Smiley face

39. वर्ष का आठवाँ इतवार

होशेआ 23:16ब-17ब, 21-22; 2 कुरिन्थियों 3:1ब-6; मारकुस 2:18-22

(फादर रोनाल्ड वाँन)


संसार में रोजाना कई लोग मरते हैं, लेकिन उनकी मृत्यु पर हम उतने उदास नहीं होते जितने कि हमारे प्रियजनों की। ऐसा इसलिए होता है कि मृत व्यक्ति को हम जानते तक नहीं हैं। लेकिन जब हमारे अपने किसी प्रियजन की मौत होती है तो हम अत्यंत दुःखी हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? एक के प्रति कम दुख, वहीं दूसरे की मौत पर अधिक दुख!

हमारा अंजान व्यक्ति की मृत्यु पर ज्यादा दुखी न होना हमारी संवेदनहीनता की निशानी नहीं बल्कि इस बात की निशानी है कि हमारा उस अंजान के साथ कोई व्यक्तिगत रिष्ता नहीं था। हम उसे जानते तक नहीं थे एवं हमें उसके प्रेम का अनुभव नहीं था। इसलिए उसकी मृत्यु का हमें ज्यादा गम नहीं होता। वहीं दूसरी ओर प्रियजन की मौत हमें झकझोर कर रख देती है क्योंकि हमारा उससे व्यक्तिगत संबंध था एवं हम उससे प्रेम करते थे।

आज के सुसमाचार में हम सुनते हैं कि कुछ लोग आकर येसु से पूछते हैं, ’’आपके शिष्य उपवास क्यों नहीं करते?’’ इसपर प्रभु येसु सीधा उत्तर न देते हुए कहते हैं, ’’जब तक दुलहा उनके साथ है, वे उपवास नहीं कर सकते हैं। किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुलहा उनसे बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।’’ प्रभु के कथन का यह अर्थ है कि खुशी के अवसर पर कोई भी उपवास नहीं करता। और वह खुशी का अवसर कौन-सा है? वह खुशी का अवसर प्रभु का अपने शिष्यों के साथ होना था। येसु के साथ रहकर वे येसु के प्रेम में बढ़ रहे थे। ऐसा करने से येसु के प्रति उनका प्रेम और अधिक प्रगाढ़ हो रहा था। इसी प्रेम के कारण यदि वह दिन आये जब उनको कठिन त्याग भी करना पड़े तो वे कर सकेंगे क्योंकि उन्होंने प्रभु के प्रेम का अनुभव किया था। वही व्यक्ति त्याग कर सकता जिसने प्रेम का अनुभव किया हो। तो येसु का यह कहना ’’किन्तु वे दिन आयेंगे, जब. . . वे उपवास करेंगे’’ यह दर्षाता है कि येसु के नाम के कारण आनी वाली तकलीफ़ों को शिष्य सही तरीके से झेल सकेंगे क्योंकि उन्होंने येसु के साथ रहकर उनके जीवन को बांटा एवं उनके निकटतम प्रेम का अनुभव किया। उस स्थिति में उनके त्याग या उपवास का सही अर्थ उनके जीवन में आयेगा।

प्रभु पुराने कपड़े पर कोरे कपड़े का पैबन्द लगाने तथा पुरानी मशकों में नयी अंगूरी भरने को मूर्खता की बात कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रभु अपने शिष्यों को अपने प्रेम एवं जीवन के द्वारा नवीन बनाना चाहते थे। अगर शिष्यों का जीवन येसु के अनुसार नवीन नहीं बनता तो उनके द्वारा किये गये सभी धार्मिक कार्य व्यर्थ होते। जैसे नयी अंगूरी पुराने मशकों को फाड़ देती है, ठीक उसी प्रकार प्रभु की शिक्षा अपरिवर्तित शिष्यों के जीवन में भी व्यर्थ हो जाती। प्रभु येसु ही वह नयी अंगूरी या दाखरस हैं जो इस संसार को बचाने एवं नवीन बनाने आयी थी। इसलिये यह ज़रूरी था कि येसु रूपी नयी अंगूरी को ग्रहण करने के लिए शिष्य स्वयं को नयी मशकों के समान नवीन बनायें। शिष्यों को स्वयं को नवीन करने के लिए यह ज़रूरी था कि वे येसु के प्रेम का अनुभव करें। जब वे स्वयं प्रभु के साक्षात् सानिध्य में थे तो उनके लिए उस समय उपवास करना कोई मायने नहीं रखता था।

किसी ने कहा है कि ’’उपवास आत्मा का आभूषण है।’’ उपवास त्याग की निषानी है। हम ईश्वर के नाम पर अपने शरीर को भूखा रखते हैं जिससे हमारा शरीर शारीरिक भूख-प्यास से ऊपर उठकर ईश्वरीय शक्ति को पहचान सके। इस तरह हम शरीर की आवश्यकताओं से परे जाकर आत्मा को शक्तिशाली बनाने हेतु प्रयत्न करते हैं। लेकिन यदि हमारा उपवास केवल बाहरी या धार्मिक नियमों को पूरा करने तक ही सीमित रहता है तो हम अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं। येसु के समय लगभग यही स्थिति थी। मूसा की संहिता के अनुसार यहूदियों को वर्ष में केवल एक बार उपवास रखना था लेकिन फरीसी लोग सप्ताह में दो बार उपवास रखा करते थे। वे ऐसा इसलिए करते थे कि लोग उन्हें अन्यों से अधिक धार्मिक मानें तथा अधिक मान-सम्मान दें। येसु लोगों की उपवास रखने की प्रथा के विरुद्ध नहीं थे क्योंकि धर्मग्रंथ स्वयं इसके लिये लोगों का आह्वान करता है, ’’अब तुम लोग उपवास करो. . .अपने वस्त्र फाड़ कर नहीं बल्कि हृदय से पश्चात्ताप करो . . .’’ (योएल 2:12-13)। येसु लोगों की दिखावे की मानसिकता के विरुद्ध थे। वे चाहते थे कि लोग ईश्वर की आराधना सही रूप, तरीके एवं मानसिकता से करें। प्रभु चाहते थे कि उनके शिष्य भी उपवास की सही भावना का समझें। उपवास का सही मतलब समझना और उसके अनुसार जीवन ढ़ालने के लिए सबसे उचित यही था कि वे येसु जो स्वयं ईश्वर हैं के साथ रहें और उनके प्रेम का अनुभव करें। हम भी अपने जीवन में न सिर्फ उपवास बल्कि कई धार्मिक कार्यों के द्वारा ईश्वर का अनुभव करने का प्रयत्न करते हैं। आइए, हम भी अपने उपवास जैसे धार्मिक कार्यों का अवलोकन करें और स्वयं से पूछें, ’’क्या मैंने सचमुच में ईश्वर के प्रेम का अनुभव किया है? यदि हाँ, तो क्या मेरे धार्मिक कार्य उसी प्रेम से प्रेरित होकर उसके सही फल उत्पन्न करते हैं?


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