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परम पवित्र त्रित्व का पर्व

2 सूक्ति 8:22-31;रोमियों 5:1-5; योहन 16:12-15

फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


आज हम पवित्र त्रिएक ईश्वर का रविवार मनाते हैं। और आज के दिन शायद प्रवचन देना सबसे मुश्किल होता है। क्योंकि पवित्र त्रित्व का रहस्य ईश्वर के अस्तित्व का सबसे गहरा रहस्य है। ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में, या उनके देहधारण को या फिर उनके पुनरूत्थान को काफी हद तक समझा जा सकता है। परन्तु एक ही ईश्वर होते हुए भी उसमें तीन जन होना, वो भी बिना किसी भिन्नता के, बिना किसी विरोधाभास के और बिना किसी वर्गीकरण के। ऐसे एक अटूट व परिपूर्ण एकतारूपी ईश्वर के अस्तित्व को समझना साधारण व सीमित मानवबुद्धि के बस की बात नहीं।

कई लोग इसे समझाने के लिए कई ऐसे उदाहरण पेश करते हैं जिसे हम हमारी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव कर सकते हैं और समझ सकते हैं। जैसे कई लोग पानी की तीन विभिन्न अवस्थाओं का हवाला देते हुए कहते हैं जैसे पानी का मौलिक रूप H2O है पर वह तीन विभिन्न अवस्थाओं में पाया जाता है जैसे द्रव, ठोस (बर्फ) और गैस (भाप)। इन तीनों रूपों में वह है तो वही पानी पर तीन विभिन्न अवस्थाओं में मौजूद रहता है। वैसे ही ईश्वर है तो एक ही वास्तविकता, एक ही अस्तित्व, पर वह तीन विविध रूपों में अपने आप को प्रकट करता है - पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा।

परन्तु सच्चाई यह है कि कोई भी अनुभवजन्य ज्ञान या उदाहरण पवित्र त्रित्व को समझाने के लिए सटीक या पर्याप्त नहीं है। क्योंकि यह ‘ईश्वर’का रहस्य है। इसायाह 55:8-9 में वही ईश्वर हम से कहते हैं - ‘‘तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं है और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं है। जिस तरह आकाश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।’’

जब हम पवित्र त्रित्व के बारे में बात करते हैं तो मैं इसकी शुरूआत संत योहन के पहले पत्र अध्याय 4:8 से करना उचित समझता हूँ। जहाँ पर संत योहन ईश्वर की परिभाषा इन शब्दों में पेश करते हैं - ‘‘ईश्वर प्रेम है”।

हम ख्रीस्तीयों की सबसे हटकर एक पहचान है और वह है हमारी ईश्वर की समझ या ईश्वर की पहचान। ख्रीस्तीयों के लिए ईश्वर प्यार है। एक यहूदी या फिर मुस्लिम यह कहेंगे कि ईश्वर प्यार करता है। यह सच है। परन्तु ईसाईत की अलग पहचान इस बात को लेकर है कि हमारे लिए ‘ईश्वर प्यार है।’ दूसरे शब्दों में प्यार वह कोई चीज नहीं जिसे ईश्वर करता है परन्तु प्यार ईश्वर की परिभाषा है, प्यार ईश्वर की एक पहचान है। या फिर प्यार ईश्वर का अस्तित्व है। ‘ईश्वर प्यार है’यह दावा ही पवित्र त्रित्व को समझने व पहचानने का आधार है। ईश्वर प्यार है और ईश्वर त्रित्व है ये दोनों एक ही बात की ओर इंगित करते हैं।

यदि हम यह कहते हैं कि ईश्वर प्यार है तो ईश्वर के अपने अस्तित्व के भीतर ही यह प्यार क्रियाशील होना चाहिए। याने ईश्वर के एक ही अस्तित्व में प्यार करने वाला, प्यार पाने वाला और प्यार स्वयं मौजूद होना चाहिए। जी हॉं ईश्वर संसार से प्यार करता है यह सत्य है। परन्तु आदिकाल से ईश्वर की पहचान यह है कि वह प्यार है। और इसलिए हमें यह कहना उचित है कि ईश्वर प्यार है और अपने अंदर उस प्यार की तीन भूमिकायें हैं। पिता जो कि प्यार का उद्गम है जो पुत्र से प्रेम करता है और पिता पुत्र के बीच का यह प्रेम ही आत्मा है। पवित्र त्रियेक ईश्वर यह बतलाता है कि उसमें प्रेम की परिपूर्णता है। जिसमें प्रेम की परिपूर्णता है वही सच्चा और पूर्ण ईश्वर हो सकता है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा में प्रेम की परिपूर्णता विद्यमान है। जब हम प्रेम की बात करते हैं तो हमारा अनुभव हमें यह बतलाता है कि प्यार कभी निश्चल नहीं हो सकता है परन्तु प्यार हमेशा गतिशील रहता है। यदि मुझमें किसी के प्रति प्यार है तो वह प्यार मेरे भीतर निष्क्रिय रूप में पडा नहीं रहता पर वह गतिशील या क्रियाशील होकर अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता खोजता है। वह शब्दों द्वारा, उपहार द्वारा, आलिंगन द्वारा, स्पर्श द्वारा, चुंबन द्वारा या फिर मन में प्रेम भरी एक कल्पना द्वारा व्यक्त किया जाता है।

उसी प्रकार जब हम कहते हैं कि ईश्वर प्यार है तो यह प्यार अपने आप में निष्क्रिय नहीं रह सकता। वह अपनी अभिव्यक्ति खोजेगा। हम यह जानते और विश्वास करते हैं कि ईश्वर अनादिकाल से विद्यमान हैं। यदि ईश्वर अनादि काल से विद्यमान है और वह ईश्वर प्रेम है तो उस ईश्वर को त्रियेक रूप में होना आवश्यक है। क्योंकि एक ही जन में, अपने आप में प्रेम की अभिव्यक्ति असंभव है। इसलिए ईश्वर जो कि प्यार है वह पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में एक ही प्यार के बंधन में एक ही सह अस्तित्व में निवास करता हैं। इसलिए पवित्र त्रित्व में ही पूर्ण ईश्वर हो सकता है। अन्यथा ईश्वर में एक अधूरापन रह जाता है। और जिसमें अधूरापन है वह ईश्वर नहीं हो सकता। यदि हम पवित्र त्रित्व में से किसी भी एक जन को इसमें से अलग कर देते हैं तो ईश्वर अपने अस्तित्व का अर्थ खो देते हैं। यदि हम आत्मा को त्रित्व से अलग कर दें तो हमारे पास पिता और पुत्र रह जाते हैं पर मनुष्यों में प्राण भरने वाला आत्मा, जिसके द्वारा ईश्वर सृष्टि का नवनिर्माण करता है नहीं रह जाता। यदि हम पुत्र को त्रित्व से अलग कर दें तो हमारे पास पिता और आत्मा रह जाते हैं पर हमारे पास वह ईश्वर नहीं रह जाता जो अपने आप को मनुष्यों के बीच प्रकट करता है जो अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए स्वयं मनुष्य का शरीर धारण कर लेता है। और यदि पिता को त्रित्व से अलग कर दिया जाये तो पुत्र और आत्मा तो हमारे साथ रहते हैं पर सारे ब्रह्माण का संचालन करने वाली दिव्य सत्ता हमारे साथ नहीं होती।

अब ये पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अपना अलग-अलग अस्तित्व रखने वाले तीन ईश्वर नहीं वरन एक ही ईश्वर के तीन जन हैं। इनका अस्तित्व एक ही है और वह है एकमात्र ईश्वर का अस्तित्व। ये तीनों अलग-अलग अस्तित्व नहीं रख सकते। इन तीनों को एक ही अस्तित्व में परिपूर्णता से बाँधे रखने वाली शक्ति है उनका प्रेम। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के बीच कभी विभाजित न की जा सकने वाली एकता का रहस्य है उनका अविभाजित, कभी न तोडा जा सकने वाला और कभी न खत्म होने वाला प्यार। इसलिए प्रभु येसु संत योहन 10:30 में कहते हैं - ‘‘मैं और पिता एक हैं”। और योहन 14:9 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है”। और संत पेत्रुस पेंतेकोस्त के दिन अपने प्रथम भाषण में लोगों से नबी योएल के ग्रंथ का हवाला देते हुए पवित्र आत्मा के विषय में की गई भविष्यवाणी के बारे में बतलाते हैं – “मैं अंतिम दिनों सब शरीरधारियों पर अपना आत्मा उतारूँगा”। यहाँ पर ईश्वर अपने आत्मा के बारे में कह रहे हैं। जो आत्मा पेंतेकोस्त के दिन प्रेरितो पर उतरा वह ईश्वर से बाहर अस्तित्व रखने वाली कोई आत्मा नहीं परन्तु स्वयं ईश्वर का आत्मा था। याने पवित्र त्रित्व का तीसरा जन स्वयं ईश्वर की त्रियेक सत्ता से प्रसृत होता है।

ईश्वर का त्रिएक रूप में होना हमें क्या सिखलाता है? ईश्वर का त्रिएक अस्तित्व है याने प्रेम की परिपूर्णता का अस्तित्व है। अपने इसी स्वाभाव के कारण ईश्वर हमारी सृष्टि करता है और वही त्रियेक ईश्वर हमें अपने इस प्रेम में भागीदार होने के लिए बुलाता है। संत योहन 14:23 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘यदि कोई मुझे प्यार करेगा तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आकर उसमें निवास करेंगे”। तो यह है पवित्र त्रित्व में विश्वास करने का अंतिम उद्देश्य कि हम ईश्वर के इस असीम और अनन्त प्रेम के भागीदार बन जायें।

संत योहन 14:1 में प्रभु येसु अपनी ख्वाहिश इन श्ब्दों में बयाँ करते हैं – “जिससे जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम भी रहो”। प्रभु येसु कहॉँ है? इसके बारे में योहन 14:11 में येसु हमें बतलाते हैं - ‘‘मैं पिता में हूँ ओर पिता मुझमें हैं”। इसका आशय यह हुआ कि पवित्र त्रिएक ईश्वर हमें अपने प्रेम में एक हो जाने के लिए बुलाता है।

येसु ख्रीस्त की शिक्षाओं पर चले बिना हम उनसे प्यार नहीं कर पायेंगे और न ही उनके प्यार के सहभागी बन पायेंगे। तो सबसे पहले हमें येसु ख्रीस्त को पहचानना उन्हें स्वीकार करना और उनकी आज्ञाओं को मानना होगा। तब हम उनसे प्यार कर पायेंगे और स्वयं पिता हमें प्यार करेगा और पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा हममें आकर निवास करेंगे। आमेन।


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