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चक्र स - वर्ष का अट्ठाइसवाँ इतवार

2 राजाओं 5:14-17; 2 तिमथि 2:8-13; लूकस 17:11-19

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


आज के सुसमाचार में हम दस कोढ़ियों के बारे में सुनते हैं। इस घटना को समझने के लिए हमें पुराने एवं नये विधानों के कुछ अंषों को मन में रखना चाहिए ।

ईसा पूर्व 722 में अस्सूररों ने समारिया में रहने वाले कई यहूदियों को बन्दी बनाकर वहाँ से दूर देष में भेज दिया। बचे हुए यहूदी लोगों के साथ कुछ अस्सूररों ने शादी कर ली। ऐसे दम्पत्तियों के बच्चे समारी कहलाने लगे। वे लोग यहूदी नहीं थे। इसलिए यहूदी लोग समारी लोगों के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं रखते थे। इसी कारण जब येसु एक समारी स्त्री से पीने के लिए पानी माँगते हैं तब वह स्त्री कहती हैं, ‘‘यह क्या कि आप यहूदी हो कर भी मुझ समारी स्त्री से पीने के लिए पानी माँगते है’’ (योहन 4:9)? यहूदी लोग अपने आप को हमेशा ईष्वर द्वारा चुनी गयी निजी प्रजा मानते थे। इसलिए वे लोग समारियों एवं अन्य लोगों को अपनी धर्म-विधियों में सम्मिलित होने से मना करते थे।

यहूदियों के लिये कोढ़ एक अछूता रोग था। इसलिए वे कोढ़ियों को गाँव से दूर एक अलग स्थान में रखते थे। यह एक कानून भी था कि किसी भी कोढ़ी की छाया भी दूसरों के ऊपर नहीं पड़ना चाहिए। किसी कोढ़ी को पूर्णरूप से स्वस्थ होने के बाद याजकों को दिखाकर स्वास्थ्य प्रमाण पत्र प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके बाद ही वह स्वस्थ कोढ़ी गाँव में दूसरों के साथ मिलजुल कर रह सकता था।

प्रभु येसु के इस दुनियाँ में आने का एक ही मकसद था कि वे सब लोगों को स्वर्गराज्य का सुसमाचार सुनायें। अपने जीवनकाल में प्रभु येसु इस कार्य को विभिन्न चरणों में पूरा करना चाहते हैं। पहले चरण में वे यहूदी लोगों को सुसमाचार सुनाते हैं और उसके बाद समारियों तथा अन्य लोगों को।

अभी हम इन बातों को मन में रखकर आज के सुसमाचार को ज़रा गौर से देखें और समझें। दस कोढ़ी अपने कुष्ट रोग के कारण दूर खड़े होकर ऊँचे स्वर से येसु को पुकारते हैं। येसु उनपर ध्यान देते हैं। येसु यह देखकर खुश हो जाते हैं कि उन कोढ़ियों के दिल में विश्वास का बीज पहले ही बोया जा चुका था। दस कोढ़ी यह कहकर ऊँचे आवाज़ में चिल्ला रहे थे, ‘‘ईसा, गुरुवर, हम पर दया कीजिए’’।

चंगाई के कोई भी शब्द के बिना येसु उन्हें यह आदेश देकर भेज देते हैं कि जाओ और अपने को याजकों को दिखलाओ। वे सब के सब किसी भी सन्देह के बिना येसु के वचनों पर विश्वास रखकर चले जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि उनके मन में जो विश्वास का बीज बोया गया था वह अब अंकुरित होने लगा। इसे देखकर येसु खुश हो जाते हैं।

रास्ते में जाते समय सब के सब नीरोग हो जाते हैं। लेकिन उन में से केवल एक व्यक्ति ही येसु के पास लौट कर धन्यवाद देते हुए प्रभु येसु के चरणों पर मुँह के बल गिर पड़ा, और वह एक समारी था। तब प्रभु ने उससे पूछा, ‘‘क्या दसों नीरोग नहीं हुए? तो बाकी नौ कहाँ हैं? क्या इस परदेशी को छोड़ और कोई नहीं मिला जो लौट कर ईश्वर की स्तुति करें?’’ येसु के इस कथन में काफी कुछ बातें छुपी हैं।

कुष्ट रोगी चाहे वे यहूदी हों या समारी दोनों मिलजुल कर रहते थे। लेकिन रोग से मुक्त होने के बाद दोनों अलग अलग हो जाते हैं। जबकि येसु की इच्छा यह थी कि स्वस्थ होने के बाद भी वे दोनों एक साथ रहें। सच्चे ईश्वर की ओर समारी एवं अन्य लोगों को लाना यहूदी लोगों की जिम्मेदारी थी। लेकिन वे येसु को छोड़कर बहुत दूर चले जाते हैं। जबकि अन्य लोग उनके पास आ कर उन्हें धन्यवाद देते हैं। यहूदी अपने आप को ईश्वर द्वारा चुनी गयी निजी प्रजा मानते थे, उनका यह विचार था कि केवल वे ही उस ईश्वर की आराधना कर सकते हैं, यह यहूदी लोगों का बुनियादी हक़ है। लेकिन उसे वे लोग खो देते हैं। जबकि समारी एवं अन्य लोग इस हक से वंचित किये गये हैं। लेकिन अभी ऐसे समाज से एक व्यक्ति येसु के पास आकर उन्हें धन्यवाद देते हुए उनकी आराधना करता है।

ईश्वर द्वारा चुने गये अन्य नौ यहूदी लोग प्रभु येसु में छुपी हुई ईश्वरीयता को पहचानने में असमर्थ थे। इसलिए वे उन्हें छोड़कर दूर चले जाते हैं। जबकि एक समारी व्यक्ति येसु में छुपी ईश्वरीयता को पहचानता है और वह येसु के पास वापस आता है। यहूदियों को छोड़कर किसी भी व्यक्ति का ईश्वर के पास आना यहूदी लोगों की विचारधारा तथा धर्मिक प्रथा के अनुसार सम्भव नहीं था। दूसरे समाज के लोगों का ईश्वर की आराधना करना कानूनी रीति से वर्जित था। पुराने विधान में नामान नामक एक परदेशी अपने रोग से मुक्त होकर ईश्वर की आराधना करता हैं जिसके बारे में हम ने आज के पहले पाठ में सुना। नये विधान में एक ग़ैर यहूदी व्यक्ति सच्चे ईश्वर को अपनी चंगाई द्वारा पहचान कर उनकी आराधना करता है ।

हमारा विश्वास यह है कि बपतिस्मा द्वारा हम भी ईश्वर की संतान बन जाते हैं। हमारा भी यह कर्त्तव्य है कि हम हमेशा ईश्वर की आराधना करें और उनको धन्यवाद देते रहें। हमारा यह जीवन, रिष्ते-नाते, वातावरण इत्यादि ईश्वर की देन हैं। हम उन के पास जायें और दूसरों को भी उनके पास ले जायें और उन्हीं में जीवन बिताने के लिए आशिष माँगें।


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