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चक्र स - 65. ख्रीस्त राजा का महापर्व

2 समूएल 5:1-3, कलोसियों 1:12-20, लूकस 23:35-43

(फादर रोनाल्ड मेलकम वॉंन)


आज प्रजातंत्र का युग है। राजाओं का युग बीत चुका है। आज राजतंत्र बहुत कम प्रचलित है, और जहाँ प्रचलित है, वहाँ भी सिर्फ नाम के वास्ते। फिर भी इतिहास की किताबों में राजा तथा राजतंत्र के बारे में हमें बहुत कुछ पढ़ने को मिलता है। जब हम राजा के बारे में सोचते हैं तो हमारे दिमाग में क्या विचार आते हैं? स्वाभाविक तौर पर हमारे दिमाग में एक भव्य एवं आलीशान तस्वीर उभरकर आती है। क्योंकि हमें मालूम है कि राजा कैसे होते हैं; उनकी क्या शान एवं शौकत होती है। राजा बहुत अमीर होता है। उसका राज्य होता है, बेशकीमती मुकुट होता है, वह बडे़ ही आलीशान महल में रहता है। उसके कपड़ों में हीरे-जवाहरात जड़े होते है। उसके पास सेना, सैकड़ो नौकर-चाकर, अकूत सम्पत्ति आदि ढे़रों ऐसी चीजें़ होती है। राजा राजनैतिक सत्ता एवं शक्त्ति का केन्द्र होता है। जिस व्यक्ति के पास ये सब होते हैं तो उसे राजा स्वीकार करने में हमें कोई परेशानी नहीं होती है। क्योंकि उसके पास वह सब होता है जो एक राजा पास होना चाहिये। अगर किसी व्यक्ति के पास इन सब में से कुछ भी न हो और वह स्वयं को राजा घोषित करें तो लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी? लोग या तो उस तथाकथित राजा पर हसेंगे या फिर उसे पागल मानेंगे। प्रभु येसु भी ऐसे ही व्यक्ति थे जिनके पास न तो इस संसार का राज्य या मुकुट था न ही दुनियावी वैभव। परिणामस्वरूप लोगों के लिये उन्हें राजा स्वीकार करना मुष्किल था, शायद असंभव भी। यही कारण हो सकता है कि बहुत ही कम लोग येसु को पहचान, समझ एवं स्वीकार कर पाये थे।

येसु को राजा के रूप में स्वीकार करने के लिये हमें आंतरिक प्रकाश की ज़रूरत है। जिन लोगों के पास यह आंतरिक ज्योति है उन्हें येसु को राजा के रूप में पहचानने एवं स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होती है। जब वे ऐसा कर लेते हैं तो उन्हें यह साबित करने के लिये कि येसु ही वास्तविक राजा है किसी सांसारिक मापदण्ड की आवश्यकता नहीं होती है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण है जब लोगों ने अपना जीवन पूरी तरह से बदल दिया है क्योंकि उन्होंने येसु को पहचान लिया था। उन्हें राजा के रूप में स्वीकार कर लिया था।

संत पौलुस अपने जीवन के शुरूआती वर्षों में ख्रीस्तीय धर्म के विरुद्ध थे। वे ख्रीस्तीयों को यातना एवं कष्ट देने में अव्वल थे। लेकिन दमिश्क जाते समय जब उनका सामना येसु से होता है तो वे पहचान जाते हैं कि येसु कौन है; असली राजा कौन है। इसके बाद वे स्वयं ख्रीस्तीय धर्म के प्रचारक बन जाते हैं। जो संत पौलुस ख्रीस्त के अनुयायियों का रक्त बहाने का इरादा लिये थे वही अंत में ख्रीस्त के लिये अपना रक्त बहा देते हैं। संत फ्रांसिस असीसी अपनी युवास्था में बड़े ही रंगीन ख्यालातों के थे। वे एक वीर योद्धा बनना चाहते थे; किसी सांसारिक राजा की सेना में एक महान योद्धा का स्थान पाना चाहते थे। अच्छे कपड़े पहनना, मित्रों के साथ रंग-रैलियाँ मनाना, दावतें उड़ाना आदि उनकी दिनचर्या थी। परिवार के सदस्य उनके भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे। लेकिन जब उनकी अंतरात्मा में येसु का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो उठता है तो उनके जीवन का नक्शा ही बदल जाता है। वे येसु के योद्धा बन जाते हैं। किसी सांसारिक राजा की सेवा करने के बजाय वह येसु-राजा की सेवा करने लगते हैं। दुनियावी राज्य को बनाने के बदले वे कलीसिया को बनाने का कार्य करने लगते हैं। ऐसा इसलिये हो पाया कि फ्रांसिस ने अपने जीवन में येसु को राजा के रूप में स्वीकार कर लिया था।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि येसु के साथ दो कुकर्मियों को भी क्रूस पर चढ़ाया गया था। एक कुकर्मी के लिये येसु एक साधारण से मनुष्य थे जो स्वयं को राजा एवं मसीहा घोषित करने की मूर्खता कर रहा था तथा इसके कारण उन्हें यह दिन देखना पड़ रहा था। उसके लिये येसु इससे ज़्यादा कुछ नहीं थे। इसलिये वह क्रूस पर भी येसु को पहचान नहीं पाया था और उनका मख़ौल उड़ा रहा था। उसके अन्तरत्तम में अंधकार था; उसमें वह आंतरिक प्रकाश नहीं था कि वह येसु को राजा के रूप में पहचाने एवं स्वीकारे। इसलिये वह येसु एवं उनके राज्य को खो देता है। दूसरी ओर एक और कुकर्मी है जो येसु को पहचान लेता है, उन्हें राजा के रूप में स्वीकार कर लेता है और पुकार उठता है ‘‘ईसा! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा’’। इस तरह यह कुकर्मी येसु के साथ उसी दिन उनके राज्य में प्रवेश कर उसका हिस्सा बन जाता है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब लोग येसु को राजा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो उनका जीवन, व्यवहार, दृष्टिकोण सब कुछ बदल जाता है। उनके जीवन का उद्देश्य बदल जाता है। संत पौलुस इसी बात को बताते हुए लिखते हैं, ‘‘यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है . . .’’ (2 कुरिन्थियों 5;17)। ये लोग इसलिये बदल जाते हैं कि ये येसु को राजा स्वीकार करने के बाद उनके राज्य का हिस्सा बनना चाहते हैं। परिणामस्वरूप उनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है तथा वे एक नयी सृष्टि बन जाते हैं।

आईये हम भी ईश्वर से प्रार्थना करें कि वे हमें आंतरिक प्रकाश से भर दें ताकि हम भी येसु राजा को पहचान सकें एवं उन्हें अपने जीवन, सारे अस्तित्व का राजा बना सकें और उनके राज्य के मूल्यों के अनुसार अपना जीवन बिता सकें।


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Praise the Lord!