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चक्र स -17. वर्ष का पाँचवाँ इतवार

इसायाह 6:1-2अ, 3-8; 1 कुरिन्थियों 15:1-11 या 15:3-8,11; लूकस 5:1-11

(फादर लैन्सी फेर्नान्डिस)


क्या आपने ईश्वर को देखा है? इस प्रश्न का उत्तर अक्सर हमें संत योहन के शब्दों में मिलता है- ‘‘ईश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा’’ (1 योहन 4:12)। लेकिन नकारात्मक उत्तर से यह प्रश्न यही खत्म नहीं होता। प्रेरित योहन स्वयं ईश्वर को देखने का दावा करते हैं जैसे कि वह लिखते है ’’. . . हमने जो देखा और सुना हैं, वही हम तुम लोगों को भी बताते हैं, . . . हमने जो संदेश उनसे सुना और तुमको भी सुनाते हैं . . .’’ (1 योहन 1:-5)।

धर्मग्रंथ स्वयं भी, ईश्वर की महिमा को देखने की संभावना के बारे में साक्ष्य देता है। ‘‘जहाँ मैं हूँ वहाँ मुझे खोजो’’ (इसायाह 55:6)। हमें चाहे विश्वासी हो या अविश्वासी, इस तथ्य को स्वीकारना चाहिये कि हमने ईश्वर को खोजना बंद कर दिया है। यह बात उस जहाज की भांति है जो लंगर डाल कर बीच समुद्र में खड़ा है। हम सोचते हैं कि जहाज चल रहा है किन्तु वह स्थिर है। केवल लहरें आकर उसे हिलाती है। हमारे जीवन के दैनिक क्रियाकलाप जैसे प्रातःकाल अलार्म का बजना, टीचर का पढ़ाना, बाॅस का बुलावा, बच्चों एवं परिवार की माँग आदि दिनचर्या हमें इस बात का एहसास मात्र कराते हैं कि जिंदगी चल रही है। लेकिन वास्तविकता यह कि हम उस लंगर डाले जहाज की भांति जहाँ के तहाँ खड़े हैं। केवल जीवन के छोटे-बडे़ काम हमें हिलाते-ढुलाते रहते हैं।

इस तरह की स्थिरता आदम और हेवा के जीवन में भी आयी थी और ईश्वर को उन्हें बुलाना पड़ा था। ईश्वर ने आदम से पूछा ‘‘तुम कहाँ हो?’’ (उत्पत्ति 3:9)। उनके वार्तालाप का परिणाम शायद हमारी आँखें खोल सकता है क्योंकि उसका उत्तर था ‘‘मैं नंगा हूँ’’ (उत्पत्ति 3:10)।

आज हम छिप रहें है तथा ईश्वर से दूर भाग रहे है, न सिर्फ ईश्वर से बल्कि अपने आप से भी। लेकिन इस अंधियारे में भी ईश्वर हमारे पास आता है। अंधकार में हर कोठरी महल लगती है और हर महल कोठरी। लेकिन प्रकाश सारी वास्तविकता को सामने लायेगा तथा सही वस्तुस्थिति से अवगत करायेगा।

नबी इसायाह को ईश्वर की महिमा प्रकट हुयी थी। वह इस महिमा को देखकर चकित था लेकिन उसकी आँखें स्वयं को देखने के लिये खुली थी और वह कह उठता है ‘‘मैं अपवित्र होंठों का हूँ’’। हमारे सामने इब्राहिम का उदाहरण भी है जब वह तीन स्वर्गदूतों के साथ सोदोम और गोमोरा के नगरों की दुहाई दे रहा था। तब इब्राहिम कहता है, ‘‘मैं धुल और और राख हूँ’’ (उत्पत्ति 18:27)। जब मूसा ने ईश्वर की महिमा देखी तो वह भी मुँह के बल गिर पड़ता है और दया की याचना करता है (निर्गमन 34:8)। संत पौलुस स्वयं अपने बारे में बताते हुये लिखते हैं कि ‘‘ख्रीस्त मुझ जैसे पापी, अयोग्य एवं असमय जन्मे व्यक्ति को प्रकट हुये‘‘।

अगर इन महान संतगणों ने ईश्वर की महिमा के समक्ष अपने पाप स्वीकारे है तो हम इंकार कैसे कर सकते हैं? ईश्वर की महिमा देखना पश्चात्ताप एवं हृदय परिवर्तन में परिणित होता है। लेकिन यह कहानी यही खत्म नहीं होती है। ईश्वर चुनते हैं, पवित्र करते हैं तथा पात्रों का उपयोग करते हैं। इसायाह के होंठों को जलते हुये कोयले से छुआ गया था और उससे कहा गया था, ‘’आपका पाप दूर हो गया और आपका अधर्म मिट गया है’’ (इसायाह 6:7)। ततपष्चात् प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी, ’’मैं किसे भेजूँ?’’ तब वह उत्तर देता है ’’मैं प्रस्तुत हूँ मुझको भेज’’ (इसायाह 6:8)। आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि सिमोन पेत्रुस और उसके साथी रात भर मेहनत करने पर भी कुछ पकड़ नहीं पाते हैं। परन्तु जब प्रभु येसु के कहने पर वे गहरे पानी में जाल डालते हैं तो उनके जाल में बहुत अधिक मछलियाँ फँस जाती है और सब के सब विस्मित हो जाते हैं। संत पेत्रुस की दृष्टि मछलियों पर नहीं बल्कि प्रभु पर टिकी हुई थी। वह प्रभु की महानता को समझने लगते हैं, और साथ ही अपनी अयोग्यता को भी। पेत्रुस, जो भले ही यह कहते हुये चीख पड़े हो कि ’’मैं पापी मनुष्य हूँ’’, को कहा गया था, ’’तुम मनुष्यों के मछुआरे बनोगे।’’ पेत्रुस तैयार हो गये और येसु का अनुसरण करने लगे। अब बारी आपकी और मेरी है।

कभी-कभी प्रभु हमें दुख-तकलीफों तथा संकटों की गहराईओं में ले चलते हैं ताकि हम उनका अनुभव करें। लेकिन एक बात तो हमेशा सच निकलती है कि प्रभु के प्रकाश में हमारी बुराईयाँ साफ दिखने लगती हैं। आज का सुसमाचार यह भी संदेश देता है कि हम जो कुछ भी करें उनमें हमें प्रभु की इच्छा खोजना चाहिये, नहीं तो हमारा परिश्रम असफल रहेगा, हमारी रात भर की मेहनत का कोई फल नहीं निकलेगा। मिस्सा बलिदान में हम प्रभु येसु से मुलाकात करते हैं। जब ईश्वर संस्कारों में अपनी महिमा प्रकट करते है, तो क्या हम उनकी उपस्थिति में अपनी अयोग्यता का एहसास करते हैं? क्या हम पापों की क्षमा में विश्वास करते हैं? क्या मैं इस बात में विश्वास करता हूँ कि येसु ने मुझे पापों की क्षमा दिलायी है? क्या मैं विश्वास करता हूँ कि ईश्वर की कृपा मुझमें क्रियाशील है? क्या मैं विश्वास करता हूँ कि ईश्वर ने मुझे एक विशेष कार्य के लिये बुलाया है? अगर हाँ तो क्या मैं येसु का अनुसरण करने को तैयार हूँ?


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