Johnson

वर्ष का बाईसवाँ इतवार

विधि-विवरण 4:1-2,6-8; याकूब 1:17-18, 21ब-22,27; मारकुस 7:1-8,14-15,21-23

फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


आज के पाठों का सन्देश है - मनुष्य की भलाई के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त नियम। पहले पाठ में पिता ईश्वर नबी मूसा के द्वारा लोगों से कहते हैं कि प्रतिज्ञात देश में भली-भाँति प्रवेश करने एवं जीने के लिये उन्हें ईश्वर के द्वारा दिये हुए नियमों का पालन करना चाहिए है। उन नियमों का पालन करने से ईश्वर उनके करीब रहेगा। दूसरे पाठ में सन्त याकूब हमें बताते हैं कि विनम्रता से ईश्वर के वचन को ग्रहण करें व पालन करें जो आपकी आत्माओं को मुक्ति प्रदान करेगा। और सुसमाचार में प्रभु येसु फरीसियों और शास्त्रियों की निन्दा करते हैं जो ईश्वर के नियमों को भुलाकर स्वयं के द्वारा बनाये हुए नियमों से लोगों को गुमराह करते हैं।

ईश्वर ने पंचग्रन्थ (तौराह) में इस्रायलियों को कई नियम दिये हैं जिनमें से दस आज्ञाओं से हम भली-भाँति परिचित हैं। यहूदियों के पंचग्रन्थ पर आधारित ये सारे नियम संख्या में कुल 613 हैं जिनमें से 365 नियम निषेधाज्ञाओं के रूप में हैं और अन्य सकारात्मक आज्ञायें 248 हैं। निषेधाज्ञाओं में ऐसे नियम व आज्ञायें हैं जिनमें कुछ चीजें/कार्य करने से मना किया गया है। सकारात्मक आज्ञायें या नियम वे हैं जिनका पालन करना है और उन कार्यों को करना ज़रूरी है। फरीसियों और शास्त्रियों के अनुसार ये सारे नियम ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं और उनकी परम्परा उन्हें सिखाती है कि सभी को उनका पूर्ण रूप से पालन करना है और फरीसियों एवं शास्त्रियों को विशेष रूप से यह देखना है कि लोग उनका पालन भली-भाँति कर रहे हैं कि नहीं। यही कारण है कि आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि उन्हें यह बात अखरती है कि प्रभु येसु के शिष्य बिना हाथ धोये भोजन कर रहे थे।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और बिना नियमों के हम एक सभ्य समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर हम नियमों से घिरे रहते हैं। स्कूली दिनों में स्कूल के नियम, बड़े होकर समाज के नियम, सरकार के नियम, धर्म के नियम, संस्कृति के नियम इत्यादि। अगर कोई व्यक्ति इनमें से किसी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह समूह या समाज में रहने के योग्य नहीं है। इन सारे नियमों में सभी नियमों का कुछ न कुछ उद्देश्य है। अगर कोई नियम ऐसा है जिसका उद्देश्य लोगों को नहीं मालूम तो ऐसे नियमों का पालन करना व्यर्थ है। जिस नियम का उद्देश्य जिस क्षेत्र से है उस नियम का महत्व उसी क्षेत्र में है। उदाहरण के लिये स्कूल के नियमों की सार्थकता तभी है जब उनका पालन स्कूल के सन्दर्भ में किया जाये। अगर हम स्कूल के नियमों को संविधान के नियमों के सन्दर्भ में देखें अथवा धार्मिक क्षेत्र में लागू करें तो इसमें कोई सार्थकता नहीं रहेगी।

आज का पहला पाठ हमें समझाता है कि ईश्वर ने जो नियम हमें दिये हैं उनका उद्देश्य है कि हम अपना जीवन सफलतापूर्वक जियें और हम ईश्वर के और करीब आयें इतने करीब कि स्वयं गर्व हो और कहें ’’...ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु ईश्वर हमारे निकट है...’’ (विधि विवरण 4:7)। अतः ईश्वर के नियम हमें ईश्वर के करीब लाते हैं। और इसके विरूद्ध हम सोचें कि जो नियम हमें ईश्वर के करीब ना लायें ऐसे नियमों का पालन करने में क्या फायदा? प्रभु येसु को फरीसियों और शास्त्रियों से इसी बात पर आपत्ति है कि वे ईश्वर द्वारा दिये हुए नियमों का वास्तविक उद्देश्य भुलाकर स्वयं के बनाये नियमों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं (देखें मारकुस 7:7-8)। उन्होंने बहुत सारे ऐसे नियम बनाये थे जिनका वास्तविक उद्देश्य ईश्वर के उद्देश्य से कोसों दूर था।

दूसरे शब्दों में, हम समझ सकते हैं कि नियम हमें ईश्वर के पास आने के योग्य बनाने में सहायक होने चाहिये। हम ईश्वर के पास आने के तभी योग्य होंगे जब हमारा हृदय पवित्र होगा (स्त्रोत्र ग्रन्थ 24:3-4अ)। जो हृदय के निर्मल हैं वे ही प्रभु के दर्शन कर पायेंगे (मत्ती 5:8)। प्रभु येसु भी यही चाहते हैं कि बाहरी पवित्रता से अधिक हमारे लिये आन्तरिक पवित्रता आवश्यक है (मारकुस 7:15) बाहर से अन्दर जाने वाली चीजें हमें अशुद्ध नहीं करती बल्कि हमारे मन के भाव, विचार आदि हमें अपवित्र बनाते हैं जिसके कारण हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं(मारकुस 7:6ब)। आईये हम ईश्वर से कृपा माँगें कि हमारा एकमात्र उद्देश्य अपने आप को ईश्वर के योग्य बनाने का हो।


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