Smiley face

चक्र स - वर्ष का आठवाँ इतवार

प्रवक्ता 27:5-8; 1 कुरिन्थियों 15:54-58; लूकस 6:39-45

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


मृदभाषी व्यक्ति को सब लोग पसंद करते हैं। अक्सर ऐसे लोगों को लोग अजात शत्रु (अर्थात जिसका कोई शत्रु न हो) भी कहते हैं। दुकानदार और व्यापारी अपने ग्राहकों से सदैव मधुर वाणी एवं व्यवहार कर उन्हें लुभाते हैं। अच्छा व्यवहार एवं मृदभाषी होना एक कला है। आज का पहला पाठ भी हमें अपनी बातों तथा व्यवहार के प्रति आगाह करते हुये चेताता है। “बातचीत में मनुष्य के दोष व्यक्त हो जाते हैं.... बातचीत में मनुष्य की परख होती है। ...मनुष्य के शब्दों से उसके स्वभाव का पता चलता है। किसी की प्रशंसा मत करो, जब तक वह नहीं बोले, क्योंकि यहीं मनुष्य की कसौटी है।” जीवन की वास्तविकता भी यही है कि हम अपनी मृद वाणी से जीवन को सफल एवं सरल या कठिन एवं जाटिल बना लेते हैं। प्रवक्ता ग्रंथ वाणी के सदुपयोग के बारे में शिक्षा देता है, ’’...दान देते समय कटु शब्द मत बोलो। क्या ओस शीतल नहीं करती? इसी प्रकार उपहार से भी अच्छा एक शब्द हो सकता है। एक मधुर शब्द महंगे उपहार से अच्छा है। स्नेही मनुष्य एक साथ दोनों को देता है। मूर्ख कटु शब्दों से डांटता है ...बोलने से पहले जानकार बनो। .....गप्पी के होंठ बकवाद करते हैं, किन्तु समझदार व्यक्ति के शब्द तराजू पर तौले हुए हैं।’’ (प्रवक्ता 18:15-19, 21:28)

संत याकूब भी वाणी के परिणामों को विस्तृत तथा तुलनात्मक शैली में बताते हुये कहते हैं, ’’यदि हम घोड़ों को वश में रखने के लिए उनके मुंह में लगाम लगाते हैं, तो उनके सारे शरीर को इधर-उधर घुमा सकते हैं। जहाज... कितना ही बड़ा क्यों न हो और तेज हवा से भले ही बहाया जा रहा हो, तब भी वह कर्णधार की इच्छा के अनुसार एक छोटी सी पतवार से चलाया जाता है। इसी प्रकार जीभ शरीर का एक छोटा-सा अंग है, किन्तु वह शक्तिशाली होने का दावा कर सकती है। ....जो हमारे अंगों के बीच हर प्रकार की बुराई का स्रोत है। वह हमारा समस्त शरीर दूषित करती और नरकाग्नि से प्रज्वलित हो कर हमारे पूरे जीवन में आग लगा देती है। ...किन्तु कोई मनुष्य अपनी जीभ को वश में नहीं कर सकता। वह एक ऐसी बुराई है, जो कभी शान्त नहीं रहती और प्राणघातक विष से भरी हुई है।’’ (देखिये याकूब 3:3-8) हम अपनी वाणी से किसी को प्रोत्साहित या हतोत्साहित कर सकते हैं। हम अपने बुरे शब्दों से झगडा शुरू कर सकते हैं, या अच्छे शब्दों से झगडा टाल भी सकते हैं। इसलिए प्रभु का वचन कहता है, “चिनगारी पर फूँक मारो और वह भड़केगी, उस पर थूक दो और वह बुझेगी: दोनों तुम्हारे मुँह से निकलते हैं” (प्रवक्ता 28:14)।

येसु की वाणी में सत्य का तेज था। उनकी शिक्षा अद्वितीय थी लोग उनकी वाणी को सुनकर दंग रह जाते थे, ’’...वे लोगों को उनके सभाग्रह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला? (मत्ती 13:54) उनके विरोधी स्वयं स्वीकार करते हुये कहते हैं, ’’गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं। आप को किसी की परवाह नहीं। आप मुँह-देखी बात नहीं करते।’’ (मत्ती 22:16)

प्रभु येसु अपने शब्दों को खरा-खरा तथा नापतोल के बोलते थे। उनके विरोधी उनकी परीक्षा लेने तथा उनमें दोष ढुंढनें के उद्देश्य से उनसे प्रश्न करते थे, ’’उस समय फरीसियों ने जा कर आपस में परामर्श किया कि हम किस प्रकार ईसा को उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसायें।’’ किन्तु कैसर को कर देने के बारे में येसु का उत्तर ’’....सुन कर वे अचम्भे में पड़ गये और ईसा को छोड़ कर चले गये।’’ (देखिये मत्ती 22:15-22) इसी प्रकार जब उन्होंने पुनरूत्थान, विवाह तथा ईश्वर की आज्ञा के बारे में पूछा तो ईसा की वाणी में उन्होंने कोई दोष नहीं पाया तथा वे निरूत्तर रह गये। ’’इसके उत्तर में कोई ईसा से एक शब्द भी नहीं बोल सका और उस दिन से किसी को उन से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।’’ (मत्ती 22:46)

अनेक स्थानों पर येसु अपने विरोधियों के प्रति भी कड़े शब्द उनके सामने तथा बिना किसी व्यक्तिगत द्वेष-घृणा से बोलते थे। उनके विरोधी इससे तिलमिला जाते थे किन्तु वे कोई दोष या त्रुटि उनकी वाणी में नहीं पाते थे। हमें येसु के समान सत्य को सीधे, सरल तथा स्पष्ट रूप से बोलना चाहिये इससे लोग तो विरूद्ध हो सकते हैं, किन्तु हमारे वचन दोषरहित होगें। येसु स्वयं इस बारे में कहते हैं, ’’तुम्हारी बात इतनी हो - हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। जो इससे अधिक है, वह बुराई से उत्पन्न होता है।’’ (मत्ती 5:37) साथ ही साथ येसु हमें चेतावनी देते हैं कि हमें अपने शब्दों को सोच समझ कर बोलना चाहिये तथा दूसरों के लिए तुच्छ तथा अपशब्दों का उपयोग नहीं करना चाहिये। ’’यदि वह अपने भाई से कहे, ’रे मूर्ख! तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ’रे नास्तिक! तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा।’’ (मत्ती 5:22) यदि अपनी वाणी पर हम व्यवहार में गलत बातों का प्रयोग करेंगे तो ईश्वर हम से इन सारी बातों का लेखा-जोखा लेगा। ’’मैं तुम लोगों से कहता हूँ- न्याय के दिन मनुष्यों को अपनी निकम्मी बात का लेखा देना पड़ेगा, क्योंकि तुम अपनी ही बातों से निर्दोष या दोषी ठहराये जाओगे।’’(मत्ती 12:36) आइये हम भी अपनी वाणी पर ध्यान दे जिससे जीवन में मधुरता बनी रहें।


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