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चक्र स - 55. वर्ष का चौबीसवाँ इतवार

निर्गमन 32:7-11, 13-14; 1 तिमथी 1:12-17; लूकस 15:1-32 या 15:1-10

(फादर वर्गीस पल्लिपरम्पिल)


आज के तीनों पाठों में दुर्बल मनुष्य के पाप और दयालु ईश्वर की क्षमा का उल्लेख है। यह हम सबों का अनुभव है कि जब तक मनुष्य ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए ईश्वर की संगती में रहता है, तथा ईश्वर को ही अपना सर्वस्व मानते हुए ईश्वरीय इच्छानुसार अपना जीवन बिताता है तो उसे किसी चिन्ता की ज़रूरत नहीं रहती और न ही कोई कठिनाई उसका कुछ बिगाड़ सकती। कठिनाइयों के बीच में भी वह शन्तिमय रह सकता है। लेकिन जैसे ही मनुष्य ईश्वर को भूलकर उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करते हुए ईश्वर से दूर चला जाता है तो उसका जीवन अशान्ति एवं दुख-दर्द से भर जाता है।

इस्राएलियों का रूदन सुनकर ईश्वर ने उनको मिस्र देश की गुलामी से छुड़ाया और उनको प्रतिज्ञात देश की ओर ले चलने के लिये नेताओं को नियुक्त किया। समय-समय पर उनकी ज़रूरतों को भली-भांति समझकर ईश्वर उनके साथ रहे। उनको हर प्रकार की सहायता प्रदान करते रहे। इन सब के बावजूद भी इस्राएली लोग ईश्वर को भूल जाते हैं और सोने के बछड़े का निमार्ण करके उसे अपना देवता मानकर उसकी पूजा करने लगते हैं। इस पर ईश्वर का क्रोध भड़क उठता है। फिर भी मूसा की अनुनय-विनय सुनकर ईश्वर उन्हें क्षमा प्रदान करते हैं।

नये विधान में ईश्वर की क्षमा और भी अधिक प्रदर्शित होती है। संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में कहते हैं ‘‘यह कथन सुनिष्चित और नितान्त विश्वसनीय है कि प्रभु येसु पापियों को बचाने के लिये संसार में आये और उनमें सर्वप्रथम मैं हूँ ’’ (1 तिमथी 1:15)। पापियों को बुलाना ही प्रभु येसु के आगमन का लक्ष्य था। संत पौलुस अपने आप को सबसे बड़ा पापी मानते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि संत पौलुस इस दुनिया के सबसे बड़े पापी थे। कहा जाता है कि संत ही अपने को पापी मान सकता है। संत पौलुस अपने आध्यात्मिक जीवन में इतने आगे बढ़ चुके थे कि उन्हें ईश्वर की महानता का सही एहसास होने लगा था। ईश्वर की महानता के सामने कोई भी मानव अपने आप को निर्दोष नहीं पा सकता है।

आज का सुसमाचार हमारे सामने तीन दृष्टांत रखता है- भटकी हुई भेड़, खोया हुआ सिक्का और खोया हुआ लड़का। इन तीनों दृष्टांतों में पापियों के प्रति ईश्वर का प्रेम हमें देखने को मिलता है। इनमें से सबसे मनोहर दृष्टान्त ‘उड़ाऊ पुत्र’ का है। इसके द्वारा प्रभु येसु हमें ईश्वर पिता की दयालुता तथा क्षमाशीलता की शिक्षा देते हैं। इस दृष्टान्त में हमने सुना कि उड़ाऊ पुत्र अपनी सम्पत्ति इकट्ठा करके अपने पिता एवं अपने घर को छोड़कर दूर देश की ओर चला जाता है। उस देश में कुछ समय तक वह मौज-मस्ती में लगा रहता है। बहुत सारे लोग उसका साथ देते है। वह खुशी से झूम उठता है। लेकिन यह सब सिर्फ कुछ क्षण भर के लिए ही था। बाद में हम देखते हैं कि उसका जीवन कितने दुख दर्द से भर जाता है, उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि उसे खाने के लिए भोजन तक नहीं मिलता है।

जब तक पुत्र अपने पिता के साथ था, अपने पिता की आज्ञाओं का पालन करते हुए अपने पिता के घर में रहता था उसे कोई चिन्ता नहीं थी, उसे किसी दुख संकट का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि वह अपने पिता के घर में अपने पिता के साथ था। लेकिन जैसे ही वह अपने पिता को छोड़कर, अपने पिता की आज्ञाओं को भंग करते हुए दूर देश की ओर चला जाता है उसे असंख्य दुख संकटों का सामना करना पड़ता है।

जब तक वह अपने घर में था तब तक उसके रिष्ते पक्के थे। लेकिन पाप उसे अपने घर तथा पिता से दूर ले जाता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार एक नया जीवन शुरू करने लगता है। अफ़सोस की बात यह है कि इस नये जीवन में सारे रिष्ते क्षणिक हैं। लोग उसका फायदा उठाने के लिये आते हैं और चले जाते हैं। रिष्ते का कोई महत्व नहीं है और उड़ाऊ पुत्र अकेलापन महसूस करने लगता है। जब वह होश में आता है, तो मन-परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू होती है। हमारे जीवन में भी कई दफ़ा पापमय जीवन बिताते-बिताते हम एक प्रकार से बेहोश हो जाते हैं। ईश्वर तथा भाई-बहन के सच्चे प्यार को महसूस नहीं कर पाते हैं। शायद इसी कारण कई लोग सालों तक पाप स्वीकार के सनस्कार को ग्रहण करना भी नहीं चाहते हैं। होश में आते ही उड़ाऊ पुत्र को पिता के घर की याद आती है। उसको यह भी याद आता है कि उसके पिता के घर के मज़दूरों की दषा उसकी दषा से कहीं बेहतर है। इस प्रकार पिता की उदारता और प्रेम की याद उसे पुनः घर के रास्ते पर ले आती है। वह पिता के सामने अपने दृढ़ संकल्प को प्रकट करने के लिये पश्चतावे के एक छोटे से भाषण का अभ्यास करता है। दूसरी तरफ पिता अपने पुत्र की खोज में रहता है। उसे अपने पुत्र का इंतजार है। वह दूर से ही अपने पास पुनः लौटने वाले पुत्र को देख लेता है। पुत्र को अपने भाषण देने का मौका नहीं मिलता, कुछ भी कहने का अवसर नहीं मिलता। ऐसा लगता है मानो पिता अपने पुत्र की भावनाओं को पहले से ही जान लेता है और माँगने से पहले ही उसे क्षमा प्रदान करता है। पिता ज़रा सा भी समय खोना नहीं चाहता है, सभी लोगों के साथ आनन्द मनाने लगता है। इस प्रकार सारे परिवार में खुशी का माहौल पैदा होता है। सभी लोग मिलकर खुशी मनाते हैं।

पापियों का मन फिराव पूरे समुदाय के लिये आनन्द मनाने का समय है। इससे यह भी स्थापित होता है कि पाप पूरे समुदाय को कंलकित करता है। अगर हमारे समुदाय में कोई भी पाप करता है तो उसका असर हम सबों पर पड़ता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में ही वो उत्पन्न होता है, जीवन बिताता है, आगे बढ़ता हैं। कई बार हम अपने को बचाने की कोशिष करते हैं। हम सोचते है कि अपने आप को ही पाप से दूर रखना काफी है। दूसरों के जीवन से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। इस प्रकार की मानसिकता खीस्तीय विश्वास के खिलाफ़ है। हम में से हर एक व्यक्ति पापी है। इसलिये संत योहन कहते है, ‘‘यदि हम कहते हैं कि हम निष्पाप हैं तो हम अपने आप को धोखा देते हैं और हम में सत्य नहीं हैं। यदि हम अपने पाप स्वीकार करते हैं, तो वह हमारे पाप क्षमा करेगा और हमें हर अधर्म से शुद्ध करेगा क्योंकि वह विश्वसनीय तथा सत्य प्रतिज्ञ है’’ (1 योहन 1:8-9)।


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