Smiley face

चक्र स -51. वर्ष का बीसवाँ इतवार

यिरमियाह 38:4-6, 8-10; इब्रानियों 12:1-4; लूकस 12:49-53

(फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन)


नबी यिरमियाह को उनके जीवन काल में बहुत सताया गया था। उन्हें तरह-तरह से डराया-धमकाया जाता था। उसे मारने तक की कोशिश की गयी थी। ऐसा इसलिये हुआ कि नबी यिरमियाह ने ईश्वर की वाणी को लोगों के सामने बेझिझक, निडर होकर घोषित किया था। ईश्वर की वाणी लोगों की योजनाओं से मेल नहीं खाती थी। परिणामस्वरूप वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। वे चाहते थे कि नबी यिरमियाह उनकी योजनाओं को समर्थन देने वाली भविष्यवाणी करें। जब लोगों को नबी से यथोचित् समर्थन नहीं मिला तो उन्होंने उन्हें खत्म कर देना ही उचित समझा।

जो व्यवहार नबी यिरमियाह के साथ किया गया वह हमारे लिये नया नहीं है। हमारे जीवन में हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जब लोगों ने सच बोलने वालों को प्रताड़ित किया तथा कुछ को तो मार भी डाला। लोग इसलिये सत्य का विरोध करते हैं कि सत्य को सुनने तथा चुनने से उन्हें जीवन में असुविधाएं होती हैं। उन कामों एवं योजनाओं को त्यागना होगा जो गलत हैं तथा जिन्हें वे अब तक करते आ रहे हो। ऐसा करना कभी-कभी बहुत कठिन होता है। प्रभु की शिक्षा भी ऐसा सत्य है जिसको अपनाने से जीवन में पाप एवं उसके मार्ग को छोड़ना अनिवार्य हो जाता है जिससे असुविधाओं का सामना करना पड़ता तथा अपने आप से लड़ना पडे़गा। आज के दूसरे पाठ में भी लेखक ख्रीस्तीयों को सम्बोधित करते हुये कहते हैं कि ख्रीस्तीय होने के नाते वे पाप का प्रतिरोध करें और निरुत्साहित होकर हिम्मत न हारें। क्योंकि पाप के विरुद्ध संघर्ष में किसी ने भी इतना नहीं सहा कि उसे येसु की तरह क्रूस पर अपना रक्त बहाना पड़ा हो। इसलिये हमें हर बाधा लांघकर ईसा की ओर दृष्टि लगाकर, जो विश्वास के प्रवर्तक और पूर्णता है, धैर्य के साथ उस दौड़ में आगे बढ़ते जाना है, जिसे हमने शुरू किया है।

दौड़ने का मतलब अपने ख्रीस्तीय विश्वास में दृढ़ एवं प्रतिबद्ध बने रहकर जीवन में आगे बढ़ते जाना है। विश्वास में प्रतिबद्ध होने का अर्थ है उन सभी आज्ञायों एवं शिक्षाओं का पालन करना जिसे येसु ने हमें दी है तथा जिसका अनुकरण कलीसिया करती है। ऐसा करते समय मुश्किलें अवश्य आयेंगी किन्तु जो अनुभव एवं आनन्द हमें मिलेगा वह अमूल्य है।

आज के सुसमाचार में हम सुनते हैं कि येसु कहते है, ’’मैं पृथ्वी पर आग लेकर आया हूँ और मेरी कितनी अभिलाषा है कि यह अभी धधक उठे’’! यह आग पवित्र आत्मा एवं उसके वरदानों की अग्नि है। लेकिन इसको लेकर परस्पर विरोध उत्पन्न होता है। तीन दो के विरुद्ध और दो तीन के विरुद्ध। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिये होता है कि कुछ लोग पवित्र आत्मा का प्रतिरोध करते हैं तथा सांसारिक सुख, प्रसिद्धि, धन-सम्पदा आदि को ईश्वर से बढ़कर प्राथमिकता देते एवं चुनते हैं। वे अंधकार की घाटी में चलना पसंद करते हैं। कुछ लोग प्रकाश की राह में चलते हैं तथा आत्मा के वरदानों में जीवन पाते है

पाप के विरुद्ध ख्रीस्तीय प्रतिरोध लगातार चलने वाला आंतरिक संग्राम है। इसी अंतरतम की लड़ाई के विषय में संत पौलुस कहते हैं, ’’मैं अपना ही आचरण नहीं समझता हूँ, क्योंकि मैं जो करना चाहता हूँ, वह नहीं, बल्कि वही करता हूँ, जिससे मैं घृणा करता हूँ’’ (रोमियों 7:15)। इस आंतरिक संघर्ष से अभिप्राय उन सारे दृढ़ संकल्पों से है जिन्हें हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिये लेते हैं। उनको पूरा करने के लिये हमें बहुत त्याग करना पड़ता है। हमें अपने जीवन के प्रत्येक क्षण एवं हर स्थिति में पाप का प्रतिरोध करना पड़ता है। लेकिन इस निरंतर प्रतिरोध एवं संघर्ष से हमें निरूत्साहित नहीं होना चाहिये बल्कि और अधिक मज़बूत होकर उभरना चाहिये। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमसे पहले प्रभु येसु ने भी इन्हीं प्रलोभनों तथा संघर्ष का सामना करके उन पर विजयी पायी है। इस संसार में संघर्ष एक सर्वभौमिक सत्य है। कोई इससे नहीं बच पाता है। जो लोग येसु के नाम पर जीवन में कष्ट उठाते हैं एवं पाप के मार्ग का प्रतिरोध करते है वे अंत में शांति प्राप्त करते हैं। अन्य जो क्षणभंगुर सांसारिक एवं भौतिक सुख को ही अंत मान लेते हैं वे सारा जीवन अशांति कष्ट एवं क्लेश में बिताते हैं, भले ही बाहर से वे कितने ही संतुष्ट एवं सुखी नज़र आते हो। इसलिये हमें यह नहीं समझना चाहिये कि जो येसु के नाम पर पाप को नकार कर उसका प्रतिरोध करते हैं वे ही तकलीफ उठाते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग ईश्वर के नाम पर सघ्ंार्ष करते है जबकि अन्य स्वयं की स्वार्थी बातों की लिये कष्ट उठाते हैं। यह चयन हमें करना है कि हमें किस के नाम में कष्ट उठाना है।


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!