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चक्र स - 60. वर्ष का उन्तीसवाँ इतवार

निर्गमन 17:8-13; 2 तिमथी 3:14-4:2; लूकस 18:1-8

(फादर ईश्वरदास मिंज)


लोग पवित्र भूमि, रोम, लूर्दस, फातिमा, वेलांकनी आदि जगहांे पर जाया करते हैं। जो लोग श्रद्धा एवं भक्ति से ऐसी भिन्न-भिन्न जगहांे पर, जहाँ पर किसी समय ईश्वर का दर्शन हुआ हो या कोई चमत्कार हुआ हो, दर्शन के लिए जाते हैं, उन्हें हम तीर्थयात्री कहते हैं। खीस्तीयों को तीर्थयात्री कहना बहुत उचित है क्यांेकि खीस्तीय हमेशा स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं, जहाँ पर वे ईश्वर के साथ सदा के लिए जीवित रहेंगे। लाखों लोग पहले ही स्वर्ग पहुँच चुके हैं, कुछ लोग अभी इसी क्षण में पहुँच रहे हैं। जो आज जैसे ही बपतिस्मा ग्रहण करते हैं वैसे ही वे अपनी यात्रा शुरू कर रहे हैं। फिर भी स्वर्ग की ओर यात्रा में कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं है, हालाँकि सभी व्यक्ति अपनी यात्रा में एक समान नहीं हैं। ईश्वर चाहते हैं कि हम एक परिवार के रूप में इस यात्रा में साथ-साथ चलें। यदि कोई खीस्तीय समुदाय से अलग होकर अकेले ही स्वर्ग पहुँचने की कोशिश करेगा तो वह हरगिज़ स्वर्ग नहीं पहुँच पायेगा।

यदि हम अपनी यात्रा की तुलना इस्राएलियों के प्रतिज्ञात देश की यात्रा से करें तो हमारी स्थिति उनकी स्थिति से कहीं अच्छी नहीं है। बपतिस्मा की तुलना यदि हम इस्राएलियों के लाल समुद्र पार करने से करें, तो लाल समुद्र पार होना इस्राएलियों के लिए मिस्र की गुलामी से छुटकारा पाना था और बपतिस्मा हमारे लिए आदि पाप की गुलामी से छुटकारा पाना है। इस्राएलियों का अगुआ मूसा था तो हमारा अगुआ खीस्त हैं। सुसमाचार लेखक संत मत्ती खीस्त को दूसरा-मूसा और कलीसिया को नये इस्राएल के रूप में प्रस्तुत करता है। आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि प्रतिज्ञात देश की यात्रा के दरमियान इस्राएलियों पर उनके दुश्मन, अमालेकियों ने आक्रमण कर दिया किन्तु उनका सबसे खतरनाक दुश्मन उनका अपना घमंड ही था, जो अकसर उनके लिए मूसा की आज्ञाओं के उल्लघंन का कारण बना। यही शत्रु हमारे जीवन में भी बार-बार छल-कपट की भूमिका अदा कर, हमको खीस्त का अनुकरण करने से रोकना चाहता है। इस्राएलियों का गंतव्य स्थान प्रतिज्ञात देश था और हमारा गंतव्य स्थान स्वर्ग है जहाँ सचमुच में दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।

काथलिक कलीसिया आज हमको बहुत ही महत्वपूर्ण सलाह देना चाहती है, ताकि हम अपनी यात्रा सुरक्षित समाप्त कर सकें। स्वर्ग की ओर हमारी यात्रा के रास्ते में कई बाधाएं हैं जो हमें सही रास्ते से भटकाकर हमारे गंतव्य तक पहुँचने नहीं देना चाहती हैं। इन बाधाआंे से लड़कर जीतने के लिए एक शक्तिशाली हथियार चाहिए और वह हथियार तलवार, धनुष, बंदूक नहीं किंतु प्रार्थना है।

आज के पहले पाठ में गौर करें कि किस प्रकार प्रार्थना इस्राएलियों को शक्तिशाली अमालेकियों के विरुद्ध युद्ध में विजय दिलाती है। जब इस्राएली लोग प्रतिज्ञात देश की ओर यात्रा कर रहे थे तब अमालेकियों ने रफीदीम में इस्राएलियों पर आक्रमण किया। तब मूसा ने अपने सेनापति योशुआ से कहा ‘‘अमालेकियों से युद्ध करने जाओ। मैं हाथ में ईश्वर का डंडा लिये पहाड़ की चोटी पर खड़ा रहूँगा’’ (1 राजा 17:9-10)। वह पहाड़ी पर चढा़ और अपने दाएँ हाथ में डंडा लिये प्रार्थना के लिये हाथ फैलाये। यह वही डंडा था जिसे लेकर मूसा ने फिराउन के सामने ईश्वर से बात की तो वह सँाप में परिवर्तित हो गया था तथा जिसे मूसा ने लाल समुद्र पर मारा तो समुद्र दो भागों में विभाजित होकर दीवार के समान दोनों तरफ खड़ा हो गया और बीच में इस्राएलियों को लाल समुद्र पार होने के लिए सूखा रास्ता बन गया था। कुछ दिनों बाद ईश्वर ने मूसा को उसी डंडे से एक चट्टान पर प्रहार करने को कहा और मूसा के ऐसा करने से उस चट्टान से प्रचुर मात्रा में ताज़ा पानी लोगों एवं पशुओं के पीने के लिए बह निकला। इस प्रकार मूसा का डंडा ईश्वर की शक्ति का प्रमाण बन गया था। वह इस्राएलियों को यह याद दिलाता था कि ईश्वर की शक्ति इस्राएलियों के साथ है और उनके लिये उन्होंने एक बार फिर पर्वत पर डंडे को उठाकर प्रार्थना की और ईश्वर ने उनको विजय दिलायी।

इस घटना से हमें बहुत ही सुन्दर पाठ सीखने को मिलता है। सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट है कि हमारे प्रतिज्ञात देश की ओर यात्रा में जो शत्रु हमारे रास्ते में रोड़ा बनते हैं उन पर विजय हासिल करने का एक शक्तिशाली हथियार प्रार्थना ही है। जब तक युद्ध चलता रहता है, तब तक प्रार्थना चलती रहनी चाहिए- सूर्यास्त तक, याने हमारे जीवन के अंत तक। विजय हमारे कर्म एवं प्रार्थना के सम्मिश्रण का फल है। अच्छा परिणाम हमेशा ही मनुष्य के प्रयास एवं ईश्वर की मदद का समुच्चय होता है। हम सब में मूसा एवं योशुआ का सम्मिश्रण होना चाहिए। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर पर भरोसा रखकर हमारा प्रयास ही प्रार्थना हो जाना चाहिए। हमें अपनी ताकत पर ही कभी ढीठ नहीं बने रहना चाहिए।

संत लूकस उन खीस्तीय समुदायों को जो धर्मसतावट से हताश हैं, प्रोत्साहित करने के लिए लिखते हैं। ये खीस्तीय समुदाय बेसब्री के साथ खीस्त के द्वितीय आगमन का इंतज़ार कर रहे थे जो उनके संकट का अंत करेगा। वे इंतज़ार करके थक चुके थे और खीस्त के द्वितीय आगमन पर संदेह करने लगे थे। इस तरह खीस्त में उनका विश्वास कमज़ोर होने लगा। क्यों? संत लूकस के अनुसार प्रार्थना में ढिलाई इसका कारण था। दृष्टांत में हालँाकि न्यायकर्त्ता एक दुष्ट व्यक्ति था जिसे न्याय की तनिक भी चिंता नहीं थी और न ही वह ईश्वर से डरता था, फिर भी यदि उसने उस विधवा के दुराग्रह से निज़ात पाने के लिये उस विधवा को जो वह माँगती है प्रदान करता है, तो क्या ईश्वर जो सबकुछ से अच्छा, सबको प्यार करता और चाहता है कि सब उनके साथ स्वर्ग में हो उनकी प्रार्थना नहीं सुनेंगे? ज़रूर सुनेंगे। इसलिए उन्हें हताश होने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे नित्य प्रार्थना करते रहें और कभी हिम्मत न हारें। खीस्त के आने में देरी करने का मतलब था उनको अपने विश्वास में दृढ़ होने में सहायता करना। खीस्त उनके विश्वास को इतना मज़बूत करना चाहते हैं कि उनके मन में तनिक भी संदेह न हो। खीस्त निश्चित रूप से एक दिन उन्हें पिता के घर ले जाएंगे।

आज हम अपने खीस्तीय समुदाय की ओर नज़र दौड़ाएं। क्या हम उनके समान हैं, जिन्होंने प्रार्थनाओं में ढ़िलाई की? क्या हम सहज ही हताश हो जाते हैं जिसके कारण हमारा विश्वास कमज़ोर हो जाता है? फिर धीरे-धीरे हम नाम के वास्ते खीस्तान हो जाते हैं। यदि हम हताश हो जाते हैं तो आइए इसका कारण ढूंढे़। इसके कई कारण हो सकते हैं- विभिन्न प्रकार के प्रलोभन जो हमें बार-बार पाप की ओर खींचते हैं, समुदाय में अनेकता एवं बार-बार आपसी फूट पड़ना, लोगों को प्रभु के पास ले जाने में उत्साह की कमी, इतवार की मिस्सा पूजा में ढ़िलाई आदि। ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि शायद हम बहुत कम प्रार्थना करते और जो करते हैं वह भी सही ढंग से नहीं करते। हर एक व्यक्ति सोचे कि हम प्रार्थना के लिए कितना समय की पाबंदी करते हैं। हम प्रार्थना तो करते हैं, किंतु हम अपनी रटी-रटायी प्रार्थनाओं तक ही सीमित रहते हैं जो अपने आप में अच्छी प्रार्थनाएं हैं किंतु जब हम इन प्रार्थनाओं को बोलते हैं तो हम उनमें दिल और मन नहीं लगाते हैं। यह बहुत गम्भीर बात है क्योंकि सच्ची प्रार्थना के बिना खीस्त में हमारा विश्वास कभी दृढ़ नहीं हो सकता है और बिना विश्वास की प्रार्थना अर्थहीन है। प्रार्थना और विश्वास एक दूसरे के पूरक हैं।

सवाल उठता है कि हमें प्रार्थना कैसे करनी चाहिए? हम धर्मग्रंथ के आधार पर प्रार्थना कर सकते हैं। हमारे और दूसरों के लिये ईश्वर की योजना क्या है? यह जानने के लिये धर्मग्रंथ ठोस रास्ता दिखाता है। यह हमारी गलतियों को जानने में मदद करता है। यह पवित्रता में बढ़ने के लिये सर्वश्रेष्ठ दिशा निर्देशक है ।

हमारी प्रार्थना ईश्वर के साथ वार्तालाप होना चाहिए। जब कभी हम प्रार्थना करते हैं, तब हम ईश्वर को पहले बोलने दें। हमारे बोलने से ईश्वर का बोलना अधिक महत्व का होगा। हम सबसे पहले उन्हें हमसे बात करने के लिये कहंे फिर हम ईश्वर से हमारी प्रार्थना में पूछे कि हमारे लिये उसकी योजना क्या है? प्रभु को सुनने के बाद उनके प्रति हमारा जवाब अर्थपूर्ण होगा। हम उनके अथाह प्रेम के लिये उन्हें धन्यवाद दें। हमारे पाप के लिये हम पश्चात्तापपूर्ण हृदय से क्षमायाचना करें। अंत में हम हमारे लिये उनकी योजना के अनुसार चलने की कृपा माँगे। आइए हम एक पल मौन रहकर इस प्रकार प्रार्थना करने की कोशिष करें।


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