वर्ष का तेईसवाँ सप्ताह, इतवार - वर्ष C

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प्रज्ञा-ग्रंथ के विचारक के मन में यह संदेह है कि 'कौन ईश्वर की इच्छा जान सकता है ?' इसलिए वह नम्रतापूर्वक ईश्वर से प्रार्थना करता है। यदि हम येसु की शिक्षा पर विश्वास करें, तो हमारे मन में संदेह उत्पन्न नहीं होगा ।

प्रज्ञा-ग्रंथ 9:13-18

"कौन ईश्वर की इच्छा जान सकता है ?"

ईश्वर के मन की थाह कौन ले सकता है ? कौन ईश्वर की इच्छा जान सकता है ? मनुष्यों के विचार अनिश्चित हैं और हमारे उद्देश्य अस्थिर हैं। क्योंकि नश्वर शरीर आत्मा के लिए भार स्वरूप है और मिट्टी की यह काया मन की विचार-शक्ति को कम कर देती है। हम पृथ्वी पर की चीजें कठिनाई से जान जाते हैं। जो हमारे सामने है, उसे हम मुश्किल से समझ पाते हैं तो आकाश में क्या है, इसका पता कौन लगा सकता है ? यदि तूने प्रज्ञा का वरदान नहीं दिया होता और अपने पवित्र आत्मा को नहीं भेजा होता, तो कौन तेरी इच्छा जान पाता? इस तरह पृथ्वी पर रहने वालों के पथ सीधे कर दिये गये हैं। जो बात तुझे प्रिय है, इसकी शिक्षा मनुष्यों को मिल गयी और प्रज्ञा के द्वारा उनका उद्धार हुआ है।

📖भजन : स्तोत्र 89:3-6,12-14,17

अनुवाक्य : हे प्रभु ! तू पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारा आश्रय बना रहा

1. तू मनुष्य को फिर मिट्टी में मिला कर कहता है, "हे मनुष्य की सन्तान ! लौट जाओ !" एक हजार वर्ष भी तुझे बीते कल की तरह लगते हैं, वे तेरी गिनती में रात के पहर के सदृश हैं

2. तू मनुष्यों को इस तरह उठा ले जाता है जिस तरह सबेरा हो जाने पर स्वप्न मिट जाता है, जिस तरह घास प्रातःकाल उग • कर लहलहाती है और संध्या तक मुरझा कर सूख जाती है

3. हमें जीवन की क्षणभंगुरता सिखा, जिससे हम में सद्बुद्धि आये। हे प्रभु ! क्षमा कर। हम कब तक तेरी प्रतीक्षा करें ? तू अपने सेवकों पर दया कर

4. तू भोर को हमें अपना प्रेम दिखा, जिससे हम दिन भर आनन्द के गीत गा सकें। प्रभु की मधुर कृपा हम पर बनी रहे और हमारे सब कार्यों पर तेरी आशिष ।

📘दूसरा पाठ

सन्त पौलुस रोम में कैदी थे और उन्होंने अपने बन्दीगृह में ओनेसिमुस नामक दास को ईसाई धर्म में दीक्षित कर लिया, जो अपने स्वामी के घर से भाग गया था। यहाँ सन्त पौलुस का वह पत्र सुनाया जा रहा है कि जिसे ले कर ओनेसिमुस अपने स्वामी के यहाँ लौटा ।

फिलेमोन के नाम सन्त पौलुस का पत्र 9-10,12-17

"आप इसे दास के रूप में नहीं, बल्कि प्रिय भाई के रूप में अपनायें।"

मैं पौलुस, जो बूढ़ा हो चला और आजकल येसु मसीह के कारण कैदी भी हूँ, आप को यह लिख रहा हूँ। मैं ओनेसिमुस के लिए आप से निवेदन कर रहा हूँ। वह मेरा पुत्र है, क्योंकि मैं कैद में उसका आध्यात्मिक पिता बन गया हूँ। मैं अपने कलेजे के इस टुकड़े को आपके पास वापस भेज रहा हूँ। मैं, जो सुसमाचार के कारण कैदी हूँ, इसे यहाँ अपने पास रखना चाहता था, जिससे यह आपके बदले मेरी सेवा करे। किन्तु आपकी सहमति के बिना मैंने कुछ नहीं करना चाहा जिससे आप यह उपकार लाचारी से नहीं, बल्कि स्वेच्छा से करें। ओनेसिमुस शायद इसलिए कुछ समय तक आप से ले लिया गया था कि यह आप को सदा के लिए प्राप्त हो, अब दास के रूप में नहीं, बल्कि दास से कहीं बढ़ कर अतिप्रिय भाई के रूप में। यह मुझे अत्यन्त प्रिय है और आप को कहीं अधिक मनुष्य के नाते भी और प्रभु के शिष्य के नाते भी। इसलिए यदि आप मुझे धर्म-भाई समझते हैं, तो इसे मुझ जैसे अपनायें ।

प्रभु की वाणी।

📒जयघोष

अल्लेलूया, अल्लेलूया ! प्रभु कहते हैं, "मैंने तुम्हें मित्र कहा है, क्योंकि मैंने अपने पिता से जो कुछ सुना है, वह सब तुम्हें बता दिया है"। अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

येसु मसीह विनम्र तथा दयालु थे, फिर भी वह अपने शिष्यों से यह माँग करते थे कि वे ऐसे व्यक्ति को छोड़ दें, जो उनकी धार्मिक साधना तथा विश्वास में बाधा डालता है - चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकट संबंधी क्यों न हो ।

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 14:25-33

"जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।"

येसु के साथ-साथ एक विशाल जनसमूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा, "यदि कोई मेरे पास आये और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई-बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से भी बैर न रखे, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता । जो अपना क्रूस उठाकर मेरा अनुसरण, नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता। तुम में ऐसा कौन होगा जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर खर्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी मेरे पास है ? कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कह कर उसकी हँसी उड़ाने लगें, 'इस मनुष्य ने निर्माण-कार्य प्रारम्भ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका ।' अथवा कौन राजा ऐसा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि जो बीस हजार की फ़ौज के साथ मुझ पर चढ़ा आ रहा है, क्या मैं दस हजार की फ़ौज से उसका सामना कर सकता हूँ ? यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है वह राजदूतों को भेज कर संधि के लिए निवेदन करेगा। उसी तरह तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता ।"

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

आज-कल ईसाई बनना फैशन बन गया है। और कुछ लोगों के लिए दुनियाई दुखों से छुटकारा पाने और समृद्ध होने का साधन लगता है। कलीसियाई इतिहास में हम देखते हैं कि लोग ख्रीस्तीय विश्वास के लिए अपने आपको बलिदान दे दिए। ख्रीस्तीय जीवन लाचार और गरीब लोगों के लिए नहीं है ! आज के सुसमाचार (लूकस 14:25-33 ) में प्रभु येसु शिष्यत्व की कीमत हमें बताते हैं। ईश्वर के प्रति अमीर ही प्रभु के शिष्य बन सकते हैं। तो प्रभु के शिष्य बनने की कीमत क्या है? सबकुछ ! हम जो हैं और और हमारे पास जो भी हैं। “मसीह सम्पूर्ण ख्रीस्तीय जीवन का केन्द्र हैं। उनके साथ का बन्धन सभी अन्य बन्धनों – पारिवारिक या सामाजिक – से ऊपर है।” (CCC 1618) CCC 2544 कहता है, “प्रभु येसु अपने शिष्यों को आज्ञा देते हैं कि वे उन्हें हर वस्तु और हर व्यक्ति से ऊपर रखें, और उनके तथा सुसमाचार के लिए “जो कुछ भी उनके पास है उसका त्याग” करें। अपने दुःख-भोग से ठीक पहले उन्होंने येरूसालेम की गरीब विधवा का उदाहरण दिया, जिसने अपनी दरिद्रता में से वह सब कुछ दे दिया जो उसके जीवित रहने के लिए था। धन से विरक्त होने का यह आदेश स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए अनिवार्य है।” लेकिन धनी युवक प्रभु येसु का अनुसरण करने से इनकार कर दिया क्योंकि वह अपनी संपत्ति से चिपका हुआ था (मत्ती 19:21-22)। आप किसके उदहारण का पालन करने वाले हैं? धनी युवक का या गरीब विधवा का? क्या प्रभु येसु हमारे सभी संबंधों, धन-दौलत और जीवन से भी बड़े नहीं हैं? हम कीमत ना देखें; बल्कि इस कीमत से प्राप्त होने वाले प्रभु के बन्धन को देखें!

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

Nowadays Christianity has become a kind of fashion. For some people, it even appears to be a means to escape worldly sufferings and to become prosperous and rich. But in the history of the Church, we see that people sacrificed themselves for the Christian faith. Christian life is not for the helpless and the poor! In today’s Gospel (Luke 14:25–33), the Lord Jesus tells us the cost of discipleship. Only those who are rich toward God can truly become the Lord’s disciples. So, what is the cost of being His disciple? Everything! Who we are, and whatever we have. “Christ is the center of all Christian life. The bond with Him takes precedence over all other bonds, whether family or social.” (CCC 1618) CCC 2544 says: “Jesus enjoins his disciples to prefer him to everything and everyone, and bids them "renounce all that [they have]" for his sake and that of the Gospel. Shortly before his passion he gave them the example of the poor widow of Jerusalem who, out of her poverty, gave all that she had to live on. The precept of detachment from riches is obligatory for entrance into the Kingdom of heaven.” But the rich young man refused to follow the Lord Jesus because he was attached to his possessions (Matthew 19:21–22). Whose example will you follow? The rich young man’s, or the poor widow’s? Is not the Lord Jesus greater than all our relationships, wealth, and even life itself? Let us not focus on the cost; rather, let us look at the bond with the Lord that comes through this cost!

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन - 2

आज के सुसमाचार में येसु कुछ ऐसा कहते प्रतीत होते हैं जो शायद लोगों को उनके पीछे चलने से रोक सकता है। कोई भी समझदार व्यक्ति उनके शिष्य बनने पर गंभीरता से विचार नहीं करेगा। उसके शिष्य को अपने परिवार और यहां तक कि अपने जीवन से भी घृणा करनी चाहिए। तब येसु कहते हैं कि उनके भी शिष्य को अपना क्रूस उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह एक निमंत्रण है जो स्वेच्छा से अपमानजनक, यातना देने वाली मौत से गुजरने के लिए निमंत्रण है। अंत में, येसु का अनुसरण करने के लिए आपको अपनी सारी संपत्ति को त्यागना होगा; अन्यथा, "आप मेरे शिष्य नहीं हो सकते"।

आज येसु हमें याद दिलाते हैं कि उनके पीछे चलने का चुनाव करने से हम अपने जीवन में सबसे क्रांतिकारी निर्णय ले सकते हैं। जो हमें कहीं अधिक गहराई से छूता है, जैसे उदाहरण के लिए, शादी करने का निर्णय, नौकरी बदलने का चुनाव आदि। येसु को हमारे परिवार की तुलना में हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए; जिन्हें हम दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करते हैं येसु हमारे लिए उनसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए; हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि येसु हमारे लिए हमारे आराम, या स्थिति, या स्वास्थ्य, और यहाँ तक कि स्वयं जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण है। और अगर हमें इसका एहसास नहीं है तो हम मूर्ख हैं। अगर हम सोचते हैं कि कभी-कभी चर्च जाने से, और कभी-कभार प्रार्थना करने से, यहां तक कि एक क्रॉस भी पहनने से, और दान के लिए कभी-कभी दान से हम येसु के सच्चे शिष्य हो सकते हैं, - जबकि मूल रूप से हम स्वार्थी रहते है, सामाजिक मानदंडों के अनुशीलन हम खुद को धोखा देते हैं। हमारी सबसे बड़ी जरूरत हमारी आध्यात्मिक निष्क्रियता से बाहर निकलने और वास्तव में उनके शिष्य बनने की है।

हम सभी में एक सच्चे शिष्य होने की कमी है, लेकिन हमें उन्हें अपने दिलों पर लागू करने के लिए ईमानदारी से काम करना चाहिए। हमें खुद से पूछने की जरूरत है; कि क्या ऐसा कुछ है जिसे मैं कसकर पकडा हूँ जो शायद मुझे येसु का अनुसरण करने से रोक रहा हो? क्या कोई ऐसा रिश्ता है जो आपके जीवन में येसु से आगे आता है? यदि येसु प्रथम है, तो स्पष्ट है कि आप उसके वचन में, प्रार्थना में, और भक्ति में उसके साथ लगातार समय व्यतीत कर रहे होंगे।

क्या येसु हमारी योजनाओं, हमारे विचारों, और जो कुछ हम करते हैं उसका प्रभु है? या, क्या हम मूर्ख और स्वार्थी होकर अपनी योजनाओं से, अपने तरीके से चिपके रह सकते हैं, बजाय इसके कि हम येसु को हर चीज में खुश करने की कोशिश करना चाहिए?

क्या वह हमारी संपत्ति का स्वामी है? क्या हम इन चीजों को उसके उद्देश्यों के लिए प्रबंधित करने में विश्वासयोग्य हैं? क्या हम उनके कार्य को उदारता और विश्वासपूर्वक करते हैं?

मुक्ति बिल्कुल मुफ्त है, लेकिन एक बार जब आप इसे प्राप्त कर लेते हैं, तो इसके लिए आपको सब कुछ खर्च कर देना पड़ता है। वास्तव में येसु का अनुसरण करने के लिए, हमें लागत पर विचार करना चाहिए और उसे अन्य सभी चीज़ों से ऊपर रखना चाहिए।

हमें अपने जीवन के सभी पहलुओं की सावधानीपूर्वक जाँच करने और यह तय करने के लिए आमंत्रित किया जाता है कि क्या परमेश्वर की उपस्थिति में अनन्त जीवन का प्रतिफल किसी और चीज़ से अधिक महत्वपूर्ण है। हम येसु से यह पहचानने में हमारी मदद करने के लिए कह सकते हैं कि हमें अपने जीवन में वास्तव में उनका अनुसरण करने के लिए क्या चाहिए।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

In today’s Gospel Jesus seems to do something that can put people off from following him. No reasonable person would seriously consider becoming his disciple. A disciple of his must hate his family, and even his own life. Then Jesus says that any disciple of his must be ready to carry his Cross. This is an invitation willingly to undergo the most humiliating, extreme manner of tortured death. Finally, to follow Jesus you have to give up all your possessions; otherwise, “you cannot be my disciple”.

Today Jesus reminds us that the choice to follow him is the most radical decision we could take in our life. It touches us far more deeply than, for example, the decision to join a another job, or to get married etc. Jesus must be more important to us than our family; more important to us even than those we love most in the world; certainly more important to us than anything we could ever possess. We need to acknowledge that Jesus is more important to us than our comfort, or status, or health, and even than life itself. And if we don’t realise it then we are fools. If we think that we can be true disciples of Jesus, by going to Mass occasionally, and saying the odd prayer, maybe even wearing a cross, and making occasional donations to charity - while remaining radically selfish, and easily going along with the norms and patterns of our secular society - then we deceive ourselves, and our great need is to be come out of our spiritual inactivity, and truly become his disciple.

We all fall short of being a true disciple, but we must honestly work at applying them to our hearts we need to ask ourself; Is there anything that I am holding on tightly too that might be hindering me from following Jesus? Is there any relationship that comes ahead of Christ in your life? If He is first, then obviously you will be spending consistent time alone with Him in His Word, in prayer, and in devotion. We won’t allow any other relationship to draw you away from obedience to Him. You will confess and forsake every sin that blocks fellowship with Him.

Is He the Lord of our plans, our thoughts, and of all that we do? Or, could we be foolishly and selfishly be clinging to our plans, to our way, instead of seeking to please Him in all things?

Is He Lord of our possessions? Are we faithful in managing these things for His purposes? Do we give generously and faithfully to His work?

Salvation is absolutely free, but once you receive it, it costs you everything. To truly follow Christ, we must consider the cost and put Him above everything else.

We are invited to examine all aspects of our life carefully and decide if the reward of eternal life in God’s presence is more important than anything else. We can ask Jesus to help us identify what we need in our lives to follow him truly.

-Fr. Ronald Vaughan

📙 मनन-चिंतन -3

हम मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की सिस्टर निर्मला को भली-भांति जानते हैं। उनका पूरा नाम सिस्टर निर्मला जोशी था, उनका जन्म 23 जुलाई 1934 को एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में स्कूली दिनों में जब वे ख्रीस्तीय धर्म के संपर्क में आई तो उन्होंने प्रभु येसु के बुलावे को महसूस किया, और 24 वर्ष की उम्र में उन्होंने काथलिक ईसाई धर्म को अपनाकर प्रभु येसु की उसी बुलाहट का पालन किया और बाद में वे न केवल मिशनरी धर्म बहन बनीं बल्कि मदर तेरेसा के बाद 1997 से 2009 तक सुपीरियर जनरल भी रहीं। उनका परिवार अमीर और इज्ज़तदार था, और एक ब्राह्मण परिवार था, उन्हें किसी चीज़ की कमीं नहीं थी क्योंकि उनके पिता उस समय की भारत की ब्रिटिश सेना में अफसर थे। लेकिन सिस्टर निर्मला ने मदर तेरेसा के द्वारा यह जाना कि ईश्वर दीन-दरिद्रों में निवास करता है, उनकी सेवा करने का मतलब है ईश्वर की सेवा करना है। उसी ईश्वर के प्यार की खातिर उन्होंने अपना सब कुछ छोड़ दिया, अपनी सुख-समृद्धि, अपना घर-परिवार और अपना समाज।

आज के सुसमाचार में हम एक विशाल जन समूह को देखते हैं जो प्रभु येसु के साथ-साथ चल रहा था। सुसमाचार के इस भाग से पहले हम विवाह भोज के दृष्टान्त को पढ़ते हैं जिसमें निमंत्रित लोग शामिल होने से इन्कार कर देते हैं और इसलिए राजा गली-चौकों से लोगों को बुलाकर लाने का आदेश देता है और उस भोज में बहुत सारे लोग शामिल हो जाते हैं इतने सारे कि स्वामी का घर भर जाता है। आज के सुसमाचार का जन समूह शायद उसी का प्रतीक है। प्रभु येसु सभी को बुलाते हैं, कोई बंदिश नहीं, कोई परीक्षा नहीं, और सब लोग प्रभु के पीछे आते भी हैं, लेकिन उनमें से सभी प्रभु येसु के शिष्य नहीं बन सकते क्योंकि प्रभु येसु के शिष्य बनना आसान नहीं है। कभी-कभी लोग एक दूसरे की देखा-देखी किसी एक रास्ते पर चल तो पड़ते हैं, लेकिन अगर उन्हें उस रास्ते के उतार-चढाव, कठिनाईयों, चुनौतियों इत्यादि के बारे में मालूम नहीं है तो, उस रास्ते पर शायद वो ज्यादा दूर तक नहीं जा पायेंगे। इसीलिए प्रभु येसु उनके भावी शिष्यों के लिए उनके रास्ते पर चलने की शर्ते स्पष्ट कर देना चाहते हैं।

सन्त मत्ती के अनुसार सुसमाचार के 22 वें अध्याय के पद संख्या 36-40 तक हम ‘संहिता में सबसे बड़ी आज्ञा’ के बारे में पढ़ते हैं, किसी शास्त्री के पूछने पर प्रभु येसु जवाब देते हैं, “अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो। यह सबसे बड़ी और पहली आज्ञा है।” (मत्ती 22:37-38)। हम जानते हैं कि ईश्वर हमें बिना शर्त और असीम प्यार करते हैं। वही सारी सृष्टि को नियंत्रित करते हैं, सब कुछ उन्हीं के हाथों में हैं, हमारी सांसें, हमारा जीवन हमारा सर्वस्व उसी का दिया हुआ है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए जीवन में सबसे बड़ी जिम्मेदारी और नियम यही है कि हम उसे सब कुछ से बढ़कर प्यार करें। जब प्रभु येसु हमें अपना शिष्य बनने के लिए बुलाते हैं तो उनके और हमारे बीच में कुछ भी नहीं आना चाहिए, न संसार, न घर-परिवार और ना समाज। हमें सब कुछ त्यागकर ईश्वर को प्यार करना है, प्रभु का अनुसरण करना है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन प्रभु येसु न केवल अपने परिवार और सगे-सम्बन्धियों को छोड़ने के लिये बल्कि उन से बैर करने के लिये क्यों कहते हैं?

स्वाभाविक रूप से हमारा हृदय प्रेम, लगाव, और अन्य भावनाओं का स्रोत एवं केंद्र है। हम जिसे भी प्यार करते हैं, उसके लिए अपने हृदय में जगह भी देते हैं, चाहे वे हमारे मित्र हों, माता-पिता हों, पत्नी, भाई-बहन आदि हों। जब हम ईश्वर की सबसे पहली आज्ञा का पालन पूरे ह्रदय से करने की ठान लें, तो ईश्वर से बढकर हमारे ह्रदय में कोई और नहीं हो सकता। जो बंधन हमें बांधे रखते हैं, जब तक हम उनसे मुक्त नहीं होंगे तब हम ईश्वर को सर्वोच्च स्थान नहीं दे पायेंगे। उदाहरण के लिए यदि हमारा कोई प्रियजन चाहे हमारे माता-पिता, या मित्र आदि हमसे सुसमाचार के मूल्यों के विरुद्ध जाने के लिए कहें, तो हम किसे अधिक महत्व देंगे, अपने प्रियजनों को जिन्हें हम बहुत प्यार करते हैं, या सुसमाचार को (ईश्वर को)? अपने प्रियजनों से पूर्ण रूप से विरक्त होना भी आसान नहीं है, इसलिये प्रभु येसु कुछ उदाहरणों द्वारा हमें आगाह करते हैं कि हमें सोच-समझकर, पूरी तरह से तोल-मोल कर प्रभु के रास्ते पर चलने का फैसला करना है, क्योंकि इसकी कीमत बहुत बड़ी है।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)