वर्ष का इक्कीसवाँ सप्ताह, इतवार - वर्ष C

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥
जब यहूदी बाबुल के निर्वासन के बाद येरुसालेम लौट आये, तब ईश्वर ने उन में से कुछ लोगों को समस्त संसार में भेजने और इस प्रकार येरुसालेम को राष्ट्रों की ज्योति बनाने का संकल्प किया।

नबी इसायस का ग्रंथ 66:18-21

"वे सभी राष्ट्रों में से तुम्हारे सब भाइयों को ले आयेंगे।"

प्रभु यह कहता है, "मैं सभी भाषाओं के राष्ट्रों को एकत्र करूँगा। वे मेरी महिमा के दर्शन करने आयेंगे। मैं उन में एक चिह्न प्रकट करूँगा। जो बच गये होंगे, उन में से कुछ लोगों को मैं राष्ट्रों के बीच भेजूंगा तरशीश, पूट, लूद, मोशेक, रोश, तूबल, यावन और उन सुदूर द्वीपों को, जिन्होंने अब तक न तो मेरे विषय में सुना है और न मेरी महिमा देखी है। उन राष्ट्रों में वे मेरी महिमा प्रकट करेंगे।" वे प्रभु की भेंट स्वरूप सभी राष्ट्रों में से तुम्हारे सब भाइयों को ले आयेंगे। प्रभु कहता है कि जिस तरह इस्राएली शुद्ध पात्रों में चढ़ावा लिये प्रभु के मंदिर आते हैं उसी तरह वे उन्हें घोड़ों, रथों, पालकियों, खच्चरों और साँड़नियों पर बैठा कर मेरे पवित्र पर्वत येरुसालेम ले आयेंगे। मैं उन में से कुछ लोगों को याजक बनाऊँगा और कुछ लोगों को लेवी। यह प्रभु का कहना है।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 116

अनुवाक्य : संसार के कोने-कोने में जा कर सारी सृष्टि को सुसमाचार सुनाओ। (अथवा अल्लेलूया।)

1. अल्लेलूया ! हे समस्त जातियो ! प्रभु की स्तुति करो। हे समस्त राष्ट्रो ! उसकी महिमा गाओ।

2. क्योंकि हमारे प्रति उसका प्रेम समर्थ है; उसकी सत्यप्रतिज्ञता सदा-सर्वदा बनी रहती है।

📘दूसरा पाठ

जब हम यह विश्वास करते हैं कि ईश्वर हमारा पिता है, तो हमें अपने कष्ट को पिता का दण्ड समझना चाहिए। पिता पुत्र को सुधारने के लिए दण्ड देता है। उसी प्रकार ईश्वर भी हमारे कल्याण के लिए हमें दण्डित करता है।

इब्रानियों के नाम पत्र 12:5-7,11-13

"प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है।"

क्या आप लोग धर्मग्रंथ का यह उपदेश भूल गये हैं, जिस में आप को पुत्र कह कर सम्बोधित किया गया है- हे मेरे पुत्र ! प्रभु के अनुशासन की उपेक्षा मत करो और उसकी फटकार से हिम्मत मत हारो। क्योंकि प्रभु जिसे प्यार करता है, उसे दण्ड देता है और जिसे पुत्र मानता है, उसे कोड़े लगाता है। आप जो कष्ट सहते हैं, उसे पिता का दण्ड समकें; क्योंकि वह इसका प्रमाण है कि ईश्वर आप को पुत्र समझ कर आपके साथ व्यवहार करता है। और वह पुत्र कहाँ है, जिसे पिता दण्ड नहीं देता? जब दण्ड मिल रहा है तो वह सुखद नहीं, दुखद प्रतीत होता है; किन्तु जो दण्ड द्वारा सुधारे जाते हैं, वे बाद में धार्मिकता का शांतिप्रद फल प्राप्त करते हैं। इसलिए ढीले हाथों तथा शिथिल घुटनों को सबल बना लें और सीधे पथ पर आगे बढ़ते जायें जिससे लँगड़ा न भटके, बल्कि चंगा हो जायें।

प्रभु की वाणी।

📒जयघोष

अल्लेलूया, अल्लेलूया ! हे प्रभु ! तेरी शिक्षा ही सत्य है। हमें सत्य की सेवा में समर्पित कर। अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लोग येसु से यह जानना चाहते थे कि "क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?" येसु ने यह स्पष्ट कर दिया कि इस प्रकार के प्रश्नों से कोई लाभ नहीं। प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करे और येसु के इस कथन पर ध्यान दे – “सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो"।

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 13:22-30

"पूर्व तथा पश्चिम से और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे।"

येसु नगर-नगर, गाँव-गाँव, उपदेश देते हुए येरुसालेम की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे। किसी ने उन से पूछा, "प्रभु ! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?" इस पर येसु ने उन से कहा, "सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ - प्रयत्न करने पर भी बहुत से लोग प्रवेश नहीं कर पायेंगे। जब घर का स्वामी उठ कर द्वार बन्द कर चुका होगा और तुम बाहर रह कर द्वार खटखटाने और कहने लगोगे, 'हे प्रभु! हमारे लिए खोल दीजिए', तो वह तुम्हें उत्तर देगा, 'मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो'। तब तुम कहने लगोगे, 'हमने आपके सामने खाया-पिया और आपने हमारे बाजारों में उपदेश दिया'। पर वह तुम से कहेगा, 'मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो। रे कुकर्मियों ! तुम सब मुझसे दूर हटो।' जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे। पूर्व तथा पश्चिम से, और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे। देखो; कुछ जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और कुछ जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे"।

प्रभु का सुसमाचार।



📚 मनन-चिंतन

आज का पहला पाठ हमें दासता से लौटे इस्राएल के दर्शन कराता है। नबी के द्वारा प्रभु भविष्यवाणी करते हैं कि दुनिया के अलग-अलग जगहों से आकर लोग प्रभु की आराधना करेंगे। भले ही ऐसा लग रहा हो जैसे याकूब का घराना बर्बाद हो गया है, मिट गया है, लेकिन प्रभु सब तरह के बंधन नष्ट कर सभी को बुलाएगा और उसकी प्रिय प्रजा बनने के लिए उनका स्वागत करेगा। उनमें कोई भेदभाव नहीं रहेगा। यह हम प्रभु येसु के पुनरुत्थान के बाद कलिसिया के प्रारंभ में देखते हैं। पहले ही दिन पेत्रुस के भाषण के बाद लगभग तीन हजार लोग प्रभु के परिवार में शामिल हो गए थे, और ये सभी लोग अलग-अलग राष्ट्रों से आए थे, अलग-अलग भाषा-भाषी थे। अर्थात राष्ट्र, भाषा, रंग इत्यादि का भेद मिट गया। मनुष्य चाहे किसी भी राष्ट्र या भाषा का क्यों न हो अगर वह दिल से प्रभु येसु को अपना प्रभु मानता है, तो उसे मुक्ति अवश्य मिलेगी। प्रभु का यह निमंत्रण आज भी उपलब्ध है। प्राचीन समय में इस्राएल ने जो गलती की थी, और उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी थी, वही गलती प्रभु येसु के समय के लोगों ने की थी और वही गलती कभी-कभी हम भी करते हैं। हम प्रभु के शिष्य होने, और ईश्वर के चुने हुए लोग होने पर गर्व करते हैं, लेकिन उसकी जिम्मेदारी को भूल जाते हैं। हमें आज प्रभु चेतावनी देते हैं कि हमें सिर्फ नाम मात्र के लिए बाहरी रूप से शिष्य होने का ढोंग नहीं करना है बल्कि प्रभु के साथ गहराई से जुड़ना है। हम सिर्फ उसकी चुनी हुई प्रजा मात्र बल्कि उसके पुत्र-पुत्रियाँ बन गए हैं। स्वर्गराज्य के उतराधिकारी बन गए हैं, लेकिन अगर हम प्रभु को व्यक्तिगत रूप से नहीं अपनाएंगे तो वह भी अपने स्वर्गराज्य में हमें नहीं पहचानेगा। फिर चाहे हम कितना भी उन्हें प्रभु-प्रभु कहकर पुकारते रहें। आईए हम प्रभु की संतान के जैसे जीवन जियें और आचरण करें।

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


Today’s first reading gives us a vision of Israel returning from slavery. Through the prophet, the Lord foretells that people from all over the world will come to worship Him. Even though it may seem that the house of Jacob has been destroyed and wiped out, the Lord will break every chain of bondage, call everyone to Himself, and welcome them to become His beloved people. There will be no discrimination among them. We see this fulfilled in the early Church after the resurrection of the Lord Jesus. On the very first day, after Peter’s speech, about three thousand people were added to the Lord’s family—and they came from different nations and spoke different languages. In other words, distinctions of nation, language, and race were erased. No matter which nation or language a person belongs to, if they truly accept the Lord Jesus as their Lord, they will certainly receive salvation. This invitation from the Lord is still open today. In ancient times, Israel made a mistake and paid the price for it. The people of the Lord’s time repeated the same mistake, and sometimes we do as well. We take pride in being disciples of the Lord and God’s chosen people, yet forget the responsibility that comes with it. Today, the Lord warns us not to be disciples only in name or outward appearance, but to be deeply united with Him. We have not only become His chosen people but His sons and daughters—heirs of the Kingdom of Heaven. But if we do not accept the Lord personally, He too will not recognize us in His heavenly kingdom, no matter how much we call out, “Lord, Lord!” Let us, then, live and act as true children of the Lord.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)

📚 मनन-चिंतन - 2

हम में से अधिकांश लोग धार्मिकता के फल को पसंद तो करते हैं लेकिन अनुशासन के दर्द के बिना। फिर भी धर्मग्रंत कहता है कि हमें ईश्वर और दूसरों से प्रेम करने के लिए अनुशासन सीखना चाहिए। यह केवल अनुशासन जो ईश्वर के प्रति वफादार रहने की कोशिश में मददगार है। यह हमें उन दर्दों को गले लगाने में मदद करेगा जो अंततः आनंद की ओर ले जाते हैं। हमारे अच्छे इरादे मायने नहीं रखते। यहूदी धार्मिक नेताओं ने बाहरी कृत्यों पर जोर दिया। दूसरी ओर, येसु ने आंतरिक विश्वास पर बल दिया। यहूदी धर्मगुरुओं ने कर्म पर जोर दिया जबकि येसु ने विश्वास करने पर जोर दिया। जबकि मुक्ति ईश्वर का एक उपहार है, इसके लिए हमारे गंभीर प्रयास, हमारे तत्काल ध्यान और हमारी सावधानीपूर्वक आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है। येसु के अनुसार, आत्मिक मामलों में आत्मप्रबंचना लोगों को ईश्वर के राज्य से बंचित रखता है। इस रविवार का संदेश हमें स्वयं की विफलताओं को देखने और जानने के बावजूद ईश्वर के प्रति वफादार रहने का प्रयास जारी रखने के लिए एक प्रोत्साहन है।

- फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.


📚 REFLECTION

Most of us prefer the fruit of righteousness but without the pain of discipline. Yet the Scripture tells that we must learn discipline in order to love God and others. It is only discipline learned in trying to be faithful to God that will help us embrace the pains that ultimately lead to joy. Our good intentions don’t count. The Jewish religious leaders emphasized outward acts. Jesus, on the other hand, emphasized inward faith. The Jewish religious leaders emphasized doing while Jesus emphasized believing. While salvation is a gift of God, it requires our earnest effort, our urgent attention, and our careful self-examination. According to Jesus, self-deception in spiritual matters has the potential to exclude people from God’s Kingdom. The message of this Sunday is an encouragement to keep on striving to be faithful to God, even when we can see and know our own failures.

-Fr. Snjay Kujur SVD

📙 मनन-चिंतन -3

नये व्यवस्थान के चारों सुसमाचारों में से दो सुसमाचारों में प्रभु येसु की वंशावली का वर्णन है, जिसमें सन्त लूकस आदम से लेकर प्रभु येसु तक की वंशावली का वर्णन करते हैं (लूकस 3:23-38) जबकि सन्त मत्ती प्रभु येसु की वंशावली को धर्म-पिता इब्राहीम से प्रारम्भ करते हैं (मत्ती 1:1-16)। इसमें कोई दो राय नहीं कि इब्राहीम को हम अपने विश्वास के पिता के रूप में मानते हैं क्योंकि ईश्वर ने उनके उनके देश, कुटुम्ब आदि को छोड़कर बुलाया और वे अपना सब कुछ छोड़कर ईश्वर के बुलाबे के अनुसार सब कुछ छोड़कर प्रतिज्ञात देश के लिए रवाना हुए। (देखें इब्रानियों के नाम पत्र 11:8-19)। ईश्वर ने इब्राहीम से प्रतिज्ञा की कि वह इब्राहीम को राष्ट्रों का पिता बनाएगा और उसके द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे (उत्पत्ति 12:4)। ईश्वर ने उसके साथ एक विधान ठहराया, और वही विधान बाद में इसहाक, याकूब व आने वाली पीढ़ियों के साथ भी दुहराया और वह विधान यह था कि ईश्वर सदा उनका ईश्वर बना रहेगा और वे उसकी प्रिय प्रजा बने रहेंगे, ईश्वर सदा उनकी रक्षा करेगा और उन्हें संभालेगा, बदले में उनकी चुनी हुई प्रजा सदा ईश्वर को ही अपना प्रभु मानेंगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करेंगे। मानव इतिहास और मुक्ति इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि ईश्वर ने कभी अपने विधान की प्रतिज्ञाओं को नहीं तोडा, बल्कि मनुष्य ने ही ईश्वर की आज्ञाओं की अवेहलना की और ईश्वर के रास्ते से भटक गया। पुराने व्यवस्थान में प्रभु ने इस्राएल को अपनी चुनी हुई प्रजा बनाया था, और नये व्यवस्थान में ईश्वर की वही चुनी हुई प्रजा नया इस्राएल अर्थात् प्रभु येसु में विश्वास करने वाले उनके अनुयायी हैं।

हमारी धर्मशिक्षा हमें सिखाती है कि जब हम प्रभु येसु में बप्तिस्मा ग्रहण करते हैं तो हम उसी ईश्वरीय प्रजा के सदस्य बन जाते हैं; हम चुने हुए लोगों में सम्मिलित हो जाते हैं। हम प्रभु येसु के कलवारी के बलिदान के फल के सहभागी बन जाते हैं, इसी सहभागिता पर हम गर्व करते हैं। लेकिन अगर हम प्रभु येसु की मुक्ति के सहभागी बनते हैं तो हमारी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। ईश्वर द्वारा ठहराये हुए विधान में दो पक्षकार हैं- एक स्वयं ईश्वर और दूसरा उनकी चुनी हुई प्रजा। दोनों ही पक्षों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभानी है, तभी वह विधान सफल माना जायेगा। नये विधान की शर्ते पुराने विधान की शर्तों से अलग नहीं हैं, लेकिन क्या हम ईश्वर के उस विधान की शर्तों का पालन कर पाते हैं?

भले ही प्रभु येसु ने क्रूस पर पूरी दुनिया के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये हों, और संसार के सब लोगों को मुक्ति प्रदान की है, लेकिन आज की दुनिया में हम अगर नज़र दौडायें तो हम भी आज के सुसमाचार में शिष्यों की तरह प्रभु से पूछ उठेंगे, “प्रभु क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?” जब तक हम प्रभु को अपना मुक्तिदाता नहीं स्वीकार करेंगे तब तक कैसे हम उस मुक्ति के सहभागी होंगे? जब तक हम ईश्वर के विधान की शर्तों के अनुसार व्यवहार नहीं करेंगे तो ईश्वर की चुनी हुई प्रजा कैसे बनेंगे? क्या कभी ताली एक हाथ से बज सकती है? हमारा ध्यान संकरे मार्ग की ओर नहीं बल्कि चौड़े मार्ग की ओर है क्योंकि सँकरे मार्ग पर चलना कठिन और चुनौतीपूर्ण है।

चूंकि बप्तिस्मा के द्वारा हम ईश्वर की चुनी हुई प्रजा हैं, और मुक्ति के बारे में निश्चिन्त हो जाते हैं और कभी-कभी ये गर्व हमारे लिए घमण्ड बन जाता है और मुक्ति से वंचित होने का कारण भी बन सकता है। हम ख्रीस्तीय हैं, बचपन से ही प्रभु के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, प्रभु येसु कौन हैं, उनका जन्म कहाँ हुआ, उन्होंने क्या-क्या चमत्कार किये, और उनकी मृत्यु और पुनुरुत्थान कैसे हुआ इत्यादि। लेकिन क्या ईश्वर के साथ हमारा व्यक्तिगत सम्बन्ध है? क्या हम प्रभु येसु से व्यक्तिगत रूप से जुड़े हैं? कभी-कभी हम सोचते हैं कि हम तो ख्रीस्तीय हैं, बस इतना ही काफी है, इसी से हम स्वर्ग में प्रवेश पा लेंगे। अगर एक बच्चे के माता-पिता शिक्षक हैं, तो इसका मतलब ये नहीं कि वह बच्चा बिना मेहनत किये ही होशियार हो जायेगा। उसे अगर अपने माता-पिता का नाम रोशन करना है और होशियार (बुद्धिमान) बनना है तो इसके लिए उसे मेहनत करनी होगी। उसी तरह यदि हम स्वर्गीय पिता की संताने हैं, तो उसके योग्य बनने के लिए हमें मेहनत करनी पड़ेगी, “पूरा-पूरा प्रयत्न” करना पड़ेगा। पिता ईश्वर की योग्य संतानें बनने के लिए हमें उनकी आज्ञाओं का पालन करना पड़ेगा, ईश्वरीय विधान की शर्तों को पूरा करना पड़ेगा। ईश्वर की राह कठिन है, लेकिन जो लगन के साथ इस पर डटे रहते हैं, वही ईश्वर को जान लेते हैं, और ईश्वर उन्हें पहचान लेते हैं।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)