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चक्र स - 57. वर्ष का छब्बीसवाँ इतवार

आमोस 6:1अ, 4-7; 1 तिमथी 6:11-16; लूकस 16:19-31

(फादर मरिया स्टीफन)


एक स्वार्थी, अविश्वासी अमीर ने एक विश्वासी से पूछा, ‘‘तुम भगवान को मानते हो तो ये बताओ कि जिस भगवान की तुम बात करते हो वह कहाँ है’’? विश्वासी बोला, ‘‘अगर मैं कहूँ कि तुम्हारी नाक में, तब’’? अविश्वासी बोला, ‘‘तो मैं नाक काटकर फ़ेंक दूँगा’’। विश्वासी ने कहा, ‘‘अगर मैं कहूँ ईश्वर तुम्हारे हाथों में है तब ?’ अविश्वासी बोला - ‘मैं हाथ काटकर फ़ेंक दूँगा ।’ विश्वासी बोला - ‘मैं कहूँ तुम्हारे पैरों में है तो’’? अविश्वासी व्यंग से बोला, ‘‘मैं पैर भी काटकर फ़ेंक दूँगा’’! इस पर विश्वासी ने कहा, ’‘अच्छा यदि मैं कहूँ कि ईश्वर तुम्हारे धन में है, फिर’’? स्वार्थी अविश्वासी तपाक से बोला, ‘‘फिर तो मैं इस धन को संभालकर रखूँगा, इसे और इकट्ठा करूँगा और इसकी पूजा करूँगा’’।

संसार में ऐसे लोग भी हैं जो धन को ईश्वर से अधिक मानते हैं। प्रभु येसु ने एक बैंगनी वस्त्र और मलमल पहनकर प्रतिदिन दावत उड़ानेवाले स्वार्थी अमीर का दृष्टांत सुनाया जिसमें उस अमीर के फाटक पर लाज़रूस नाम का एक भूखा, प्यासा, लाचार, दुखी व्यक्ति पड़ा रहता था और उसका शरीर फोड़ों से भरा हुआ था। वह अमीर की मेज़ की जूठन से अपनी भूख मिटाने के लिए तरसता था। कुत्तों की खायी रोटी की कतरनों को सहेज़कर लाज़रूस खाता था, यहाँ तक कि कुत्ते लाज़रूस के शरीर के घावों को चाटते थे। यह दृष्टांत सुनाते हुए प्रभु येसु कहते हैं कि धरती पर सांसारिक जीवन का अंत सबके लिये एक जैसा है। क्या अमीर, क्या ग़रीब? यदि हम अपनी भौतिक आँखों से देखें तो अंत में दोनों को एक जैसी मृत्यु मिली। गरीब और अमीर के शरीर मिट्टी में मिल जाते हैं। परंतु यदि हम अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो संसार में रहते हुये हम जो कुछ भी करते हैं उसका लेखा-जोखा ईश्वर को हमें देना होता है जिसका उचित पुरस्कार ईश्वर हमें प्रदान करता है।

मृत्युपरांत लाज़रूस स्वर्ग में पहुँचा और उसे पिता इब्राहिम की गोद में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, परंतु अमीर नरक की आग में झुलसता रहा। अब आपके और मेरे लिये यह सवाल उठता है कि अमीर व्यक्ति को दण्ड क्यों मिला? इसलिये नहीं कि उसने लाज़रूस को डाँटा-डपटा, मारा-पीटा या भला-बुरा कहा। बल्कि निष्चित ही इस कारण से कि उसने वहीं नहीं किया जो उसे करना चाहिये था। अतः ध्यान रहे कि आप और मैं कुछ करने के लिये बुलाये गये हैं। अंतिम दिन हमें अपना लेखा-जोखा ईश्वर को देना होगा। तब वे हम से कहेंगे, ‘‘मैं नंगा था तुमने मुझे नहीं पहनाया, मैं भूखा था तुमने मुझे नहीं खिलाया, मैं प्यासा था तुमने मुझे नहीं पिलाया . . .’’।

इसलिये ईश्वर की कृपा पाने के लिये हमें वे सब भले कार्य करना चाहिये जिन्हें हम करने में सक्षम है। सभी मानव ईश्वर की संतान हैं और इसी कारण हम सबका पड़ोसी के प्रति कुछ दायित्व है। हमारे पास जो कुछ भी है उसे अपने पड़ोसी के साथ बाँटना विश्वासियों के लिये कोई महानता की बात नहीं है, बल्कि साधारण स्वभाव मात्र है। जो खीस्तीय विश्वासी हैं वे स्वार्थी नहीं हो सकते।

जॉन एफ. केनेडी ने कहा है कि अगर एक मुक्त समाज ग़रीबों को नहीं बचा सकता तो वह अमीरों को भी नहीं बचा सकता। यदि एक धनी अपने ही भाई-बहन के प्रति अपना कर्त्ताव्य नहीं निभाता तब वह ईश्वर के प्रेम को धरती पर साकार कैसे कर सकेगा?

हम उत्पत्ति ग्रन्थ अध्याय 4 में पढ़ते हैं कि आदम के पुत्र काइन ने अपने भाई हाबिल को ईर्ष्या तथा जलन के कारण मार डाला। प्रभु ने काइन से पूछा, ‘‘तुम्हारा भाई हाबिल कहाँ है’’? उसने उत्तार दिया ’’मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ’’? इसपर प्रभु ने काइन को शाप और दण्ड दिया (उत्पत्ति 4:8-12)। ईश्वर की संतान होने के नाते सभी मनुष्यों के प्रति हमारी कुछ जिम्मेदारियाँ रहती हैं। दुनियाँ की धन-सम्पत्ति पर हर मनुष्य का हक है। इस से किसी को वंचित करना पाप है। हमारे समाज में अमीर और गरीब के बीच का भेदभाव यह दर्शाता है कि हम ईश्वर की योजना से भटक गये हैं। यह एक विरोधाभास है। हमारे समाज में कुछ लोग खाना न मिलने के कारण बीमार है तो कुछ लोग ज्यादा खाने के कारण बीमार है। अपनी ज़रूरत से ज्यादा धन इकट्ठा करना पाप है क्योंकि हमारी लालच के कारण किसी न किसी को भूखा, प्यासा या बेघर रहना पड़ता है। प्रवक्ता ग्रंथ में यह सलाह दी जाती है ‘‘पुत्र! दरिद्र की जीविका मत छीनो और प्रतीक्षा करने वाली आँखों को निराश मत करो। भूखे को मत सताओ और दरिद्र को मत चिढ़ाओ। कटु हृदय को उत्पीड़ित मत करो और कंगाल को देने में विलम्ब मत करो। संकट में पड़े की याचना मत ठुकराओ, कंगाल से अपना मुँह मत मोड़ो। दरिद्र से आँखें मत फेरो, उसे अवसर मत दो कि वह तुम को अभिशाप दे। यदि वह अपनी आत्मा की कटुता के कारण तुम को अभिशाप दे, तो उसका सृष्टिकर्त्ता उसकी प्रार्थना सुनेगा’’ (प्रवक्ता 4:1-6)।

धन के लालच का कोई अंत नहीं होता। उपदेशक का कहना है, ‘‘जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेशा और पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है वह कभी अपनी आमदनी से सन्तुष्ट नहीं होता है’’ (उपदेशक 5:9)। कई लोगों का विचार है कि धन बढ़ने से खुशी बढे़गी। लेकिन असलीयत यह है कि धन बढ़ने से खुशी कम होती है। उपदेशक कहता है, ‘‘चाहे खाना ज्यादा मिला हो या कम, मज़दूर की नींद मीठी होती है, किन्तु धनी की परितृप्ति उसे सोने नही देती’’ (उपदेशक 5:11)। समाचार पत्रों में हम धनियों की खुदखुशी तथा निराशापूर्ण जीवन के बारे में कई बार सुनते है।

तो आईये हम इस पवित्र बलिदान में एक दूसरे के लिये प्रार्थना करें, हम दिल से मन से एक दूसरे को समझें, एक दूसरे की सेवा करें ताकि हमारी पल्ली में सब एक दूसरे को भाई बहन के रूप में स्वीकार करते हुये ईश्वर का राज्य स्थापित कर सकें।


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Praise the Lord!