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चक्र स - 45. वर्ष का चैदहवाँ इतवार

इसायाह 66:10-14स; गलातियों 6:14-18; लूकस 10:1-12,17-20 या 10:1-9

फा. जॉनी पुल्लोप्पिल्लिल)


इस्राएली लोग अपने पापों एवं दुष्कृत्यों के कारण ईश्वर से दूर हो गये थे। वे अपने ही कुकर्मों के प्रभाव के कारण बिक गए थे। इसके उपरान्त वे मूर्ति-पूजक बने, पराये देवताओं के पूजक बने। ईश्वर को उनके जीवन में कोई स्थान नहीं मिला। इस कारण ईश्वर ने उन्हें तितिर-बितिर कर दिया तथा। गुलाम बनने दिया। इस्राएली जनता के लिए ईश्वर के पास पुनः लौटने तथा उनकी अनुकम्पा का अनुभव करने का अर्थ दासता से मुक्ति पाना तथा येरूसलेम में वापस लाया जाना था। उनके लिए अपने कुकर्मों और कुमार्गों को त्याग कर ईश्वर के पास वापस लौटना अनिवार्य था। इसी उद्देश्य से नबी इसायाह ने येरूसलेम को संदेश दिया, ’’पुरानी बातें भुला दी जाऐंगी और उन्हें कोई याद नहीं करेगा।... मैं येरूसलेम को आनन्दित और उसकी प्रजा को उल्लसित करूँगा’’ (इसायाह 65:17-18)।

येरूसलेम के निवासियों ने पश्चाताप किया और ईश्वर ने उन्हें पाप मुक्त कर एकत्र किया। इस कारण उन्होंने ईश्वर की क्षमाशीलता तथा स्नेहमय आशिष का अनुभव किया, तथा वे एक नई जनता में जो ईश्वरेच्छा के अनुरूप थी, परिणित हो गए। इस नए अनुभव को अन्य लोगों के साथ बाँटने के लिए प्रभु ने इसायाह के माध्यम से यह भी कहा कि ‘‘मैं सभी भाषाओं के राष्ट्रों को एकत्र करूंँगा... मैं उनमें चिह्न प्रकट करूँगा। जो बच गये होंगे, उनमें से कुछ लोगों को मैं राष्ट्रों के बीच भेजूँगा, ... जिन्होंने आज तक न तो मेरे विषय में सुना है और न मेरी महिमा देखी है’’ (इसायाह 66:18-19)।

नबी इसायाह का यह कथन आज के सुसमाचार में ईश्वर पुत्र प्रभु येसु ख्रीस्त के कथन द्वारा पूर्ण होता है। प्रभु येसु ने अपने बेहत्तर शिष्यों को नियुक्त किया और उनसे कहा ‘‘जाओ मैं तुम्हें भेड़ियों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ’’। उन्हें रोगियों को चंगा करने की शक्ति देकर कहा कि ’’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’’ (लूकस 10:9)। प्रभु ने यह कथन सीमित लोगों या सीमित राष्ट्रों के लिए नहीं कहा था। बल्कि इतना ही कहा कि ‘‘जो घर शांति के योग्य होगा, वहीं पर शांति ठहरेगी, नहीं तो तुम्हारी शांति तुम्हारे पास लौट आएगी’’। ईश्वर को मानना, उसे महसूस करना, उसे अपनाना तथा चारित्रिक रूप से उसे क्रियांवित करने में ही शांति है। अर्थात् जो भी इस शांतिदाता प्रभु येसु को मानने और अपनाने को तैयार थे उनके लिए प्रभु की ओर से कोई सीमा बंधन नहीं था चाहे वह इस्राएली हो या यूनानी, यहूदी हो या ग़ैर यहूदी, अमीर हो या ग़रीब, उच्च हो या दलित। परन्तु जो उन्हें अस्वीकार करते हैं उनकी दशा सोदोम की दशा से अधिक दयनीय बतायी गयी है।

सन्त पौलुस गलातियों को लिखते हुए फिर इस तथ्य पर ज़ोर देते हैं कि प्रभु के मुक्ति-कार्य सभी के लिए है। कहते हैं कि किसी का खतना हुआ हो या नहीं, इसका कोई महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है, कि हम पूर्ण रूप से एक नई सृष्टि बन जायंे। ’’मैं केवल हमारे प्रभु ईसा मसीह के क्रूस पर गर्व करता हूं’’ (गलातियों 6:14)।

जिस शांति, उल्लास और प्रेम की कल्पना नबी इसायाह ने येरूशलम् की जनता के लिए की थी या सन्त पौलुस ने प्रभु भक्तों के लिये दी थी या प्रभु येसु ने प्रभु वचन सुनने वालों के लिये दी थी वह हम भी पायें। आधुनिक लोक में शांति की कमी है क्योंकि लोग इस्राएली जनता के समान अधर्म को अपनाकर दुष्कृत्यों के द्वारा अनीति के मार्ग को अपनाकर ईशवचन को भूल गये हैं। लेकिन मनुष्य की अन्तरात्मा उसी शांति के लिये, शांतिदाता ईश्वर के लिये तड़प रही है और यदि हमें उसे पाना है तो हमें ईश्वर को अपनाना होगा। इसलिये संत पौलुस कहते हैं, कि हम ईश्वर पुत्र प्रभु येसु को ईश्वर के रूप में स्वीकारें, हृदयस्थ करें अर्थात् प्रत्येक श्वास निःश्वास में, प्रत्येक स्पन्दन में, प्राणी में, परिवार में, समाज में, राष्ट्र तथा सम्पूर्ण विश्व में उसे देखें अनुभव करें एवं क्रियान्वयन द्वारा उसे प्राप्त करें।

हम को आज के पाठों से यह शिक्षाऐं मिलती हैं। पहली, ईश्वर की दया ही हमारी मुक्ति का आधार है, जिसे प्राप्त करने के लिये हमारा एकाग्रचित्त होना अतिआवश्यक है। दूसरी, ईश्वर की कृपा जाति, धर्म या सम्प्रदाय आदि के भेदभाव बिना सभी पर एक ही मात्रा में बरसती है। तीसरी, ईश्वर को अपनाना मानवीय शांति का स्रोत है। आपको वही शान्ति मिले।


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