चालीसे का पाँचवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ

गणना-ग्रन्थ 21:4-9

“जब किसी को साँप काटता था तो वह काँसे के साँप की ओर दृष्टि डाल कर अच्छा हो जाता था।”

यात्रा करते-करते लोगों का धैर्य टूट गया और वे यह कहते हुए ईश्वर और मूसा के विरुद्ध भुनभुनाने लगे, “आप हमें मिस्र देश से निकाल कर यहाँ मरुभूमि में मरने के लिए क्यों ले आये हैं? यहाँ न तो रोटी मिलती है और न पानी। हम इस रूखी-सूखी भोजन से ऊब गये हैं।” प्रभु ने लोगों के बीच विषैले साँप भेजे; और उनके दंश से बहुत-से इस्राएली मर गये। तब लोग मूसा के पास आये और बाले, “हमने पाप किया। हम प्रभु के विरुद्ध और आपके विरुद्ध भुनभुनाये। प्रभु से प्रार्थनथा कीजिए कि वह हमारे बीच में से साँपों को हटा दे।” मूसा ने जनता के लिए प्रभु से प्रार्थना की और प्रभु ने मूसा से कहा, “काँसे का साँप बनवाओ और उसे डण्डे पर लगाओ। जो साँप द्वारा काटा गया, वह उसकी ओर दृष्टि डाले और वह अच्छा हो जायेगा।” मूसा ने काँसे का साँप बनवाया और उसे डण्डे पर लगा दिया। जब किसी को साँप काटता था तो वह काँसे के साँप की ओर दृष्टि डाल कर अच्छा हो जाता था ।

प्रभु की वोणी।

भजन : स्तोत्र 101:2-3,16-21

अनुवाक्य : हे प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन! मेरी दुहाई तेरे पास पहुँचे।

1. हे प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन। मेरी दुहाई तेरे पास पहुँचे। संकट के समय तू मुझ से अपना मुख न छिपा, मैं तुझे पुकारता हूँ। तू झुक कर शीघ्र ही मेरी सुन।

2. जब प्रभु सियोन का पुनर्निमण करेगा और अपनी सम्पूर्ण महिमा में प्रकट हो जायेगा, तब सभी राष्ट्र उसके नाम पर श्रद्धा रखेंगे और पृथ्वी के समस्त राजा उसके प्रताप के सामने झुकेंगे। वह दीन-दुःखियों की प्रार्थना सुनेगा, वह उनकी प्रार्थनाओं का तिरस्कार नहीं करेगा।

3. भावी पीढ़ी के लिए यह लिखा जाये, ताकि नवीन राष्ट्र प्रभु की स्तुति करें। प्रभु ने अपने ऊँचे तथा पवित्र स्थान से झुक कर देखा और स्वर्ग से पृथ्वी पर दृष्टि दौड़ायी, जिससे वह बंदियों की कराह सुने और मरने वालों को छुड़ा ले।

जयघोष

बीज ईश्वर का वचन है। बोने वाला मसीह है। जो यह बीज पाता है, वह सदा जीवित रहता है।

सुसमाचार

योहन के अनुसार पवित्र सुसमाचार 8:21-30

“जब तुम लोग मानव पुत्र को ऊपर उठाओगे, तो यह जान जाओगे कि मैं वही हूँ।”

येसु ने फरीसियों से कहा, “मैं जा रहा हूँ। तुम लोग मुझे ढूँढ़ोगे, किन्तु तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे। मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ नहीं आ सकते।” इस पर यहूदियों ने कहा, “कहीं यह आत्महत्या तो नहीं करेगा? यह तो कहता है - मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ नहीं आ सकते।” येसु ने उन से कहा, “तुम लोग नीचे के हो, मैं ऊपर का हूँ। तुम इस संसार के हो, मैं इस संसार का नहीं हूँ। इसलिए मैंने तुम से कहा कि तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे। यदि तुम विश्वास नहीं करते कि मैं वही हूँ, तो तुम पाप की स्थिति में मर जाओगे।” तब लोगों ने उन से पूछा, “आप कौन हैं?” येसु ने उत्तर दिया, “इसके विषय में तुम लोगों से और क्या कहूँ? मैं तुम लोगों को बहुत-सी बातों में दोषी ठहरा सकता हूँ। किन्तु मैं संसार को वही बताता हूँ जो मैंने उस से सुना है, जिसने मुझे भेजा है, क्योंकि वह सच्चा है।” वे नहीं समझ रहे थे कि वह उन से पिता के विषय में कह रहे हैं। इसलिए येसु ने कहा, “जब तुम लोग मानव पुत्र को ऊपर उठाओगे, तो यह जान जाओगे कि मैं वही हूँ और मैं अपनी ओर से कुछ नहीं करता। मैं जो कुछ कहता हूँ, वैसे ही कहता हूँ, जैसे पिता ने मुझे सिखाया है। जिसने मुझको भेजा है, वह मेरे साथ है। उसने मुझे अकेला नहीं छोड़ा, क्योंकि मैं सदा वही करता हूँ जो उसे अच्छा लगता है।” बहुतों ने उन्हें यह सब कहते सुन कर उन में विश्वास किया।

प्रभु का सुसमाचार।

📚 मनन-चिंतन

आज के पाठों में हम मुख्य रुप से दो बातों को पाते हैं - 1. लोगों का धैर्य टूट गया 2. भुनभुनाने लगे।

1. लोगों का धैर्य टूट गयाः हम में से हर कोई कभी न कभी निराशा और असहायपन जरुर महसूस किया है और ऐसी परिस्थिति में सबसे पहले हम अपना धैर्य और संयम खो बैठते हैं। कुछ इसी प्रकार की स्थिति आज हम इस्राएली जनता के साथ पाते हैं। यात्रा के दौरान विभिन्न परेशानियों का सामना करने के कारण मानवीय दृष्टिकोण से देखें तो उनका धैर्य टूटना स्वाभाविक है। यहाँ पर धैर्य टूटना उनके विश्वास की कमी को दर्शाता है । उन्हें अब केवल मरुभूमि ही नजर आता है, वह ईश्वर जो उन्हें मिस्र की दासता से मुक्त किया था, लाल सागर पार कराया था अब उनकी दृष्टि से ओझल है वे ईश्वर के सभी भले कार्यों को भूल गये। हमारे साथ भी ऐसा ही होता है जब हम अत्याचार, कष्ट एवं परेशानी में होते हैं हम टूट जाते हैं। लेकिन प्रभु का वचन हमें याद दिलाता है कि जो अंत तक धीर बने रहता है उसी को मुक्ति प्राप्त होगी (मत्ती 24:13)।

2. वे भुनभुनाने लगेः दूसरी बात हमें देखने को मिलता है वह है, वे भुनभुनाने लगते हैं। ये एक गम्भीर बात है हम इसे हल्के में नहीं ले सकते, पवित्र बाइबिल में हमें इसके गम्भीर परिणामों के बारे में पढ़ने को मिलता है। यह पहली मरतब नहीं है जब इस्राएली जनता मूसा के विरुद्ध भुनभुनाते हैं। इसके पहले भी निर्गमन ग्रन्थ 16::2 में उन्होंने मूसा और हारुन के विरुद्ध भोजन नहीं मिलने पर भुनभुनाये थे। न केवल पुराने विधान में बल्कि नये विधान में भी हम इसके बारे में पढ़ते हैं जहाँ दाखबारी में काम करने वाले मजदूर भूमिधर के विरुद्ध भुनभुनाते हैं कि वह उनके साथ अन्याय कर रहा है (मत्ती 20:11)। इन सभी घटनाओं के माध्यम से हमें ये सीखने को मिलता है कि भुनभुनाना, शिकायत करना, चुगली करना इत्यादि ईश्वर को प्रिय नहीं है और हमें इनसे छुटकारा पाने की आवश्यकता है। सुसमाचार में प्रभु येसु हमें ऊपर की चीजों की खोज करने को कहते हैं अर्थात् हमें सांसारिक नहीं बल्कि ईश्वर सम्बंधी बातों में लगे रहना है जिससे कि हम इन पापों से बच सकें।

- फादर संजय परस्ते (इन्दौर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

In today's readings we find mainly two things. 1. People lost their patience. 2.They started Grumbling.

1. People lost their patience: Every one of us has felt hopeless and helpless at some point of time and in such a situation the first thing we do is to lose our patience and self-control. We find a similar situation today with the Israelites. From a human point of view, it is natural for them to lose their patience because of the various difficulties they faced during the journey. Here losing patience shows their lack of faith. They now see only the desert, the God who freed them from the slavery of Egypt, helped them cross the Red Sea is now out of their sight, they have forgotten all the good works of God. The same thing happens with us when we are in oppression, suffering and trouble, we lose our patience. But the word of the Lord reminds us that only he who perseveres till the end will be saved (Matthew 24:13).

2. They started grumbling: The second thing to be noticed is, they started grumbling. This is a serious thing that we cannot take lightly, in the Holy Bible we read about its serious consequences. This is not the first time when the Israelites grumble against Moses. Earlier also in Exodus 16:2 they grumbled against Moses and Aaron for not getting food. Not only in the Old Testament but also in the New Testament we read about it where the workers working in the vineyard grumble against the landlord that he is doing injustice to them (Matthew 20:11).

Through all these incidents we learn that grumbling, complaining, backbiting etc. are not liked by God and we need to get rid of them. In the Gospel, Lord Jesus tells us to seek the things that are above, which means we should remain engaged in Godly things and not worldly things so that we can avoid these sins.

-Fr. Sanjay Paraste (Indore Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

कभी-कभी हम हमारा धैर्य खो बैठते हैं। कठिन परिस्थितियों में हमारी सहनशीलता की भावना कमजोर हो जाती हैं। परिणाम यह होता है कि हम क्रोधित होते हैं और एक दूसरे के विरूद्ध भुनभुनाने लगते हैं। इस्त्राएली लोग भी मरूभूमि में लम्बी यात्रा और बिना भोजन एवं पानी के कारण परेशान हो चुके थे। इसलिए वे ईश्वर और मूसा के विरूद्ध भुनभुनाने लगते हैं। ईश्वर के विरूद्ध भुनभुनाने का परिणाम यह होता है कि वे विषैले सापों के शिकार हये। मूसा ने जनता के लिए प्रभु से प्रार्थना की। ईश्वर के कहने पर मूसा ने कांसे का साँप बनवाया और ड़ण्ड़े पर लगाया, जो भी सांप द्वारा काटा गया, उसने उसकी ओर दृष्टि ड़ाली और चंगा हो गया।

फरीसियों और यहूदी नेताओं को भी येसु के विरूद्ध भुनभुनाने की आदत लग चुकी थी। येसु के बार -बार समझाने पर भी वे उनकी बातों को समझने को तैयार नहीं थे। प्रभु येसु उनसे कहते हैं, “मैं तुम लोगों को बहुत सी बातों में दोषी ठहरा सकता हूँ लेकिन जब तुम लोग मानव पुत्र को उपर उठाओंगे, तो इन सब बातों को जान जाओगे। क्रूस से हमें प्रभु येसु की सबसे बडी शिक्षा मिलती है। क्रूस एक ऐसी पाठशाला है जिस में हम जीवन की सब से महत्वपूर्ण शिक्षा ग्रहण करते हैं।

- फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

Sometimes we lose our patience. In difficult situations, our sense of tolerance becomes weak. The result is that we get angry and grumble against one another. The Israelites were also troubled by the long journey in the desert often without enough food and water. So they grumbled against God and against Moses. The result of grumbling against God was that they became victims of poisonous snakes. Moses prayed to the Lord for the people. At the behest of God, Moses made a bronze snake and attached it to a pole. Whoever was bitten by the snake looked at it and was healed.

The Pharisees and Jewish leaders were also in the habit of grumbling against Jesus. Even after repeated persuasion of Jesus, they were not ready to understand his words. The Lord Jesus says to them, “I can convict you of many things, but you will know all these things when you raise up the Son of Man”. On the cross we have the biggest lessons of Lord Jesus. The cross is a school in which we learn the most important lessons of life.

-Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)

📚 मनन-चिंतन -3

नकारात्मकता जीवन में शायद ही मदद करती है। जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं जो हर व्यक्ति के रूप में या एक समुदाय के रूप में अनुभव करता है लेकिन यह हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण है जो हमें उस स्थिति पर जीत हासिल करने में मदद करता है जिससे हम घिरे हुए हैं। परमेश्वर के प्रति सकारात्मक होने का अर्थ होगा हमारे जीवन में उसकी उपस्थिति और शक्ति के प्रति जागरूक होना। परीक्षा और कठिनाई के समय में हमें जीवन की कुछ घटनाओं को याद करना चाहिए जहां ईश्वर बहुत शक्तिशाली रूप से उपस्थित थे और उदारता से अपनी दयालुता प्रकट करते थे। ऐसा स्मरण हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होने में मदद करता है और उनकी शक्तियों को कभी नहीं भुलाने देता है। ईश्वर अपने चमत्कारों तथा शक्तिशाली हाथ से दो लाख लोगों को मिस्र की गुलामी से बाहर लाये थे। ईश्वर ने उन्हें वह सब प्रदान किया जिसकी उन्हें आवश्यकता या मांग थी। हालांकि समय-समय पर वे परमेश्वर के विरुद्ध कुड़कुड़ाने लगते हैं और शाप देते हैं। परमेश्वर ने उनके विश्वास को प्रेम और दण्ड से बढ़ाया।

हमारे जीवन की स्थिति में भी हम मनोदशा के आधार पर निराश हो जाते हैं। अपनी असहज परिस्थितियों में भी हमें अच्छी यादों में मजबूत बने रहना चाहिए ताकि हम अपने जीवन में ईश्वर की अच्छाई के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर सकें।

- फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


📚 REFLECTION

Negativity hardly helps in life. There are up and down in life that everyone as individual or as a community experience but it our positive attitude that helps us win over the situation we are surrounded by. To be positive with God would mean to be aware of his presence and power in our life. In times of trials and difficulty we ought to recall to mind some of the events of life where God was very powerful present and manifested his kindness generously. Such remembrance helps us to be grateful to God and never lose sight of his powers. The two million people had been brought out of the slavery of the Egypt by the mighty hand of God reflected in the miracles. God provided them all that they needed or demanded. However for every now and then they begin to grumble against God and curse. God seasoned their faith by love as well as punishment.

In our life situation too, we become despondent based upon the moods. Even in our uncomfortable circumstances we must remain strong of good memories so that we can wait for the God’s goodness to show forth in our life.

-Fr. Ronald Melcom Vaughan

📚 मनन-चिंतन -4

प्रभु येसु हमेशा स्वर्गिक पिता और लोगों से जुड़े हुए थे। उन्होंने ईमानदारी से पिता की बात सुनी और लोगों को अपने स्वर्गिक पिता का संदेश सुनाया। कई बार उनके श्रोताओं के सोचने-समझने का ढ़ंग अलग ही था। और इसलिए वे उनके संदेश को समझ नहीं पाते थे। प्रभु येसु हमेशा वही करते थे जो अपने स्वर्गिक पिता को पसन्द था। कई बातें जो पिता को पसन्द हैं, वे लोगों को स्वीकार्य नहीं होती हैं। लेकिन प्रभु येसु लोकप्रियता की खोज नहीं करते थे। वे पिता द्वारा उन्हें सौंपे गये कार्य के लिए प्रतिबद्ध थे। यदि हम आज के सुसमाचार को ध्यान से पढ़ते हैं, तो हम येसु के श्रोताओं में बहुत भ्रम और गलतफहमी देख सकते हैं। प्रभु येसु कई अर्थपूर्ण बयान और दावे कर रहे थे। लोग हैरान थे। लेकिन सुसमाचार-पाठ बहुत ही सकारात्मक टिप्पणी के साथ समाप्त होता है - "बहुतों ने उन्हें यह सब कहते सुना और उन में विश्वास किया।" (योहन 8:30)। इस छोटी टीप्पणी से हमें सुसमाचार की उद्घोषणा के महान रहस्यों में से एक का पता चलता है। संत पौलुस कहते हैं, “भाइयो! जब मैं ईश्वर का सन्देश सुनाने आप लोगों के यहाँ आया, तो मैंने शब्दाडम्बर अथवा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं किया। मैंने निश्चय किया था कि मैं आप लोगों से ईसा मसीह और क्रूस पर उनके मरण के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात नहीं करूँगा। वास्तव में मैं आप लोगों के बीच रहते समय दुर्बल, संकोची और भीरू था। मेरे प्रवचन तथा मेरे संदेश में विद्वतापूर्ण शब्दों का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का सामर्थ्य था, जिससे आप लोगों का विश्वास मानवीय प्रज्ञा पर नहीं, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर आधारित हो।“ (1कुरिन्थियों 2: 1-5) आइए हम प्रभु और उनके संदेश के प्रति वफादार रहने का संकल्प लें। शब्द निर्विवाद रूप से उत्पादक है। इसायाह 55:10-11 में हम पढ़ते हैं, "जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके, उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।“

आईए हम प्रभु ईश्वर के आत्मा के आमर्थ्य से प्रभु का वचन सुनायें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Jesus was always connected both to the heavenly Father and to the people. He earnestly listened to the Father and tirelessly communicated the message of the heavenly Father to the people. Very often the listeners did not have the same wavelength and so they could not understand his message. He does only what is pleasing to the Father. What pleases the Father may not be pleasing to the people. But Jesus did not give in to popularity-seeking. He was committed to the Father and to the task entrusted to him.

If we carefully read today’s Gospel passage, we can see a lot of confusion and misunderstanding among the people. Jesus was making many pregnant statements and tall claims. The people were perplexed and confused. But the passage ends with a very positive note. It says, “As he was saying these things, many believed in him” (Jn 8:30). This reveals the power of the Word of God. In spite of the misunderstanding and confusion, people believed in him. This little note reveals one of the great mysteries of the proclamation of the Gospel. St. Paul says, “When I came to you, brothers and sisters, I did not come proclaiming the mystery of God to you in lofty words or wisdom. For I decided to know nothing among you except Jesus Christ, and him crucified. And I came to you in weakness and in fear and in much trembling. My speech and my proclamation were not with plausible words of wisdom, but with a demonstration of the Spirit and of power, so that your faith might rest not on human wisdom but on the power of God.” (1Cor 2:1-5) Let us resolve to be faithful to the Lord and his message. The word is indubitably productive. In Isaiah 55:10-11 we read, “For as the rain and the snow come down from heaven, and do not return there until they have watered the earth, making it bring forth and sprout, giving seed to the sower and bread to the eater, so shall my word be that goes out from my mouth; it shall not return to me empty, but it shall accomplish that which I purpose, and succeed in the thing for which I sent it.”

-Fr. Francis Scaria