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57. वर्ष का छब्बीसवाँ इतवार

गणना ग्रन्थ 11:25-29; याकूब 5:1-6; मारकुस 9:38-43,45,47-48

(फादर जोस प्रकाश))


गणना ग्रन्थ से आज के पहले पाठ तथा संत मत्ती के अनुसार सुसमाचार का संदेश एक ही है; प्रभु का आत्मा या प्रभु का नाम किसी व्यक्ति विशेष मात्र के अधिकार में नहीं हैं। प्रभु का आत्मा किसी भी व्यक्ति पर उतर सकता है तथा प्रभु का नाम कोई भी विश्वासी ले सकता है। पहले पाठ में हम सुनते हैं कि प्रभु ने मूसा की शक्ति का कुछ अंश सत्तर वयोवृद्धों को प्रदान किया और वे भविष्यवाणी करने लगे। एलदाद और मेदाद दर्शन कक्ष में नहीं आये थे वे शिविर में रह गये थे। फिर भी उन्हें दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे शिविर में ही भविष्यवाणी करने लगे। इस पर नून के पुत्र योशुआ ने, जो बचपन में मूसा की सेवा करता है यह कहकर मूसा से अनुरोध किया, ’’मूसा! गुरूवर! उन्हें रोक दीजिए’’। इसके जवाब में मूसा ने उत्तर दिया, ’’क्या तुम मेरे कारण ईष्र्या करते हो? अच्छा यही होता कि प्रभु सब को प्रेरणा प्रदान करता और प्रभु की सारी प्रजा भविष्यवाणी करती’’।

प्रभु का आत्मा किसी भी व्यक्ति समूह और समुदाय या जगह तक ही सीमित नहीं रहता। वह किसी भी व्यक्ति पर या किसी भी जगह या किसी भी अवसर पर विद्यमान हो सकता है। किसी को प्रभु के आत्मा को नियंत्रित करने का अधिकार नहीं है। क्या प्रभु ने यह नहीं कहा है, ’’पवन जिधर चाहता, उधर बहता है। आप उसकी आवाज़ सुनते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किधर से आता और किधर जाता है। जो आत्मा से जन्मा है, वह ऐसा ही है।’’ (योहन 3:8) किसी को भी इस पर ईष्र्या नहीं करना चाहिए क्योंकि ईश्वर ही अपने आत्मा को अपनी इच्छा के अनुसार लोगों को प्रदान करते हैं। हमें मूसा की तरह खुशी मनाना चाहिए कि ईश्वर अपने आत्मा को कई भक्तों पर प्रकट करते हैं। हमें एलदाद और मेदाद जैसे लोगों पर खुशी मनाना चाहिए। ईष्या करने वालो से प्रभु भी बच नहीं पाये उन्होंने पूछा था, ’’क्या यह बढ़ई का पुत्र नहीं है’’।

प्रभु हमें समझाते हैं कि ईश्वर का कार्य कलीसिया तक ही सीमित नहीं रहता है। प्रभु का आत्मा गैर-ख्रीस्तीयों को भी प्रभावित करता है तथा उन्हें वरदानों से भर सकते हैं। इसी कारण हमें इस प्रकार के वरदानों को देखकर उनके साथ सच्चाई तथा अच्छाई में खुशी मनाना चाहिए। कोई भी ख्रीस्त विश्वासी सच्चाई व अच्छाई को कहीं भी या कभी भी नकार नहीं सकता है।

आज का सुसमाचार तीन महत्वपूर्ण बातों पर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। पहला, ख्रीस्तीयों को यह नहीं सोचना चाहिए कि प्रभु के नाम और उनकी शक्ति सिर्फ उन्हीं के अधिकार क्षेत्र में है। योहन जो प्रभु के प्रिय शिष्य थे और कुछ अन्य लोगों ने प्रभु का नाम लेकर अपदूतों को निकालने वाले एक व्यक्ति को रोकने की चेष्ठा की। वे प्रभु के नाम की रक्षा करना चाहते थे और इसी कारण उनका यह विचार था कि अन्यों को प्रभु का नाम लेने का अधिकार नहीं है। परन्तु येसु ने कहा, ’’उसे मत रोको; क्योंकि कोई ऐसा नहीं, जो मेरा नाम लेकर चमत्कार दिखाये और बाद में मेरी निन्दा करे। जो हमारे विरूद्ध नहीं है, वह हमारे साथ ही है’’। (मारकुस 9:39-40) प्रभु का कोई भी सच्चा अनुयायी दूसरो को प्रभु से वंचित नहीं रख सकता है। हम बहुत से ऐसे गैर-ख्रीस्तीय भाई-बहनों को देखते हैं जो प्रभु का नाम लेकर कुछ कृपा की माँग करते हैं। हमें उन लोगों को निरूत्साहित नहीं करना चाहिए परन्तु उनके इस विश्वास से खुश होना चाहिए।

दूसरी बात यह है कि प्रभु येसु यह कहते हैं कि हमें दूसरों को बुरा उदाहरण नहीं देना चाहिए, उनके लिए पाप का कारण नहीं बनना चाहिए। हमें किसी भी व्यक्ति के लिए पाप या बुराई का कारण नहीं बनना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के लिए, विशेषकर बच्चों के लिए पाप या बुराई का कारण नहीं बनना चाहिए। आज के समाज में निर्लज तथा अविनीत वेषभूषा और अभद्र बातचीत तथा अश्लील व्यवहार दूसरों को प्रलोभन देते हैं। आज के संचार माध्यम हमारे युवक-युवतियों के मन और हृदय को दूषित करके उन्हें पाप के निकट ले जाते हैं। ख्रीस्त विश्वासियों को इस प्रकार की शक्तियों से बचकर रहना चाहिए। क्या हम भी कभी-कभी हमारे बुरे आचरण तथा अश्लील बातचीत दूसरों को बुरा उदाहरण नहीं देते हैं? कभी-कभी हमारे गप्पें लगाने तथा आलोचना करने की प्रवणता दूसरों को बुरा उदाहरण देती है। इस प्रकार हम दूसरों के पाप का कारण बनते हैं। प्रभु कहते हैं कि दूसरों को बुरा उदाहरण देने वालों के लिए, ’’अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता’’। (मारकुस 9:42)

तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु पाप से कोई भी समझौता नहीं करते हैं। वे यहाँ तक कहते हैं कि हमें पाप का कारण बनने वाले हमारे शरीर के अंगों को काट कर फेंकना चाहिए। उनका यह कहना है कि हमारे लिए अच्छा यही है कि लूले, लँगड़े या काने होकर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करे, किन्तु दोनों हाथों, पैरों या आँखों के रहते नरक में न डाले जाये। हमें यह मालूम है कि ’टीटनेस’ (Tetanuas) फैलने पर कभी किसी व्यक्ति के पैर या हाथ को काट कर अलग करना पड़ता है। ऐसा न करने पर उस व्यक्ति की जान को खतरा होता है। इसी प्रकार प्रभु की दृष्टि में पापों को हमारे जीवन से अलग करना आध्यात्मिक जीवन के लिए ज़रूरी है। हमारी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि ईश्वर के राज्य के योग्य बनना ही है। पाप हमें इस उपलब्धि से वंचित रखता है। इसी कारण रोमियों को लिखते हुए संत पौलुस कहते हैं, ’’पाप का वेतन मृत्यु है, किन्तु ईश्वर का वरदान है - हमारे प्रभु ईसा मसीह में अनन्त जीवन।’’ (रोमियों 6:23)। इसी कारण हमें पाप से दूर रहने की हर संभव कोशिश करना चाहिए।

हमें दृढ़ संकल्प लेना चाहिए कि हम दूसरों के लिए बुराई का कारण नहीं बल्कि अच्छाई का उदाहरण बनना चाहिए। संत पौलुस कहते हैं, ’’तुम वचन, कर्म, प्रेम, विश्वास और शुद्धता में विश्वासियों के आदर्ष बनो (1 तिमथी 4:12) संत पेत्रुस हमें याद दिलाते हैं, ’’आप भी उसके सदृश अपने समस्त आचरण में पवित्र बनें; क्योंकि लिखा है - पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ।’’


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