हे पुत्र ! नम्रता से अपना व्यवसाय करो और लोग तुम्हें दानशील व्यक्ति से भी अधिक प्यार करेंगे। तुम जितने अधिक बड़े हो, उतने ही अधिक नम्र बनो इस प्रकार तुम प्रभु के कृपापात्र बन जाओगे। प्रभु का सामर्थ्य अत्यधिक महान् है, किन्तु वह विनम्र लोगों की श्रद्धांजलि स्वीकार करता है। अहंकारी के रोग का कोई इलाज नहीं है, क्योंकि बुराई ने उस में जड़ पकड़ ली है। समझदार मनुष्य दृष्टान्तों पर विचार करता है। जो कान लगा कर सुनता है, वह मुनि को प्रिय है।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य: हे प्रभु ! तूने दयापूर्वक दरिद्रों को घर दिलाया है।
1. धर्मी ईश्वर के सामने आनन्द मनाते और प्रफुल्लित हो कर नृत्य करते हैं। "ईश्वर का गीत गाओ और उसके आदर में बाजा बजाओ। ईश्वर के सामने प्रफुल्लित हो कर आनन्द मनाओ।"
2. ईश्वर अपने मंदिर में निवास करता है, वह अनाथों का पिता है और विधवाओं का रक्षक। वह निर्वासितों को आवास देता और बंदियों को छुड़ा कर आनन्द प्रदान करता है।
3. हे ईश्वर ! तूने भरपूर पानी बरसा कर अपनी थकी-माँदी प्रजा को नवजीवन प्रदान किया। तेरी प्रजा ने वहाँ अपना घर बना लिया है और तू वहाँ दयापूर्वक दरिद्रों का भरण-पोषण करता है।
आप लोग ऐसे पर्वत के निकट नहीं पहुँचे हैं, जिसे आप स्पर्श कर सकते हैं। यहाँ न तो सिनाई पर्वत की धधकती अग्नि है, और न काले बादल, न घोर अंधकार, बवण्डर, तुरही का निनाद और न बोलने वाले की ऐसी वाणी, जिसे सुन कर इस्राएली विनय करते थे कि वह फिर हम से कुछ न कहे। आप लोग सियोन पर्वत, जीवन्त ईश्वर के नगर, स्वर्गीय येरुसालेम के पास पहुँच गये हैं, जहाँ लाखों स्वर्गदूत, स्वर्ग के पहले नागरिकों का आनन्दमय समुदाय, सबों का न्यायकर्त्ता ईश्वर, धर्मियों की पूर्णता प्राप्त आत्माएँ, और नवीन विधान के मध्यस्थ येसु विराजमान हैं, जिनका छिड़काया हुआ रक्त हाबिल के रक्त से कहीं अधिक कल्याणकारी है।
प्रभु की वाणी।
अल्लेलूया, अल्लेलूया ! यदि कोई मुझे प्यार करेगा, तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आ कर उस में निवास करेंगे। अल्लेलूया !
किसी विश्राम के दिन येसु एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे। येसु ने अतिथियों को मुख्य मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, "विवाह में निमंत्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमंत्रित हो और जिसने तुम दोनों को निमंत्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, 'इन्हें अपनी जगह दीजिए' और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े। परन्तु जब तुम्हें निमंत्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो जिससे निमंत्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, 'बंधु, आगे बढ़ कर बैठिए'; इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा"। फिर येसु ने अपने निमंत्रण देने वाले से कहा, "जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को, न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को; कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमंत्रण दे कर बदला चुका दें। पर जब तुम भोज दो तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अंधों को बुलाओ। तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरुत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।"
प्रभु का सुसमाचार।
ईश्वर सभी के हृदय के रहस्य जानता है। हम मनुष्य केवल दूसरों के बाहरी व्यवहार से उनके बारे में निर्णय करते हैं या अपनी राय बनाते हैं। कभी-कभी हम किसी की वास्तविकता नहीं जानते और न जानना चाहते। लेकिन ईश्वर सब जानता है। नाकेदार लेवी को सभी बुरा मानते थे और शायद उससे ईश्वर विनम्र हृदय से अति प्रसन्न होता है। कहा जाता है कि विनम्रता ही महानता की ओर बढ़ने का पहला कदम है। संसार के इतिहास में प्रभु येसु के अलावा और कोई नहीं हुआ जिसने संसार को विनम्रता का सर्वश्रेष्ठ पाठ पढ़ाया हो। उनका सारा जीवन विनम्रता का जीवंत उदाहरण था। फिलिपियों को लिखते हुए सन्त पौलुस प्रभु येसु की इसी महानता का बखान करते हैं। वे कहते हैं - “वह वास्तव में ईश्वर थे, और उनको पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बनकर, अपने को दीन-हीन बना लिया...” (फिलिपियों 2:6-7)। उन्होंने सारी सृष्टि का राजा होते हुए भी जन्म लेने के लिए कोई राजघराना नहीं बल्कि साधारण से गोशाला की साधारण सी चरनी को चुना। उन्होंने जीवन के हर कदम पर दुनिया को विनम्र बने रहने की सीख दी। वही प्रभु आज हमें विनम्रता से अपना स्थान सबसे पीछे चुनने के लिए पुकारते हैं। पहला पाठ हमें यही सिखाता है कि तुम जीतने अधिक बड़े हो उतने ही अधिक नम्र बनो। आम तौर पर ऐसा देखा जाता है कि आँधी के समय जो पेड़ झुकता नहीं है वह टूट जाता है। यही सत्य मनुष्यों पर भी लागू होता है। जो व्यक्ति महत्वपूर्ण व बड़ा बन जाता है तो अगर वह विनम्र नहीं होगा, अहंकारी होगा तो बर्बाद हो जाएगा। अहंकार वास्तव में विनम्रता का विपरीत है, और यह एक बीमारी के समान है, जिसका अंत विनाश ही होता है। इससे पहले कि परिस्थितियाँ हमारे अहंकार को तोड़कर हमें विनम्रता का सबख सिखाएं उससे पहले हमें स्वयं विनम्रता की राह चुन लेनी चाहिए। जब किसी के बुलाए जाने पर हम स्वयं ही सबसे पीछे जाकर बैठ जाएंगे तो स्वामी स्वयं आकर हमें आगे आकर बैठने का आग्रह करेगा। अर्थात एक व्यक्ति जब विनम्रता की राह पर चलता है तो स्वयं ही महान बनने की राह पर भी आगे बढ़ने लगता है। दुनिया में ऐसे बहुत से महान लोग हुए हैं जो विनम्रता के पथ पर चलकर ही महानता की मंजिल को प्राप्त कर पाए हैं।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)God the Father is the Creator and Sustainer of this world. He desires that we take care of creation and cooperate with Him in its governance. That is wGod is greatly pleased with a humble heart. It is said that humility is the first step toward greatness. In the history of the world, apart from the Jesus, there has been no one else who has taught the lesson of humility in such a profound way. His entire life was a living example of humility. Writing to the Philippians, Saint Paul speaks of this greatness of the Lord Jesus: “Though He was truly God, and had every right to be equal with God, yet He emptied Himself, taking the form of a servant, and being born in the likeness of men...” (Philippians 2:6–7). Though He was the King of all creation, for His birth He chose not a royal palace but a simple manger in an ordinary stable. At every step of His life, He taught the world the lesson of remaining humble. That same Lord calls us today to choose for ourselves the lowest place with humility. The first reading also teaches us that the greater you become, the more humble you must be. It is often observed that in a storm, the tree that does not bend is the one that breaks. The same truth applies to human beings: if a person becomes important and great, but lacks humility and is filled with pride, he will be ruined. Pride is in fact the opposite of humility, and it is like a disease whose end is destruction. Before circumstances break our pride and force us to learn humility, we should willingly choose the path of humility ourselves. When, upon being invited, we choose to sit at the lowest place, the Master Himself will come and invite us to sit higher. In other words, when a person walks in the path of humility, he naturally begins to advance on the path of greatness. The world has seen many truly great people, and they attained greatness only by walking along the way of humility.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)
सुसमाचार में येसु आत्म-केंद्रितता और पाखंड पर सवाल उठाते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो प्रतिस्पर्धा और सफलता को महत्व देती है, और सबसे ऊपर 'सम्मान के स्थान' पर कब्जा करती है। कमजोरों के लिए और जो खुद को आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं उनके लिए बहुत कम जगह है। एक स्वयं की छवि जो स्वयं को विशेष पहचान के योग्य मानती है, स्वयं विनाशकारी हो सकती है। जब हम खुशी-खुशी अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का उपयोग दूसरों की सेवा करने में करते हैं, तो हम स्वीकार करते हैं कि ईश्वर सभी अच्छाइयों का सच्चा स्रोत है। जिस तरह की नम्रता की बात येसु यहाँ कर रहे हैं, उसका वर्णन कैंटबरी के एक पूर्व आर्चबिशप, विलियम टेम्पल ने अच्छी तरह से किया था: “विनम्रता का अर्थ अन्य लोगों की तुलना में अपने बारे में कम सोचना नहीं है, और न ही इसका अर्थ अपने स्वयं के उपहारों के बारे में कम राय रखना है। इसका अर्थ है अपने बारे में बिल्कुल भी सोचने से मुक्ति।"
✍ - फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.
In the gospel Jesus questions the self-centredness and hypocrisy. We are living in a world that values competition and success, occupying the ‘place of honour’, above all else. There is little space for the weak and for those who are unable to push themselves forward. A self image that considers oneself deserving of special recognition can be self destructive. When we happily use our God-given talents in serving others, we acknowledge that God is the true source of all goodness. The kind of humility Jesus is talking about here was described well by a former Archbishop of Canterbury, William Temple: “Humility does not mean thinking less of yourself than of other people, nor does it mean having a low opinion of your own gifts. It means freedom from thinking about yourself at all.”
✍ -Fr. Snjay Kujur SVD
पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ० अब्दुल कलाम को 2007 के रामनाथ गोयनका उत्कृष्ट पत्रकारिता पुरस्कार समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. उस समय भी वे देश के प्रथम नागरिक (राष्ट्रपति) थे, और उन्हें उस समारोह को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था, और उसके बाद बड़े-बड़े पत्रकारों का पत्रकारिता के बारे में विचारों का आदान-प्रदान का कार्यक्रम था, और उसके लिए मुख्य अतिथि का रुकना ज़रूरी नहीं था. सबने सोचा कि राष्ट्रपति अपने सम्बोधन के बाद विदा ले लेंगे, लेकिन डॉ० अब्दुल कलाम विचार-विमर्श के इस कार्यक्रम के लिए भी रुक गये, लेकिन इससे अधिक आश्चर्यजनक बात यह थी उन्होंने उस आदान-प्रदान में सक्रीय भाग भी लिया, और वे जोश में आकर अतिथि दीर्घा से उठकर मंच पर जा बैठे, वो भी कुर्सी पर नहीं नीचे. सब लोग आश्चर्यचकित थे कि देश का राष्ट्रपति एक आम इन्सान के सामान नीचे मंच पर बैठा है, लेकिन उन्हें किसी बात की परवाह नहीं थी. उस कार्यक्रम की उस तस्वीर को आज भी इन्टरनेट पर खोजा जा सकता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ० अब्दुल कलाम विनम्रता के जीते-जागते उदाहरण थे, और इसलिए आज भी वे करोड़ों लोगों में जिंदा हैं और और लोग उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं.
आज की पूजन-विधि में हमारे मनन-चिंतन का विषय भी यही महान गुण ‘विनम्रता’ है. आज के पहले पाठ, प्रवक्ता-ग्रन्थ में विनम्रता और विनम्र व्यक्ति की प्रशंसा की गयी है. दूसरे पाठ में भी हम पुराने व्यवस्थान के भय उत्पन्न करने वाले ईश्वर की अपेक्षा प्रभु येसु में एक विनम्र मेमने के रूप में ईश्वर के दर्शन करते हैं, और आज के सुसमाचार में स्वयं प्रभु येसु इसी महान गुण के बारे में समझाते हैं. हर इन्सान चाहता है कि वह महान बने, लोग उसका आदर सम्मान करें. सभी के अन्दर खुद की एक पहचान बनाने की लालसा रहती है, कुछ करने की, कुछ बनने लालसा रहती है. ऐसी लालसा होना बुरी बात नहीं है, यह स्वभाविक है, तभी तो पिता ईश्वर ने भी कहा “फलो-फूलो. पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो. (उत्पत्ति ग्रन्थ 1:28).” महान बनने की लालसा मनुष्य में प्रारम्भ से ही है, काईन ने अपने भाई हाबिल का रक्त बहाया, याकूब ने एसाव का प्रथम अधिकार छिना, राजा साउल भी दाउद को मारना चाहता था. बड़ा और महान बनने के लिये इन सब ने गलत और बुरा रास्ता चुना, और आज की दुनिया में हम भी वही गलतियाँ करते हैं. लेकिन प्रभु येसु हमें महान और बड़ा बनने का सबसे अच्छा और सही रास्ता बताते हैं. प्रभु येसु के अनुसार ‘यदि हमें बड़ा और महान बनना है तो सबसे पहले सबसे छोटा और विनम्र बनना पड़ेगा.’ दरअसल विनम्रता, महान बनने की सबसे पहली सीढ़ी है.
विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक कृति “दि इमीटेशन ऑफ़ क्राइस्ट” (ख्रिस्तानुकरण) में लेखक थॉमस केम्पिस इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में कहते हैं, “स्वयं को नगण्य समझना, एवं दूसरों को अपने से अच्छा और श्रेष्ठ समझना ही सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमानी (प्रज्ञा) है.” विनम्रता ही अन्य सद्गुणों की जननी है. किसी ने कहा है कि, ‘विनम्रता एक विशाल वृक्ष की जड़ के समान है, और यदि एक वृक्ष की जड़ें ज़मीन में दृढ़ता से नहीं जमीं हैं तो वह वृक्ष ना तो मजबूती से बढ़ सकता है, और ना कोई फल उत्पन्न कर सकता है, और ना ही ज़्यादा दिनों तक जीवित रह सकता है. उस विनम्रता रूपी वृक्ष की डालियाँ हैं- शालीनता या सादगी, निरभिमान एवं गौरव. जिस व्यक्ति में विनम्रता नहीं है, उसमें दूसरे सद्गुणों का पनपना मुश्किल है. राजा सुलेमान के अनुसार ‘विनम्र व्यक्ति में ही प्रज्ञा का वास है.’ (सूक्ति ग्रन्थ 11:2).
प्रभु येसु आखिर क्यों चाहते हैं कि हम विनम्र बनें? प्रभु येसु के इस दुनिया में आने का मुख्य उद्देश्य समस्त मानव जाति का पिता ईश्वर से मेल कराना है, यानि कि हमें ईश्वर से मिलाना है, ईश्वर के दर्शन कराना है. और ईश्वर के दर्शन करने के लिए हमारा विनम्र होना अनिवार्य है. अहंकारी व्यक्ति कभी प्रभु को नहीं पा सकता है वहीँ दूसरी ओर प्रभु येसु ने स्वयं वादा किया है, “धन्य हैं वे जो नम्र हैं, उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा.” (मत्ती 5:4). विनम्र व्यक्ति सारी दुनिया को जीत सकता है, सबके दिलों पर राज कर सकता है. आइये हम प्रभु से इस महान गुण का वरदान माँगें.
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)