करते हैं। यदि विषम परिस्थितियों में हम सांसारिक तिकडमों पर भरोसा करेंगे तो यह कोलाहल बढता ही जायेगा।

प्रभु की शांति को प्राप्त करने और उसमें बने रहने के लिए हमें लोगों के बीच शांति स्थापित करना चाहिए। जो व्यक्ति मेलमिलाप के कार्यों में लगे रहते हैं वे सचमुच में ऐसे लोग है जो प्रभु की शांति का अनुभव करते हैं। उसी शांति से प्रेरित होकर वे मेल कराते हैं। ऐसे शांतिप्रिय लोगों को येसु धन्य कह कर पुकारते हैं, “धन्य हैं वे, जो मेल कराते हैं! वे ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।” (मत्ती 5:9) इसी प्रकर अपने शिष्यों को नमक के समान बनने की चुनौती देने के साथ-साथ येसु हमें आपसी शांति एवं मेल-मिलाप को बनाये रखने का आव्हान करते हैं। “...अपने में नमक बनाये रखो और आपस में मेल रखो।” (मारकुस 9:50) ईश्वर जो शांति का ईश्वर है चाहते हैं कि हम अपने कार्यों के द्वारा शांति भंग न करें तथा शांति स्थापित कर प्रभु की धन्यता को धारण करना चाहिए। इस प्रकार “ईश्वर की शान्ति, जो हमारी समझ से परे हैं, आपके हृदयों और विचारों को ईसा मसीह में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिल्पियों 4:7) यह वही शांति है जिसे येसु अपने भयभीत शिष्यों को अपने पुनरूत्थान के बाद प्रदान करते हैं।


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