Smiley face

चक्र स - 39. वर्ष का आठवाँ इतवार

प्रवक्ता 27:5-8; 1 कुरिन्थियों 15:54-58; लूकस 6:39-45

(फादर हैरिसन मार्कोस)


आज के पाठों का सारांश यह है कि वचन के द्वारा मनुष्य की परख होती है। सुसमाचार में प्रभु का यह कहना है कि वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। हमारे हृदय में जो है वह मुख से बाहर आता है (लूकस 6:45)। हमारा जो व्यक्तित्व है वह हमारे वचनों द्वारा प्रकट होता है। आज की धर्मविधि हम में से हरेक व्यक्ति को यह सवाल करने का आव्हान करती है कि क्या मैं अपने वचन एवं कार्य द्वारा एक सच्चा खीस्तीय होने का दावा प्रस्तुत करता हूँ? सुसमाचार में येसु अपने शिष्यों से कहते हैं कि उन्हें दूसरों की गलतियों की ओर इशारा करने से पहले अपने दोशों और कमियों पर ध्यान देना चाहिये।

एक कहानी है। एक डाकू शहर का एक बड़ा बैंक लूट रहा था। डाकू ने खजांची से कहा ‘कृपया’ सारा पैसा इस बैग में डाल दीजिये’। तत्पश्चात् उसने जोर से ‘धन्यवाद’ कहा और वहाँ से निकल गया। दूसरे दिन समाचार पत्रों में यह खबर ‘‘सज्जन डाकू’’ के शीर्षक से थी। इस सिलसिले में एक पुरोहित को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। इससे उनके पल्लिवासियों को करारा झटका लगा। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ संभव है। उन्होंने धरना दिया, जुलूस निकाल पुरोहित की रिहाई की माँग की। लेकिन चश्मदीद गवाहों ने भी उन्हें चोर कहा। दुनिया पुरोहित के विरुद्ध थी, सिर्फ उसके पल्लिवासी ही उसके साथ थे। अखबारों में यह बात छपी कि उसकी पिछली पल्ली की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी, पल्ली पर भारी ऋण था- ये सब बातें पुरोहित पर लगे आरोप को स्थापित करने के पक्ष में दी गयी। मगर कुछ नाटकीय घटना हुई जिसके कारण पूरे प्रकरण में एक नया मोड़ आ गया। असली चोर दूसरी चोरी करते रंगें हाथों पकड़ा गया। खास बात यह थी कि चोर का चेहरा पुरोहित के चेहरे से हूबहू मिलता था। चोर ने बड़ी चतुराई से ‘कृपया’ तथा ’धन्यवाद’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल लोगों को झांसा देने के लिए किया था।

इस कहानी में हम देखते हैं चोरी का इल्ज़ाम पुरोहित पर लगाया गया- दो कारणों से। पहला चोर ने मृद भाषा का प्रयोग किया जैसे कि पुरोहितगण अकसर करते हैं। दूसरी बात, चोर का चेहरा पुरोहित के चेहरे से मिलता-जुलता था।

आज के पहले पाठ में हम सुनते हैं कि हम अपने शब्दों द्वारा अपने व्यक्तित्व को प्रकट करते हैं। हम अपने आपसे सवाल कर सकते हैं ‘क्या मैं मृद भाषी हूँ? क्या मेरी भाषा में, प्रभु के वचन, ‘दूसरों से प्रेम करो, ‘अपने समान प्रेम करो’, जैसे मैंने किया है झलकते हैं। क्या मैं सही रूप से दूसरों से सच्चा प्रेम करता हूँ? क्या मैं दूसरों को अपने वचनों से आहत करता हूँ? क्या मैं परनिन्दा करता हूँ? क्या मैं दूसरों को दोषी ठहराता हूँ? क्या मैं दूसरों की पीठ पीछे उनकी बुराई करता हूँ? अगर हम अपने आप को इन बातों में दोषी पाते हैं, तो शायद हमारे हृदय का भंडार बुरी चीज़ों से भरा है।

हमारी कहानी का चोर पुरोहित के समान दिख रहा था, इसलिए वह पकड़ा गया। क्या खीस्तान होने के नाते, व बपतिस्मा में प्रभु येसु को ओढ़ लेने के कारण मैं खीस्त के जैसा, दूसरा खीस्त बन गया हूँ? अर्थात क्या मैं अपने कार्यो द्वारा यह प्रकट करता हूँ? क्या मैं दूसरा खीस्त हूँ? या फिर जैसा कि सिनेमा में प्रकट किया जाता है- ‘ईसाई याने कसाई’’, ईसाई याने पियक्कड़, जो जीवन को मौज मस्ती में गुजारते हैं। सवाल करके देखे- मेरे मुहल्ले में लोग मेरे विषय में क्या कहते हैं? क्या वे कहते हैं कि मैं भला व्यक्ति हूँ। क्या वे मुझ पर विश्वास करते हैं।

फल से पेड़ की पहचान होती है। कुछ बाहरी परिवर्तन से काम नहीं चलता। हमें अपनी बुराईयों को खत्म करना है। हमारे बुरे व्यक्तित्व को मिटाना है। तभी नये व्यक्ति का जन्म होगा- जो कि पूर्ण रूप से खीस्तीय होगा, दूसरा खीस्त होगा। ‘‘जब तक गेहूँ का दाना मिट्टी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक’’ नया फल उत्पन्न नहीं करता (योहन 12:24)। हमें फल उत्पन्न करना है। आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस कहते हैं- ‘‘प्यारे भाईयों आप दृढ़ तथा अटल बने रहें और यह जान कर कि प्रभु के लिए आपका परिश्रम व्यर्थ नहीं है आप निरन्तर उनका कार्य करते रहें’’ (1 कुरिन्थयों 15:58)। प्रभु येसु में हमने नया जीवन प्राप्त किया। अतः हमें लोगों की सेवा करनी चाहिए। प्रसिद्ध मानवतावादी अलबर्ट शैट्सर ने विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘मुझे नहीं मालूम कि आपका लक्ष्य क्या होगा, लेकिन एक चीज़ मुझे मालूम है कि आप में से वही व्यक्ति वास्तव में खुश होगा जो सेवा करने का तरीका ढूँढ़ता है और उसे पाता हैं’।

आज की इस जटिल दुनिया में कई लोग विश्वासपूर्वक शान्ति और खु्शी की खोज में लगे हैं। अधिकाधिक लोग इसे प्राप्त करने के लिए कोई भी जोखिम उठाने को तैयार हैं। लेकिन सच्ची खु्शी वही प्राप्त कर सकते हैं जो ईश्वर की इच्छा को पूरी करते हैं जैसे प्रभु येसु ने हमेशा किया और अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगाया। उसकी मानव सेवा एक विशेष प्रकार की सेवा थी, वह भी सम्पूर्ण, और निःस्वार्थ सेवा थी। अपने त्याग से दूसरों को पूर्ण बनाया और अपनी खुशी को भूल कर दूसरों को खुश और पाप मुक्त किया। ‘‘मानव पुत्र अपनी सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है (मत्ती 20:28)।

हमारे संत पिता बेनडिक्ट सोलहवें ने कोलोन शहर में विश्व युवा सम्मेलन को सम्बोधित करते हुये कहा, ‘जो खुशी आप खोज रहे हैं और जो खु्शी आप में है उसका एक नाम और स्वरूप है। वह है नाज़रेत के हमारे प्रभु येसु खीस्त, जो परमप्रसाद में उपस्थित हैं।’’ केवल वही प्रभु येसु मानव जीवन को पूर्णता देते हैं।

जी हाँ, हमें वही नाम और स्वरूप को मानव के समक्ष प्रदर्षित करना है और यह तभी संभव है जब हम प्रभु येसु को प्रतिदिन अपने वचन और सेवा कार्य में धारण करें क्योंकि वही हमारे जीवन की कसौटी है।


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!