Smiley face

चक्र स - 47. वर्ष का सोलहवाँ इतवार

उत्पत्ति 18:1-10; कलोसियों 1:24-28; लूकस 10:38-42

(फादर मरिया फ्रांसिस)


पहले पाठ में ईश्वर तीन पुरुषों के रूप में दर्शन देकर इब्राहीम और सारा के परिवार से मुलाकात करते हैं। उसी प्रकार आज के सुसमाचार में वही ईश्वर येसु ख्रीस्त में मानव बनकर एक दूसरे परिवार से मुलाकात करते हैं।

येसु एक मेहमान बनकर मारथा और मरियम के घर गये थे। येसु उनके पारिवारिक मित्र थे। वे दोनों अपने-अपने स्वाभाव के अनुसार येसु की सेवा करने लगी। इन दोनों के तरीके अलग-अलग थे। मारथा येसु के लिए भोजन तैयार करती है जबकि मरियम येसु के वचनों को सुनती है।

जब भी हमारे घर में कोई अतिथि पधारते हैं तो हमारी यही चिन्ता बनी रहती है कि हम अपने मेहमानों को कैसे खुश करें। हम अच्छे से अच्छे खाने-पीने की चीजों की व्यवस्था करने में जुट जाते हैं जबकि उनकी मानसिक व आध्यात्मिक आवश्यकताएँ हमारी याद से दूर रह जाती हैं। यही भूल मारथा के साथ भी होती हैं।

येसु ने मारथा की अनावश्यक व्यस्तता देखकर एक महत्वपूर्ण बात पर जोर देते हुए मारथा से कहा, ”मारथा! मारथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो, फिर भी एक ही बात आवश्यक है“।

येसु के ऐसे कहने का मतलब यही था कि मारथा को उनके बारे में अधिक चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है, साधारण भोजन ही काफी है। निःसंदेह, यह ईश्वर की इच्छा है कि हम अपने कर्Ÿाव्यों को पूरी लगन व गंभीरता से निभाये। लेकिन ध्यान रखें कि जिन्दगी का असली मकसद ईश्वर के राज्य में प्रवेश पाने का है।

दोनों, मारथा और मरियम येसु को खूब प्यार करती थी। लेकिन मरियम मारथा से बेहतर समझती थी कि सही आदर-सत्कार क्या होता हैं। सही आदर-सत्कार देने या करने में नहीं है बल्कि स्वीकारने में है। जब ईश्वर ही अतिथि बनकर आता है तो अतिथि-सत्कार ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण का रूप ले लेता है। यह अपने कार्यो के ज़रिये अपने प्यार की मात्रा दिखाने की कोशिश में नहीं बल्कि अपने आप को ईश्वर के प्रेम के लिए सौंपने में है।

हमारी माता मरियम सही आदर-सत्कार का सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्होंने ईश्वर को उपहार स्वरुप उनके पुत्र के लिए अपने जीवन, हृदय तथा स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर दिया। हम सब व्यवसाय एवं प्रतियोगिता के युग में जी रहे हैं और हम में से अधिकत्तर लोगों के लिये पेशा महत्वपूर्ण है।

कोई दो महिलाएँ तीर्थयात्रा के लिए लूर्द गयी थीं उनका मुख्य उद्देश्य अपनी-अपनी समस्याओं, कठिनाइयों एवं दुःखों को प्रभु के चरणों में समर्पित करना था। लेकिन वास्तव में हुआ क्या? वहाँ पहुँचने पर, पहली महिला मनमोहक दृश्य देखने लगी और यादगार के लिए चमकदार व लुभावनी वस्तुएँ खरीदने लगीं। इन सब में उसने बहुत समय एवं शक्ति खर्च कर डाली। वह होटल आयी सभी चीज़ों को सावधानी से रखकर फिर कार्डस के पूरे पैकेट खरीदने के लिए चली गयी। इन सबको लिखने और पोस्ट करने में कई घंटे लग गये। ये सब काम हो जाने के बाद उसने आराम की श्वास ली। फिर प्रार्थना करने के लिए गयी। अब तक वह इतनी थक गयी थी कि सोने के अलावा और उससे कुछ किया नहीं सक रहा था।

लेकिन उसकी सहेली, जैसे ही वह वहाँ पहुँची थोड़ी देर आराम से झपकी ले ली। फिर हाथ-मँुह धोकर तीर्थ-स्थल की ओर बढ़ी। रास्ते में उसने कई सुन्दर-सुन्दर चीजों वाली दुकानें देखीं पर ये सब उसे रोक न सकी। ग्रोटो के सामने अपने बीते जीवन को याद करते हुए अपनी बिखरी हुई जिन्दगी के टुकडों को जुटाकर ईश्वर के समक्ष सौंप दिया। शारीरिक एवं आध्यात्मिक ताज़गी महसूस करते हुए वह होटल वापस लौटी। दोनों में से कौन अधिक बुद्धिमान थी? आप और मैं कौन-सा मनोभाव अपनाना चाहेंगे। हमारा जवाब यह तय करेगा कि हम ईश्वर के राज्य की खोज करना चाहते हैं या सांसारिक बातों में डूबे रहते हैं। येसु हमें सिखाते हैं कि हमें अच्छा चयन करना चाहिए। येसु हमसे जब भी मिलने आते हैं, तो हमारे हृदय के फाटक पर खडे़ होकर प्रकाशना ग्रन्थ 3:20 दुहराते हैं, ’’मैं द्वार के सामने खड़ा होकर खटखटाता हूँ। यदि कोई मेरी वाणी सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके यहाँ आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ’’। आईये हम अपने हृदय के द्वार उनके लिए खोल दें और उन्हें सहर्ष स्वीकार करें।


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