[योआकिम नामक व्यक्ति बाबुल का निवासी था। उसका बिवाह हिलकीया की पुत्री सुसन्ना से हुआ था। वह अत्यन्त सुन्दर और प्रभु-भक्त थी, क्योंकि उसके माता-पिता धार्मिक थे और उन्होंने अपनी पुत्री को मूसा की संहिता के अनुसार पढ़ाया-लिखाया था। योआकिम बहुत धनी था और उसके घर से लगी हुई उसके एक सुन्दर वाटिका थी। यहूदी उसके यहाँ आया-जाया करते थे, क्योंकि वह उन में सब से अधिक प्रतिष्ठित था। उस वर्ष लोगों ने जनता में से दो नेताओं को न्यायकर्त्ताओं के रूप में नियुक्त किया था। उनके विषय में प्रभु ने कहा था, “बाबुल में अधर्म उन नेताओं से प्रारंभ हुआ, जो न्यायकर्त्ता थे और जनता का शासन करने का ढोंग रचते थे।” वे योआकिम के यहाँ आया करते थे और जिनका कोई मुकदमा रहता वे सब उनके पास आते थे। जब दोपहर के समय लोग चले जाते, तो सुसन्ना अपने पति की वाटिका में टहलने आया करती थी। दोनों नेता उसे प्रतिदिन वाटिका में घुमते और टहलते देखते थे और उन में सुसन्ना के लिए प्रबल काम-वासना उत्पन्न हुई। उनका मन इतना विकृत हो गया हे कि उन्होंने स्वर्ग की ओर नहीं देखा और नैतिकता के नियम भुला दिये। वे उपयुक्त अवसर की ताक में ही थे कि सुसन्ना दो नौकरानियों के साथ अपनी आदत के अनुसार वाटिका में घुस गयी। उस दिन बहुत गरमी थी, इसलिए वह स्नान करना चाहती थी। उन दोनों नेताओं को छोड़ कर, जो छिप कर उसे ताक रहे थे, वहाँ कोई नहीं था। उसने अपनी नौकरानियों से कहा, "जा कर तेल और मरहम ले आओ और वाटिका का फाटक बन्द कर दो जिससे मैं स्नान कर सकूँ।” नौकरानियाँ बाहर गयी ही थी कि दोनों नेता उठ कर सुसन्ना के पास दौड़ते हुए आये और उस से बोले, “देखो, वाटिका का फाटक बन्द है, कोई भी हमें नहीं देखता। हम तुम पर आसक्त हैं। हमारे साथ रमण करना स्वीकार करो, नहीं तो हम तुम्हारे विरुद्ध यह साक्ष्य देंगे कि कोई युवक तुम्हारे साथ था और इसलिए तुमने अपनी नौकरानियों को बाहर भेज दिया।” सुसन्ना ने आह भर कर कहा, “मुझे कोई रास्ता नहीं दिखता। यदि मैं ऐसा करूँगी, तो प्राणदण्ड के योग्य हो जाऊँगी। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगी, तो आपके हाथों से नहीं बच पाउँगी। फिर भी प्रभु के सामने पाप करने की अपेक्षा निर्दोष ही आपके हाथों पड़ जाना मेरे लिए अच्छा है। इस पर सुसन्ना ऊँचे स्वर से चिल्लाने लगी, किन्तु दोनों नेता उसके विरुद्ध चिल्लाने लगे और उन में से एक ने दौड़ कर वाटिका का फाटक खोल दिया। जब घर के लोगों ने वाटिका में चिल्लाने की आवाज सुनी, तो यह देखने के लिए कि सुसन्ना को क्या हुआ, वे दौड़ते हुए आये और पार्श्व फाटकसे वाटिका में प्रवेश कर गये। जब नेताओं ने अपना बयान दिया, तो नौकरों को बड़ा धक्का लग गया; क्योंकि सुसन्ना पर इस प्रकार का अभियोग कभी नहीं लगाया गया था। दूसरे दिन, जब जनता उसके पति योआकिम के यहाँ एकत्र हो गयी थी, तो वे दुष्ट नेता सुसन्ना को प्राणदण्ड दिलाने का षड्यंत्र रच कर आ पहुँचे। उन्होंने जनता के सामने कहा। “हिलकीया की पुत्री, योआकिम की पत्नी, सुसन्ना को बुला भेजो।” लोगों ने उसे बुला भेजा। वह अपने माता-पिता, अपने बच्चों और अपने सब कुटुम्बियों के साथ आयी। उसके संबंधी और जितने भी लोग उसे देखते थे, वे सब के सब रोते थे। उन दो नेताओं ने सभा में खड़े हो कर उसके सिर पर अपने हाथ रख दिये। वह रोती हुई स्वर्ग की ओर देखती रही; क्योंकि उसका हृदय ईश्वर पर भरोसा रखता था। नेताओं ने यह कहा, “जब हम अकेले वाटिका में टहल रहे थे, तो यह दो नौकरानियों के साथ वाटिका में आयी। इसने वाटिका का फाटक बन्द करा दिया और नौकरानियों को बाहर भेजा। तब एक युवक, जो छिपा हुआ था, पास आ कर इसके साथ लेट गया। हम वाटिका के एक कोने से यह पाप देख कर दौड़ते हुए उनके पास आये और हमने दोनों को रमण करते देखा। हम उस युवक को नहीं पकड़ पाये; क्योंकि वह हम से बलवान् था और वाटिका का फाटक खोल कर भाग गया। हमने इसे पकड़ लिया और पूछा कि वह युवक कौन है, किन्तु इसने उसका नाम बताना अस्वीकार किया। हम इन बातों के साक्षी हैं।” सभी ने उन पर विश्वास किया, क्योंकि वे नेता और न्यायकर्त्ता थे।]
लोगों ने सुसन्ना को प्राणदण्ड की आज्ञा दी। इस पर सुसन्ना ने ऊँचे स्वर से पुकार कर कहा, “हे शाश्वत ईश्वर! तू सब रहस्य और भविष्य में होने वाली घटनाएँ जानता है। तू जानता है कि इन्होंने मेरे विरुद्ध झूठी गवाही दी है। इन्होंने जिन बुरी बातों का अभियोग मुझ पर लगाया है, मैंने उन में से एक भी नहीं किया - फिर भी मुझे मरना होगा।” ईश्वर ने उसकी सुन ली। जब लोग उसे प्राणदण्ड के लिए ले जा रहे थे, तो ईश्वर ने दानिएल नामक युवक में एक दिव्य प्रेरणा उत्पन्न की। वह पुकार कर कहने लगा, “मैं इसके रक्त का दोषी नहीं हूँ।” इस पर सब लोग उसकी ओर देखने लगे और बोले, “तुम्हारे कहने का अभिप्राय क्या है?” उसने उन में खड़ा हो कर कहा, “हे इस्राएलियो! आप लोगों की बुद्धि कहाँ है, जो आप जाँच और पूरी जानकारी के बिना इस्राएल की पुत्री को प्राणदण्ड देते हैं। आप न्यायालय लौट जायें, क्योंकि इन्होंने इसके विरुद्ध झूठी गवाही दी है।” इस पर लोग तुरन्त लौट गये” और नेताओं ने दानिएल से कहा, “आइए, हमारे बीच बैठिए और हमें अपनी बात बताइए; क्योंकि ईश्वर ने आप को नेताओं जैसा अधिकार प्रदान किया है।” दानिएल ने उन से कहा, “इन दोनों को एक दूसरे से अलग कर दीजिए और मैं इन से पूछ-ताछ करूँगा।” जब दोनों को अलग कर दिया गया, तो दानिएल ने एक को बुला कर उस से कहा, “अधर्म करते-करते तेरे बाल पक गये हैं। अब तुझे अपने पुराने पापों का दण्ड मिलने वाला है। तू निर्दोषों को दण्ड दे कर और दोषियों को निर्दोष ठहरा कर अन्यायपूर्वक विचार किया करता था, जब कि प्रभु ने कहा है - तुम निर्दोष और धर्मी को प्राणदण्ड नहीं दोगे। अब, यदि तूने इसे देखा, तो हमें बता कि तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को एक साथ देखा।” उसने उत्तर दिया, “बाबुल के नीचे।'” दानिएल ने कहा, “इतना बड़ा भूठ बोल कर तूने अपना सिर गँवा दिया है! ईश्वर के दूत को ईश्वर से यह आदेश मिल चुका है कि वह तुझे दो टुकड़े कर दे।” दानिएल ने उसे ले जाने की आज्ञा दे कर दूसरे को बुला भेजा और उस से कहा : “तू यूदा का नहीं, कनान की सन्तान है। सौन्दर्य ने तुझे पथभ्रष्ट किया और वासना ने तेरा हदय दूषित कर दिया है। तुम लोग इस्राएल की पुत्रियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते थे और वे डर के मारे तुम्हारा अनुरोध स्वीकार करती थीं। किन्तु यह यूदा की पुत्री है, जो तुम्हारे अधर्म के सामने नहीं झुकी है। तो, मुझे बता - तूने किस वृक्ष के नीचे दोनों को साथ देखा?” उसने उत्तर दिया, “बलूत के नीचे।” इस पर दानिएल ने कहा, “तूने भी इतना बड़ा झूठ बोल कर अपना जीवन गँवा दिया है! ईश्वर का दूत, हाथ में तलवार लिये प्रतीक्षा कर रहा है। वह तुझे दो टुकड़े कर देगा और तुम दोनों का सर्वनाश करेगा।” तब समस्त सभा ऊँचे स्वर से जयकार करते हुए ईश्वर की स्तुति करने लगी, जो अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता है। दानिएल ने उनके अपने शब्दों द्वारा दोनों नेताओं की गवाही असत्य प्रमाणित की थी, इसलिए लोग उन पर टूट पड़े और उन्होंने मूसा की संहिता के अनुसार उन दुष्टों को वह दण्ड दिया, जिसे वे अपने पड़ोसी को दिलाना चाहते थे, और लोगों ने दोनों का वध कर डाला।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना ही क्यों न पड़े, द मुझे किसी अनिष्ट की आशंका नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है।
प्रभु मेरा चरवाहा है। मुझे किसी बात की कमी नहीं। वह मुझे हरे मैदानों में चराता है। वह मुझे विश्राम के लिए जल के निकट ले जा कर मुझ में नवजीवन का संचार करता है।
2. वह अपने नाम का सच्चा है, वह मुझे धर्म-मार्ग पर ले चलता है। चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना ही क्यों न पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की आशंका नहीं; क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। तेरी लाठी, तेरे डण्डे पर मुझे भरोसा है।
3. तू मेरे शत्रुओं के देखते-देखते मेरे लिए खाने की मेज सजाता है। तू मेरे सिर पर तेल का विलेपन करता है। तू मेरा प्याला लबालब भर देता है।
4. इस प्रकार तेरी भलाई और तेरी कृपा से मैं जीवन भर घिरा रहता हूँ। प्रभु का मंदिर ही मेरा घर है; मैं उस में अनन्तकाल तक निवास करूँगा।
प्रभु कहता है, “मैं पापी की मृत्यु से नहीं, बल्कि इस से प्रसन्न हूँ कि वह पश्चात्ताप करे और अनन्त जीवन प्राप्त करे।”
येसु जैतून पहाड़ चले गये और वह बड़े सबेरे फिर मंदिर आये। सारी जनता उनके पास इकट्ठी हो गयी थी और वह बैठ कर लोगों को शिक्षा दे रहे थे। उस समय शास्त्री और फरीसी व्यभिचार में पकड़ी गयी एक स्त्री को ले आये और उसे बीच में खड़ा कर, उन्होंने येसु से कहा, “गुरुवर! यह स्त्री व्यभिचार करते हुए पकड़ी गयी है। संहिता में मूसा ने हमें ऐसी स्त्रियों को पत्थरों से मार डालने का आदेश दिया है। आप इसके विषय में क्या कहते हैं?” उन्होंने येसु की परीक्षा लेते हुए यह कहा, जिससे उन्हें उन पर दोष लगाने का कोई आधार मिल जाये। येसु झुक कर उँगली से भूमि पर लिखते रहे। जब वे उन से उत्तर देने के लिए आग्रह करते रहे, तो येसु ने सिर उठा कर उन से कहा, “तुम में से जो निष्पाप हो, वही सब से पहले इसे पत्थर मारे।” और वह फिर झुक कर भूमि पर लिखने लगे। यह सुन कर बड़ों से ले कर छोटों तक, सब के सब, एक-एक करके खिसक गये। येसु अकेले रह गये और वह स्त्री बीच में खड़ी रही। तब येसु ने सिर उठा कर उस से कहा, “नारी! वे लोग कहाँ है? क्या एक ने भी तुम्हें दण्ड नहीं दिया?” उसने उत्तर दिया, “महोदय! एक ने भी नहीं। इस पर येसु ने उस से कहा, “मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब से फिर पाप नहीं करना।”
प्रभु का सुसमाचार।
येसु ने फिर लोगों से कहा; “संसार की ज्योति मैं हूँ। जो मेरा अनुसरण करता है, वह अंधकार में भटकता नहीं रहेगा, उसे जीवन की ज्योति प्राप्त होगी।” फरीसियों ने उन से कहा, “आप अपने विषय में साक्ष्य देते हैं। आपका साक्ष्य मान्य नहीं है।” येसु ने उत्तर दिया, “मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ। फिर भी मेरा साक्ष्य मान्य है, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। परन्तु तुम लोग नहीं जानते कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। तुम मनुष्य की दृष्टि से न्याय करते हो। मैं किसी का न्याय नहीं करता और यदि न्याय भी करूँ, तो मेरा निर्णय सही होगा, क्योंकि मैं अकेला नहीं हूँ। जिसने मुझे भेजा है, वह मेरे साथ है। तुम लोगों की संहिता में लिखा है कि दो व्यक्तियों का साक्ष्य मान्य है। मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ और पिता भी, जिसने मुझे भेजा है, मेरे विषय में साक्ष्य देता है।” इस पर उन्होंने येसु से कहा, “कहाँ है आपका वह पिता?” उन्होंने उत्तर दिया, “तुम लोग न तो मुझे जानते हो और न मेरे पिता को। यदि तुम मुझे जानते, तो मेरे पिता को भी जान जाते।” येसु ने मंदिर में शिक्षा देते हुए यह सब खजाने के पास कहा। किसी ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया, क्योंकि अब तक उनका समय नहीं आया था।
प्रभु का सुसमाचार।
‘‘उनका मन इतना विकृत हो गया कि उन्होंने स्वर्ग की ओर नहीं देखा और नैतिकता के नियम भुला दिये (दानिएल 13:9)।‘‘
आज के दोनों ही पाठ हमें एक बात की ओर इंगित करते हैं वो है ‘स्वर्ग‘। संसार भर के सभी धर्मों में और हमारे ख्रीस्तीय धर्म में भी यही धारणा है कि ईश्वर ऊपर है। इसका मतलब ये नहीं कि ईश्वर केवल ऊपर है। हम जानते हैं ईश्वर सर्वव्यापी है उसकी उपस्थित सर्वत्र है। तो वास्तव में इसका क्या अभिप्राय है? इसे हम इन चार बिंदुओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे-
1. स्वर्ग की ओर देखना अर्थात् ईश्वर को याद करना
2. ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को स्वीकार करना
3. इस लौकिक जीवन से अलौकिक जीवन की ओर प्रस्थान करना
4. अंधकार से ज्योति की ओर बढ़ना।
ये चारों बिन्दु इस बात पर बल देते हैं कि ईश्वर में विश्वास और उसके प्रति भय हमें न केवल एक नैतिक प्राणी बनाता है अपितु हमें एक धार्मिक जीवन जीने में मदद करता है। लेकिन जब कभी हमारा मन कुण्ठित हो जाता है, हम पाप में जीवन जीते हैं ऐसी स्थिति में हम ईश्वर को भूल जाते हैं और पाप हमें केवल सांसारिक वस्तुओं में लिप्त रखता है। हम ईश्वर की ओर दृष्टि नहीं लगाते, जैसा कि आज के पाठ में दो न्यायकर्ताओं ने कामवासना से वसीभूत होकर नैतिकता के सारे नियम भुला दिये। स्तोत्रकार हमें बताते हैं कि ईश्वर की ओर दृष्टि लगाओ, आनंदित हो और तुम फिर कभी निराश नहीं होगे (स्तोत्र 34:5)। आज हमें प्रभु की ओर दृष्टि लगाने की आवश्यकता है ताकि हम ईश्वरीय कृपा में जीवन जी सकें।
✍ - फादर संजय परस्ते (इन्दौर धर्मप्रान्त)
"They suppressed their consciousness and turned away their eyes from looking to Heaven or remembering their duty to administer justice” (Daniel 13:9).
Both the readings of today point us towards one thing i.e. heaven. In all the religions of the world and in our Christian religion also, there is this belief that God is above. This does not mean that God is only above. We know that God is omnipresent, his presence is everywhere. So, what does this really mean? We will try to understand this through these four points-
1. Looking towards heaven means remembering God
2. Accepting the omnipotence of God
3. To depart from this worldly life to the supernatural life
4. Moving from darkness to light.
All these four points emphasize that faith in God and fear of Him not only makes us a moral being but also helps us to live a righteous life. But whenever our mind is corrupted, we live in sin in such a situation we forget God and sin keeps us involved in worldly things only. We do not look towards God, as in today's reading the two judges were overcome by lust and forgot all the rules of morality. The Psalmist tells us “Look to him, and be radiant; so your faces shall never be ashamed” (Psalm 34:5). Today we need to look to the Lord so that we can live in divine grace.
✍ -Fr. Sanjay Paraste (Indore Diocese)
एक सच सच ही रहता है, भले ही पूरी दुनिया उसके खिलाफ हो और एक झूठ झूठ ही रहता है, भले ही पूरी दुनिया उसके साथ खड़ी हो।
सुसन्ना एक ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाली महिला थी। उसने एक प्रलोभन के दौरान भी ईमानदारी और पवित्रता का जीवन जिया था और सार्वजनिक रूप से गलत समझी जाने के खतरे के बावजूद भी उसने मदद के लिए स्वर्ग की ओर देखना चुना और अपने नैतिक आधार पर खड़ी रही। उस पर मुकदमा चलाया गया और उसे मौत की सजा सुनाई गई लेकिन ईश्वर "जो न कभी सोता है और न ही झपकी लेता है" ने उसे याद किया और उसे इस गंदे मामले से बाहर निकाला। ईश्वर ने न केवल उसकी रक्षा की बल्कि उसकी सत्यनिष्ठा को भी इस प्रसंग से प्रकट किया। हम सभी सुसन्ना जैसी स्थिति का सामना करते हैं ताकि दबाव में आकर बुराई के आगे घुटने टेक दिए जा सकें। हमें सुसन्ना की तरह याद रखना चाहिए कि मदद और सुरक्षा के लिए स्वर्ग की ओर देखना चाहिए।
परमेश्वर अपने वचनों के प्रति सच्चे हैं जो हमें उनकी सुरक्षा और सहायता का वादा करते हैं। इसमें समय लगता है और कभी-कभी मुद्दे किनारे हो जाते हैं लेकिन हमें निराश नहीं होना चाहिए। सुसन्ना का मुकदमा वास्तव में समाप्त हो चुका था और फैसला उसके खिलाफ था। परन्तु परमेश्वर ने दानिय्येल को इस अवसर पर उठने के लिए प्रेरित किया। सर्वोच्च ईश्वर ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है, वह "स्वर्ग से नीचे देखता है कि क्या कोई है जो उसकी इच्छा चाहता है" अपने पवित्र लोगों की सहायता के लिए आएगा। हमें परमेश्वर के साथ सही रहना चाहिए और सही काम करते रहना चाहिए और परमेश्वर का सम्मान करना चाहिए। परमेश्वर हमें ठीक करेगा और हमें पुनर्स्थापित करेगा।✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
A truth remains truth even if the whole world is against it and a lie remains a lie even if the whole world stands with it. Susanna was a God-fearing woman. She had lived a life of integrity and piety even in the wake of a temptation and fear of being wrong publicly blamed she chose to look to heaven for help and stood her moral ground. She underwent trial and was sentenced to death but God “who never slumbers nor sleep” remembered her and brought her out of this messy affair. God not only protected her but also made her integrity known by this episode. We all face situation like Susanna to give into the pressure and succumb to evil. We must remember like Susanna to look to heaven for help and protection. God is true to his words that promises us his protection and help. It takes time and sometimes the issues go to the edge but we must not get discouraged. Susanna’s trial had in fact being concluded and verdict was against her. But God inspired Daniel to rise to the occasion. The most high God controls the universe he “Stoops down from heaven and looks down if there is anyone who seek his will” would come to the aid of his holy ones. We need to be upright with God and keep doing the right things and honoring God. God would rescue and restore us.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
बहुत बार हम दूसरों का न्याय करने और उनकी निंदा करने को तत्पर रहते हैं, जबकि हमारी भी कई कमियाँ हैं। हम सभी पापी हैं, अंतर इस में है कि हम किस तरह के पाप करते हैं। सुसमाचार में हम उन लोगों को देखते हैं जो व्यभिचार में पकड़ी गयी एक महिला पर मूसा के नियमों के अनुसार दोष लगाकर उसको पत्थरों को मार डालने पर उतारू हैं। वे इस बात को छिपा रहे थे कि वे स्वयं मूसा के ही कई नियमों को तोडने के दोषी थे। वे उसे मार डालना चाहते थे। उन्होंने मूसा के कानून को पूरा करने का दावा किया। लेकिन वे मूसा के कानून को अपने ऊपर लागू करने के लिए तैयार नहीं थे। वे भी कई मामलों में निंदनीय और दोषी थे। भीड़ द्वारा पकड़ी गई महिला बहुत कमजोर और असहाय थी।
जब उसे प्रभु येसु के पास लाया गया, तो उसने शायद कभी नहीं सोचा था कि येसु जैसा व्यक्ति उसे मुक्त कर देगा। येसु मूसा के कानून को भली भाँति जानते थे और उनके एक शब्द पर भीड़ निर्दयता से उसे मार डालती। लेकिन येसु ने न्याय करने और उसकी निंदा करने से इनकार कर दिया, हालाँकि उन्हें ही उसे निंदा करने का अधिकार था। येसु उसकी निंदा कर सकते थे क्योंकि वे स्वयं ईश्वर हैं जिसका सभी मनुष्यों पर अधिकार है। इसके अलावा, येसु वहां मौजूद एकमात्र निष्पाप व्यक्ति थे। कमजोर और असहाय महिला पर कठोर होने के बजाय, येसु ने हिंसक भीड़ की ओर रुख किया और उसने उन्हें यह कहते हुए आईने में देखने को मजबूर किया, "तुम में जो निष्पाप हो, वह इसे सब से पहले पत्थर मारे"। प्रभु ने यह नहीं कहा कि आप में से जितने लोग निष्पाप हैं, वे सब उसे पत्थर मार सकते हैं। लेकिन प्रभु को मालूम था कि उन में एक भी निष्पाप नहीं था। वे अपने वचन से उन सभी लोगों को स्वयं के भीतर देखने और अपनी कमियों को महसूस करने के लिए मजबूर किया। हालाँकि प्रभु उस महिला को माफ करने के लिए दयालु अवश्य थे, वे उसे बताने में असफल नहीं हुए, "फिर से पाप मत करो"। पाप-क्षमा किसी को भी फिर से पाप करने की छूट नहीं देती है।
संत योहन कहते हैं, “यदि हम कहते हैं कि हम निष्पाप हैं, तो हम अपने आप को धोखा देते हैं और हम में सत्य नहीं है। यदि हम अपने पाप स्वीकार करते हैं, तो वह हमारे पाप क्षमा करेगा और हमें हर अधर्म से शुद्ध करेगा; क्योंकि वह विश्वसनीय तथा सत्यप्रतिज्ञ है। यदि हम कहते हैं कि हमने पाप नहीं किया है, तो हम उसे झूठा सिद्ध करते हैं और उसका सत्य हम में नहीं है।”
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Very often we are quick to judge and condemn others, while we ourselves have many shortcomings. All of us are sinners, the difference is in the kind of sin we commit. In the Gospel we find people quick to condemn a woman caught in adultery without realising that they themselves can be condemned on many counts. They wanted to stone her to death. They claim to carry out the Law of Moses. But they were not willing to apply the Law of Moses to themselves. They too stood condemnable and culpable on many counts. The woman caught by the crowd was very vulnerable and helpless.
When she was brought to Jesus, she probably never imagined a person like Jesus would let her go free. Jesus knew the Law of Moses and at a word from him the crowd would have mercilessly killed her. But Jesus refused to judge and condemn her, although he alone had the right to condemn. Jesus could condemn her because he is God who has authority over all human beings. Added to that, Jesus was the only sinless person present there. Instead of being hard on the vulnerable and helpless woman, Jesus turned to violent crowd and he forced them to look at the mirror telling them, “Let anyone among you who is without sin be the first to throw a stone at her”. They were forced to look at their own inner self and realize their shortcomings. Although Jesus was merciful to forgive her, he did not fail to tell her, “do not sin again”.
St. John says, “If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us. If we confess our sins, he who is faithful and just will forgive us our sins and cleanse us from all unrighteousness. If we say that we have not sinned, we make him a liar, and his word is not in us.” (1Jn 1:8-10)
✍ -Fr. Francis Scaria