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चक्र स - वर्ष का पन्द्रहवाँ इतवार

विधि-विवरण 30:10-14; कलोसियों 1:15-20; लूकस 10:25-37

फादर लैंसी फर्नान्डिस


आज के सुसमाचार में हमने भले समारी का दृष्टान्त सुना। पड़ोसी प्रेम के बारे में हमें समझाने के लिए प्रभु येसु ने हमें यह दृष्टान्त सुनाया था। फिर भी संत अगस्टीन के अनुसार यह दृष्टान्त न केवल पड़ोसी प्रेम के बारे में बल्कि ईश्वर और मनुष्य के संबन्ध के बारे में भी बहुत सारी बातें हमें समझाता है। उनके अनुसार इस दृष्टान्त के सभी पात्रों एवं जगहों को ‘प्रतीकों’ के रूप में दर्शाया गया है।

इस दृष्टान्त के पहले भाग में हम पढ़ते हैं कि ”एक मनुष्य येरूसालेम से येरीख़ो जा रहा था और वह डाकुओं के हाथों पड़ गया। उन्होंने उसे लूट लिया, घायल किया और अधमरा छोड़कर चले गये“ (लूकस 10ः30)। प्रभु येसु दृष्टान्त के आरंभ में कहते हैं कि ”एक मनुष्य येरूसालेम से येरीख़ो जा रहा था“। संत अगस्टीन के अनुसार इस दृष्टान्त में येरूसालेम एवं येरीख़ो दो विभिन्न बातों के प्रतीक हैं। येरूसालेम ईश्वर की उपस्थिति का तथा येरीख़ो ईश्वर की अनुपस्थिति का प्रतीक है। यहूदी जनता के लिए येरूसालेम सबसे पवित्र जगह थी क्योंकि वहाँ ईश्वर का मन्दिर था। इसलिए दृष्टान्त में येरूसालेम ईश्वर की उपस्थिति का प्रतीक है। इसके विपरीत उनके लिए येरीख़ो अपवित्र जगह थी इसलिए दृष्टान्त में येरीख़ो ईश्वर की अनुपस्थिती का प्रतीक है। जब प्रभु कहते हैं कि एक मनुष्य येरूसलेम से येरीख़ो जा रहा था इसका यह मतलब निकलता है कि एक मनुष्य पवित्र नगर छोड़कर अपवित्र नगर की ओर या ईश्वर को छोड़कर शैतान की ओर या पवित्र जीवन छोड़कर अपवित्र जीवन की ओर जा रहा था। दृष्टान्त में आगे हम पढ़ते हैं कि येरीख़ो पहुँचने से पहले ही कुछ लोग उस मनुष्य को लूटते, घायल करते और अधमरा छोड़कर चले जाते हैं।

यहाँ हम देख सकते हैं कि जब तक वह मनुष्य येरूसालेम में था अर्थात ईश्वर के निवास स्थान में था तो किसी ने उसपर हाथ भी नहीं लगाया, किसी ने उसे नहीं लूटा। लेकिन जैसे ही वह येरूसालेम छोड़कर, ईश्वर का निवास स्थान छोड़कर येरीख़ो जो बुराई का प्रतीक था की ओर जा रहा था, डाकु उसे लूटते, घायल करते और अधमरा छोड़कर चले जाते हैं।

भले समारी के दृष्टान्त में हमने देखा कि जब तक वह यात्री येरूसालेम में था अर्थात ईश्वर की संगती में, ईश्वर की आज्ञाओं को पालन करते हुए अपना जीवन बिता रहा था उसेे चिन्ता की कोई ज़रूरत नहीं थी। लेकिन जैसे ही वह ईश्वर को छोड़ता है, ईश्वर की आज्ञाओं को भंग करते हुए ईश्वर से दूर चला जाता है उसका जीवन दुख-दर्द से भर जाता है या दृष्टान्त के अनुसार वह मनुष्य अधमरा बन जाता है।

जब तक हम ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए ईश्वर के साथ रहते हैं तब तक हम सुखी एवं शान्तिमय रहते हैं लेकिन जैसे ही हम ईश्वर को भूलकर ईश्वर के वचनों के विपरीत अपना जीवन बिताते हैं हम भी उस यात्र्री के समान जीवन यात्रा में अधमरा बन जाते हैं। प्रभु येसु ने हमें बुलाया है कि हम पूर्ण जीवन प्राप्त करें। पूर्ण जीवन प्राप्त करने के लिए हमें प्रभु के वचनों का पालन करते हुए प्रभु के साथ रहना है। संत योहन के सुसमाचार अध्याय पन्द्रह में प्रभु येसु कहते हैं ”मैं दाखलता हँू तुम डालियाँ हो। जो मुझमें रहता है और मैं जिस में रहता हूँ, वही बहुत फलता है; क्योंकि मुझ से अलग रह कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि कोई मुझ में नहीं रहता, तो वह सूखी डाली की तरह फेंक दिया जाता है“ (योहन 15ः5-6)। जब तक हम प्रभु येसु में रहते हैं हमारा जीवन फलदायक बन जाता है लेकिन जैसे ही हम उस यात्री के समान या उड़ाऊ पुत्र के समान प्रभु से अलग हो जाते हैं हम भी उन डालियों के समान जो दाखलता से अलग हो जाती है, सूख जाते हैं। प्रभु येसु हम सबों से यही चाहते हैं कि हम अपनेे जीवन के हर पल प्रभु के वचनों का पालन करते हुए प्रभु के साथ रहें ताकि हम प्रभु येसु में पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकें। संत पौलुस भी प्रभु की इसी इच्छा को जानकर खीस्तीयों से मसीह में पूर्णता का जीवन बिताने का आह्वान करते हुए कहते हैं, ‘‘ईश्वर ने चाहा कि उन में सब प्रकार की परिपूर्णता हो।’’ आज का पहला पाठ भी भटके हुए लोगों से अपील करता है कि वे ईश्वर की बात मानकर संहिता में लिखी आज्ञाओं एवं नियमों का पालन करते हुए सारे हृदय तथा सारी आत्मा से प्रभु-ईश्वर के पास लौट आये।

कभी-कभी हम भी उस यात्री के समान या उड़ाऊ पुत्र के समान जीवन यात्रा में ईश्वर को भूलकर, उनकी संहिता, उनके वचनों से दूर चले जाते हैं या कभी उनकी इच्छा के विपरीत जीवन बिताते हैं। आईये हम अपने जीवन पर दृष्टि डालें और अपने आप से पूछें कि क्या मेरी परेशानियों, दुख-संकटों आदि के बीच में मेरा जीवन ईश्वर से दूर तो नहीं हुआ? साथ-ही-साथ हम संकल्प करें कि हम अपने जीवन का हर पल ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए ईश्वर की संगती में बितायेंगे ताकि हम पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकें।

इस्राएली लोग अपने पापों एवं दुष्कृत्यों के कारण ईश्वर से दूर हो गये थे। वे अपने ही कुकर्मों के प्रभाव के कारण बिक गए थे। इसके उपरान्त वे मूर्ति-पूजक बने, पराये देवताओं के पूजक बने। ईश्वर को उनके जीवन में कोई स्थान नहीं मिला। इस कारण ईश्वर ने उन्हें तितिर-बितिर कर दिया तथा। गुलाम बनने दिया। इस्राएली जनता के लिए ईश्वर के पास पुनः लौटने तथा उनकी अनुकम्पा का अनुभव करने का अर्थ दासता से मुक्ति पाना तथा येरूसलेम में वापस लाया जाना था। उनके लिए अपने कुकर्मों और कुमार्गों को त्याग कर ईश्वर के पास वापस लौटना अनिवार्य था। इसी उद्देश्य से नबी इसायाह ने येरूसलेम को संदेश दिया, ’’पुरानी बातें भुला दी जाऐंगी और उन्हें कोई याद नहीं करेगा।... मैं येरूसलेम को आनन्दित और उसकी प्रजा को उल्लसित करूँगा’’ (इसायाह 65:17-18)।

येरूसलेम के निवासियों ने पश्चाताप किया और ईश्वर ने उन्हें पाप मुक्त कर एकत्र किया। इस कारण उन्होंने ईश्वर की क्षमाशीलता तथा स्नेहमय आशिष का अनुभव किया, तथा वे एक नई जनता में जो ईश्वरेच्छा के अनुरूप थी, परिणित हो गए। इस नए अनुभव को अन्य लोगों के साथ बाँटने के लिए प्रभु ने इसायाह के माध्यम से यह भी कहा कि ‘‘मैं सभी भाषाओं के राष्ट्रों को एकत्र करूंँगा... मैं उनमें चिह्न प्रकट करूँगा। जो बच गये होंगे, उनमें से कुछ लोगों को मैं राष्ट्रों के बीच भेजूँगा, ... जिन्होंने आज तक न तो मेरे विषय में सुना है और न मेरी महिमा देखी है’’ (इसायाह 66:18-19)।

नबी इसायाह का यह कथन आज के सुसमाचार में ईश्वर पुत्र प्रभु येसु ख्रीस्त के कथन द्वारा पूर्ण होता है। प्रभु येसु ने अपने बेहत्तर शिष्यों को नियुक्त किया और उनसे कहा ‘‘जाओ मैं तुम्हें भेड़ियों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ’’। उन्हें रोगियों को चंगा करने की शक्ति देकर कहा कि ’’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’’ (लूकस 10:9)। प्रभु ने यह कथन सीमित लोगों या सीमित राष्ट्रों के लिए नहीं कहा था। बल्कि इतना ही कहा कि ‘‘जो घर शांति के योग्य होगा, वहीं पर शांति ठहरेगी, नहीं तो तुम्हारी शांति तुम्हारे पास लौट आएगी’’। ईश्वर को मानना, उसे महसूस करना, उसे अपनाना तथा चारित्रिक रूप से उसे क्रियांवित करने में ही शांति है। अर्थात् जो भी इस शांतिदाता प्रभु येसु को मानने और अपनाने को तैयार थे उनके लिए प्रभु की ओर से कोई सीमा बंधन नहीं था चाहे वह इस्राएली हो या यूनानी, यहूदी हो या ग़ैर यहूदी, अमीर हो या ग़रीब, उच्च हो या दलित। परन्तु जो उन्हें अस्वीकार करते हैं उनकी दशा सोदोम की दशा से अधिक दयनीय बतायी गयी है।

सन्त पौलुस गलातियों को लिखते हुए फिर इस तथ्य पर ज़ोर देते हैं कि प्रभु के मुक्ति-कार्य सभी के लिए है। कहते हैं कि किसी का खतना हुआ हो या नहीं, इसका कोई महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है, कि हम पूर्ण रूप से एक नई सृष्टि बन जायंे। ’’मैं केवल हमारे प्रभु ईसा मसीह के क्रूस पर गर्व करता हूं’’ (गलातियों 6:14)।

जिस शांति, उल्लास और प्रेम की कल्पना नबी इसायाह ने येरूशलम् की जनता के लिए की थी या सन्त पौलुस ने प्रभु भक्तों के लिये दी थी या प्रभु येसु ने प्रभु वचन सुनने वालों के लिये दी थी वह हम भी पायें। आधुनिक लोक में शांति की कमी है क्योंकि लोग इस्राएली जनता के समान अधर्म को अपनाकर दुष्कृत्यों के द्वारा अनीति के मार्ग को अपनाकर ईशवचन को भूल गये हैं। लेकिन मनुष्य की अन्तरात्मा उसी शांति के लिये, शांतिदाता ईश्वर के लिये तड़प रही है और यदि हमें उसे पाना है तो हमें ईश्वर को अपनाना होगा। इसलिये संत पौलुस कहते हैं, कि हम ईश्वर पुत्र प्रभु येसु को ईश्वर के रूप में स्वीकारें, हृदयस्थ करें अर्थात् प्रत्येक श्वास निःश्वास में, प्रत्येक स्पन्दन में, प्राणी में, परिवार में, समाज में, राष्ट्र तथा सम्पूर्ण विश्व में उसे देखें अनुभव करें एवं क्रियान्वयन द्वारा उसे प्राप्त करें।

हम को आज के पाठों से यह शिक्षाऐं मिलती हैं। पहली, ईश्वर की दया ही हमारी मुक्ति का आधार है, जिसे प्राप्त करने के लिये हमारा एकाग्रचित्त होना अतिआवश्यक है। दूसरी, ईश्वर की कृपा जाति, धर्म या सम्प्रदाय आदि के भेदभाव बिना सभी पर एक ही मात्रा में बरसती है। तीसरी, ईश्वर को अपनाना मानवीय शांति का स्रोत है। आपको वही शान्ति मिले।


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Praise the Lord!