राख-बुध के बाद का शनिवार

पहला पाठ

नबी इसायस का ग्रन्थ 58:9-14

“यदि तुम पददलितों को तृप्त करोगे, तो अंधकार में तुम्हारी ज्योति का उदय होगा।”

यदि तुम अपने बीच में से अत्याचार दूर करोगे, किसी पर अभियोग नहीं लगाओगे और किसी की निन्दा नहीं करोगे, यदि तुम भूखों को अपनी रोटी खिलाओगे और पद्दलितों को तृप्त करोगे, तो अंधकार में तुम्हारी ज्योति का उदय होगा और तुम्हारा अंधकार दिन का प्रकाश बन जायेगा। प्रभु निरन्तर तुम्हारा पथप्रदर्शन करेगा। वह मरुभूमि में भी तुम्हें तृप्त करेगा और तुम्हें शक्ति प्रदान करता रहेगा। तुम सींचे हुए उद्यान के सदृश बनोगे, जलस्रोत के सदृश, जिसकी धारा कभी नहीं सूखती। तब तुम पुराने खँडहरों का उद्धार करोगे और पूर्वजों की नींव पर अपना नगर बसाओगे। तुम चारदीवारी की दरारें पाटने वाले और टूटे-फूटे घरों के पुनर्नि्माता कहलाओगे। यदि तुम विश्राम-दिवस का नियम भंग करना छोड़ दोगे और उस पावन दिवस को कार-बार नहीं करोगे; यदि तुम उसे आनन्द का दिन, प्रभु को अर्पित तथा सम्मानीय दिवस समझोगे; यदि उसके आदर में यात्रा पर नहीं जाओगे और कारबार या व्यापार नहीं करोगे; तो तुम्हें प्रभु का आनन्द प्राप्त होगा। मैं तुम लोगों को देश के पर्वत प्रदान करूँगा और तुम्हारे पिता याकूब की विरासत में तृप्त करूँगा। यह प्रभु का कहना है।

प्रभु की वाणी।

भजन : स्तोत्र 85:1-6

अनुवाक्य : हे प्रभु ! अपना मार्ग मुझे दिखा, जिससे मैं तेरी सच्चाई पर चल सकूँ।

1. हे प्रभु! मेरी प्रारना सुन, मुझे उत्तर दे। मैं दरिद्र और अभागा हूँ। मेरी रक्षा कर। मैं तेरा भक्त हूँ। तुझ पर भरोसा है। अपने दास को बचा।

2. हे प्रभु! तू ही मेरा ईश्वर है। मुझ पर दया कर। मैं दिन भर तुझे पुकारता हूँ। हे प्रभु ! अपने दास को आनन्द प्रदान कर। मैं तेरी आराधना करता हूँ।

3. हे प्रभु ! तू भला है, दयालु है और अपने पुकारने वालों के लिए प्रेममय। हे प्रभु ! मेरी प्रार्थना सुनने और मेरी दुहाई पर ध्यान देने की कृपा कर।

जयघोष : एजे० 33:11

प्रभु कहता है, “मैं पापी की मृत्यु से नहीं, बल्कि इस से प्रसन्न हूँ कि वह पश्चात्ताप करे और अनन्त जीवन के पथ पर आगे बढ़े।”

सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 5:27-32

"मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चात्ताप के लिए बुलाने आया हूँ।”

येसु ने लेवी नामक नाकेदार को चुंगीघर में बैठा हुआ देखा और उस से कहा, “मेरे पीछे चले आओ''। वह उठ खड़ा हो गया और अपना सब कुछ छोड़ कर येसु के पीछे हो लिया। लेवी ने अपने यहाँ येसु के सम्मान में एक बड़ा भोज दिया। नाकेदार और मेहमान बड़ी संख्या में उनके साथ भोजन पर बैठे। फरीसी और शास्त्री भुनभुना कर उनके शिष्यों से कहने लगे, “तुम लोग नाकेदारों और पापियों के साथ क्यों खाते-पीते हो? '' येसु ने उन्हें उत्तर दिया, “नीरोगों को नहीं, रोगियों को वैद्य की जरूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चात्ताप के लिए बुलाने आया हूँ।”

प्रभु का सुसमाचार।

📚 मनन-चिंतन

मनुष्यों की प्रवृत्ति है कि हम दूसरों का आकलन उनके जीवन-शैली, कार्यों, सामाजिक स्थिति और नैतिक मानकों के आधार पर करते हैं। हम कई बार दूसरों की गलतियाँ ढूंढ़ लेते हैं और उन्हें पापी या अयोग्य मानकर नकार देते हैं। इस तरह जब हम दूसरों का मूल्यांकन करते हैं, तो हमारे आपसी संबंध टूट जाते हैं और समाज में फूट उत्पन्न हो जाता हैं। इस प्रकार, हम आत्म-धर्मी दृष्टिकोण के जाल में फँस जाते हैं, जिससे हम कई लोगों से दूरी बना लेते हैं, विशेषकर उन लोगों से जिन्हें हम अपने से निम्न मानते हैं। ऐसे संदर्भ में आज का सुसमाचार हमें एक महत्वपूर्ण ख्रीस्तय मूल्य सिखाता है - दूसरों का सम्मान करना और उन्हें मानव गरिमा प्रदान करना।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु येसु लेवी को अपने मिशन में साथ चलने के लिए बुलाते हैं और अन्य कर वसूलने वालों और पापियों के साथ भोजन करते हैं। यह देखकर यहूदी जो स्वयं को धर्मी समझते थे, नाराज हो जाते हैं। येसु ने समाज के बहिष्कृतों, गरीबों, दलितों और पापियों के साथ मेल-मिलाप कर उस समय की अन्यायी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ दिया। प्रभु का स्वभाव यह दर्शाता है कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब, पापी हो या धर्मी, योग्य हो या अयोग्य - हर व्यक्ति ईश्वर के लिए मूल्यवान है और हर कोई ईश्वर की दया का पात्र है। प्रभु के लिए, मानवता और करुणा, धार्मिक अनुष्ठानों से बढ़कर हैं। इसलिए वे एक गहरा संदेश देते हैं, "निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की जरुरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।" (लूकस 5:31-32) आज प्रभु येसु हमारे सामने एक खुली चुनौती रखते हैं: हम दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? समाज के वंचित वर्गों के प्रति हमारा रवैया कैसा है? क्या हम सभी को ईश्वर की दृष्टि में समान मानने के लिए तैयार हैं?

ख्रीस्तीयों के रूप में, हमें दूसरों को सम्मान देने, उन्हें प्रेमपूर्वक अपनाने और दयालु बनने सीखना चाहिए। यदि हम अपने किसी भाई-बहन को पाप में फँसा हुआ देखते हैं, तो हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें प्रेम और करुणा के साथ पश्चाताप की ओर ले चलें, न कि उनका तिरस्कार करें। इस चालिसा काल में, आइए हम दयालु और क्षमाशील बनने का प्रयास करें। प्रभु हमें सच्ची मानवता, पश्चाताप और क्षमा का सही आत्मा प्रदान करें।

- ब्रदर तमिलअरसन (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

It is a human tendency to judge our fellow humans based on their life style, actions, social status and moral standards. Very often we are quick to judge and label others as sinners and good for nothing. When we are driven by our prejudices about others our interpersonal relationship is ruptured and wide divisions are created. In this way we get trapped into the clutches of self righteous attitudes which cause us to avoid many individuals or distance ourselves from those whom we consider lower than our standards and values. In such a context today's gospel teaches us a great Christian value to respect and treat others with due human dignity.

In today's gospel we find Jesus calling Levi to accompany him in his mission journey and takes a share in the meal with all other sinners and tax collectors which irritated the Jews - the self claimed righteous people. By mingling with the outcast, poor, marginalized and sinners Jesus broke down the unjust social order of that time which demonstrates that whether poor or rich, sinner or righteous, worthy or unworthy everyone is important for God, and everyone is in need of God's mercy. For Jesus, being human and showing mercy are above all other religious observances. Therefore he sends out a profound message, "those who are well have no need of a physician but those who are sick. I have come not to call the righteous but sinners to repentance."

Jesus today places a open challenge before us: how do we treat our fellow brethren? What is our attitude towards the less privileged in the society? Are we ready to accept everyone as equal as ourselves in the sight of God? As Christians, each of us is invited to treat others with dignity. If we find any of our brothers or sisters in any sinful situations, it is our responsibility to be kind towards them and lead them to repentance. During this Lenten season let us strive to be kind and merciful. May the good Lord grant us the right spirit of humanity, repentance, and forgiveness.

-Bro. Tamilarasan (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

जैसे ही हम इस पवित्र उपवास के मौसम में इकट्ठे होते हैं, आज का सुसमाचार लूकस 5:27-32 हमें ईश्वर की कृपा की परिवर्तनशील शक्ति और परिवर्तन के लिए निमंत्रण पर चिंतन करने का आह्वान करता है। इस अंश में, येसु लेवी, एक कर वसूलने वाले, से भेंट करते हैं, और एक क्रांतिकारी निमंत्रण देते हैं: ‘मेरा अनुसरण करो।’ येसु उन्हें चुनते हैं, जो हाशिये पर हैं, पापी हैं, और बाहरवाले हैं, हमें यह दिखाते हुए कि चालीसा काल हमारे लिए एक ऐसा समय है, जब हम उसके आह्वान का पालन करें, अपने पुराने तरीकों को छोड़कर और उसमें केंद्रित एक जीवन को अपनायें। लेवी येसु के आह्वान का एक बड़े दावत के साथ जवाब देते हैं, अपने साथियों को कर वसूलने वालों और पापियों को आमंत्रित करते हुए। यहां, हमें समावेश और करुणा के बारे में एक गहरा पाठ मिलता है। उपवास हमें उन लोगों के प्रति अपने दिलों को खोलने की चुनौती देता है, जो हाशिये पर हैं, याद करते हुए कि उनकी संगत में, येसु उपस्थित है। फरीसियों ने येसु के साथियों के चयन पर सवाल उठाया, लेकिन वह एक शक्तिशाली सत्य के साथ जवाब देते हैं, “निरोगों को नहीं, बल्कि बीमारों को वैद्य की ज़रूरत होती है।” उपवास हमारा अवसर है, अपनी आध्यात्मिक बीमारियों को पहचानने और येसु, दिव्य चिकित्सक, को हमें ठीक करने देने का। येसु कृपा के आह्वान के साथ समाप्त करते हैं, “मुझे दया चाहिए, न कि बलिदान।” उपवास के दौरान, हमारे बलिदानों के साथ-साथ दया के कार्य होने चाहिए, अपने और दूसरों के प्रति। आइए हम सुलह की तलाश करें, हमें जैसा माफ किया गया है, उसी तरह माफ करें, और जरूरतमंदों के प्रति करुणा बढ़ाएं। अपनी उपवास की यात्रा में, आइए हम लेवी के जवाब की गूंज करें, अपने पुराने स्वभाव को छोड़कर, उसके आह्वान को अनुसरण करने और उसके प्रेम और कृपा को सभी के साथ बांटने की कोशिश करें। यह मौसम एक गहरे परिवर्तन का समय हो, जो हमें मसीह के दिल के करीब ले जाए।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

As we gather in this sacred season of Lent, today’s Gospel from Luke 5:27-32 calls us to reflect on the transformative power of God's mercy and the invitation to conversion. In this passage, Jesus encounters Levi, a tax collector, and extends a radical invitation: ‘Follow me.’ Jesus chooses the marginalized, the sinner, and the outcast, showing us that Lent is a time for us to heed His call, leaving behind our old ways and embracing a life centered on Him. Levi responds to Jesus’ call with a great feast, inviting fellow tax collectors and sinners. Here, we find a profound lesson about inclusion and compassion. Lent challenges us to open our hearts to those on the margins, remembering that in their company, Jesus is present.

The Pharisees question Jesus’ choice of companions, but He responds with a powerful truth, “Those who are well do not need a physician, but those who are sick.” Lent is our opportunity to recognize our spiritual ailments and allow Jesus, the Divine Physician, to heal us.

Jesus concludes with a call to mercy, “I desire mercy, not sacrifice.” During Lent, our sacrifices should be accompanied by acts of mercy, both toward ourselves and others. Let us seek reconciliation, forgive as we are forgiven, and extend compassion to those in need.

In our Lenten journey, may we echo Levi’s response by leaving behind our old selves, embracing Jesus’ call to follow Him, and sharing His love and mercy with all. May this season be a time of profound conversion, drawing us closer to the heart of Christ.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-3

आज के सुसमाचार में येसु कर लेने वाले लेवी को अपने पीछे चलने के लिए बुलाते हैं। कर संग्राहकों को समाज द्वारा बहिष्कृत माना जाता था, क्योंकि उन्हें रोमन ठेकेदार के सहयोगी के रूप में देखा जाता था और वे अपने लालच और भ्रष्टाचार के लिए जाने जाते थे। इन सब के बावजूद, येसु लेवी को एक इंसान के रूप में देखते है और उसे अपने पीछे चलने के लिए कहते है।

आज का पद्यांष येसु के संदेश को एक स्वीकृति और क्षमा का संदेश के रूप अनुस्मरण करती है। येसु प्रत्येक व्यक्ति में मूल्य और महत्व को देखते है, भले ही उनका अतीत या उनकी वर्तमान परिस्थितियां कुछ भी हों। वे हमें उनका अनुसरण करने और दूसरों को उनकी पृष्ठभूमि या गलतियों की परवाह किए बिना स्वीकार करने और प्यार करने के लिए बुलाते है। यह एक अनुस्मारक है कि हर किसी को एक चिकित्सक, एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता होती है, और यह कि हर कोई प्रेम और स्वीकृति के योग्य है। इस चालीसाकाल में, हमें अपने कार्यों पर विचार करने के लिए बुलावा मिलता है, आइये हम खुद से पूछें कि हम ईश्वर और दूसरों के साथ अपने संबंधों में कहां कमी कर रहे हैं?

-फादर डेन्नीस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


In today’s gospel Jesus calls Levi, a tax collector, to follow him. Tax collectors were considered outcasts by society, as they were seen as collaborators with the Roman occupiers and were known for their greed and corruption. Despite this, Jesus sees Levi's value as a human being and calls him to follow him.

Today’s passage is a reminder that Jesus' message is one of acceptance and forgiveness. He sees the value and worth in every person, regardless of their past or their current circumstances. He calls us to follow him and to accept and love others, regardless of their backgrounds or mistakes. It is a reminder that everyone needs a physician, a savior, and that everyone is worthy of love and acceptance. In this Lenten season, we are called to reflect on our own actions, and ask ourselves where we have fallen short in our relationship with God and others.

-Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 4

धर्मग्रन्थ में हमें शिष्यों की बुलाहट के बारे में जो विवरण मिलता है, उससे हमें पता चलता है कि येसु ने लोगों को तब बुलाया जब वे अपनी आजीविका कमाने या अपना पेशा चलाने में व्यस्त थे। उन्होंने पेत्रुस, अन्द्रयस, याकूब और योहन को उस समय बुलाया जब वे मछली पकड़ रहे थे। प्रभु येसु ने लेवी को उस समय बुलाया, जब वे अपने चुंगीघर में व्यस्त थे। इन शिष्यों को अपने पेशे और येसु द्वारा दिये गये कार्य के बीच चुनाव करना पडा। जिन्हें येसु ने बुलाया था, वे बेरोज़गार और लक्ष्यहीन लोग नहीं थे। इसलिए उन्हें अपनी नौकरी या धन के रूप में दुनिया द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा को छोड़ना पड़ा। जो लोग ईश्वर को पाना चाहते हैं और उनका अनुसरण करना चाहते हैं, उन्हें अपने रिश्तेदारों, नौकरियों और संपत्ति को त्यागना पड़ता है। बाइबिल में दर्ज पहली बुलाहट में हम पाते हैं कि प्रभु ईश्वर ने इब्राहीम को अपने देश और अपने रिश्तेदारों और अपने पिता के घर को छोड़ कर उस देश में जाने के लिए कहा जो वे उन्हें दिखाने वाले थे (देखें उत्पत्ति 12:1)। प्रत्येक बुलाहट में हमेशा हमारे संबंधों और संपत्ति को त्यागने का एक तत्व होता है।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

From the descriptions we find in the Scripture about the call of disciples we realise that Jesus called people while they were busy with earning their livelihood or carrying out their profession. He called Peter, Andrew, James and John while they were on the job of fishing. He called Levi when he was busy in his tax office. These disciples had to make a choice between their professions and the vocation that Jesus offered to them. It was not unemployed and aimless people that Jesus called. Hence they had to give up the security that the world offered in the form of their job or of wealth. Those who want to find God and follow Him have to give up their relatives, jobs and possessions. With the first vocation recorded in the Bible, we find Abraham asked to “Go from your country and your kindred and your father’s house to the land that I will show you” (Gen 12:1). There is always an element of foregoing our connections and possessions in every vocation.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन-5

किसी व्यक्ति ने वास्तव में मसीह को स्वीकार कर लिया है या नहीं – इसे जानने के लिए हम दूसरों प्रति उसके दृष्टिकोण को देख सकते हैं। जिसने वास्तव में मसीह को स्वीकार कर लिया है वह दूसरों के प्रति दयालु प्रेम से प्रेरित होगा। वह किसी की निंदा नहीं करना चाहेगा, लेकिन सभी की मुक्ति की इच्छा रखेगा। वह किसी से भी नफरत नहीं करेगा बल्कि सभी से प्यार करेगा। येसु सभी लोगों पर दया करते हैं। ईश्वर “चाहता है कि सभी मनुष्य मुक्ति प्राप्त करें और सत्य को जानें” (1तिमथी 2: 4)। येसु इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, "ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे" (योहन 3:16)। जो लोग मसीह को स्वीकार करते हैं, उन्हें मसीह का मनोभाव अपनाना चाहिए। घृणा या निंदा का कोई स्थान नहीं है। वे दुनिया के सभी लोगों की मुक्ति के लिए कामना करते हैं, प्रार्थना करते हैं। ईश्वर पापियों के प्रति दयालु और करुणामय है। फरीसियों और सदूकियों ने अपने आत्म-धार्मिक व्यवहार में पापियों की निंदा की और उनसे दूर रहने की वकालत की। येसु पापियों को उन लोगों के रूप में देखते हैं जो बीमार हैं जिन्हें डॉक्टर द्वारा देखभाल की आवश्यकता है। आइए हम सभी लोगों के प्रति दयालु बनना सीखें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

One of the ways in which we can understand whether a person has really accepted Christ or not, is to look at his/ her attitude towards others. One who has really accepted Christ will be motivated by a compassionate love towards others. He/she would not want to condemn anyone but would want everyone to be saved. He/she would not hate anyone but would love everyone. Jesus looks with compassion on everyone. God “desires everyone to be saved and to come to the knowledge of the truth” (1Tim 2:4). Jesus makes it clear when he says, “For God so loved the world that he gave his only Son, so that everyone who believes in him may not perish but may have eternal life” (Jn 3:16). Those who accept Christ, have to have the same mind of Christ in them. There is no space for hatred or condemnation. They desire, work towards and pray for the salvation of all people in the world. God is compassionate and merciful towards sinners. The Pharisees and the Scribes in their self-righteous attitude condemned the sinners and advocated dissociation with them. Jesus sees the sinners as those who are sick who need the care of the doctor. Let us learn to be compassionate towards everyone.

-Fr. Francis Scaria