अमालेकी लोगों ने आ कर रेफीदीम में इस्राएलियों पर आक्रमण किया। मूसा ने योशुआ से कहा, "अपने लिए आदमियों को चुन लो और कल सुबह अमालेकियों से युद्ध करने जाओ। मैं हाथ में ईश्वर का डण्डा लिए पहाड़ी की चोटी पर खड़ा रहूँगा"। मूसा के आदेश के अनुसार योशुआ अमालेकियों से युद्ध करने निकला और मूसा, हारून तथा हूर पहाड़ी की चोटी पर चढ़े । जब तक मूसा हाथ ऊपर उठाये रखता था, तब तक इस्स्राएली प्रबल बने रहते थे और जब वह अपने हाथ गिरा देता था, तो अमालेकी प्रबल हो जाते थे। जब मूसा के हाथ थकने लगे, तो उन्होंने एक पत्थर ला कर भूमि पर रख दिया और मूसा उस पर बैठ गया । हारून और हूर उसके हाथ सँभालते रहे, पहला इस ओर से और दूसरा उस ओर से । इस तरह मूसा ने सूर्यास्त तक अपने हाथ ऊपर उठाये रखा । योशुआ ने अमालेकियों और उनके सैनिकों को तलवार के घाट उतार दिया ।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया, वही मेरी सहायता करेगा ।
1. मैं पर्वतों की ओर देखता रहता हूँ क्या वहाँ से मुझे सहायता मिलेगी? जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया, वही प्रभु मेरी सहायता करेगा।
2. वह तुम्हें कभी विचलित न होने दे, तुम्हारा रक्षक न सो जाये। नहीं ! इस्राएल की रक्षा करने वाला न तो सोता है और न झपकी लेता है।
3. प्रभु ही तुम्हारी रक्षा करता है, वह छाया की तरह तुम्हारे दाहिने रहता है। न तो दिन में सूर्य से तुम्हारी कोई हानि होगी और न रात में चंद्रमा से।
4. प्रभु तुम्हें बुराई से बचायेगा। वह तुम्हारी आत्मा की रक्षा करेगा। तुम जहाँ कहीं जाओगे, प्रभु तुम्हारी रक्षा करेगा, अभी और अनन्त काल तक ।
जो शिक्षा तुम्हें मिली है और जिस में तुम ने विश्वास किया है, उस पर आचरण करते रहो । याद रखो कि किन लोगों से तुम्हें यह शिक्षा मिली थी और कि तुम बचपन से धर्मग्रंथ जानते हो । धर्मग्रंथ तुम्हें उस मुक्ति का ज्ञान दे सकता है, जो येसु मसीह में विश्वास करने से प्राप्त होती है। पूरा धर्मग्रंथ ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया है और वह शिक्षा देने के लिए, भ्रान्त धारणा का खण्डन करने के लिए, जीवन के सुधार के लिए और सदाचरण का प्रशिक्षण देने के लिए उपयोगी है। इस कारण ईश्वर-भक्त धर्मग्रंथ द्वारा पूर्ण और हर प्रकार के सत्कार्य के लिए उपयुक्त हो जाता है। ईश्वर के सामने और जीवितों तथा मृतकों के न्यायकर्त्ता येसु मसीह के सामने, मैं मसीह के पुनरागमन तथा उनके राज्य के नाम पर, तुम से यह अनुरोध करता हूँ- सुसमाचार सुनाओ, समय-असमय लोगों से आग्रह करते रहो । बड़े धैर्य से तथा शिक्षा देने के उद्देश्य से लोगों को समझाओ, डाँटो और ढारस बँधाओ।
प्रभु की वाणी।
अल्लेलूया, अल्लेलूया ! प्रभु कहते हैं, "संसार की ज्योति मैं हूँ। जो मेरा अनुसरण करता है, उसे जीवन की ज्योति प्राप्त होगी ।" अल्लेलूया !
नित्य प्रार्थना करनी चाहिए और कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए- येसु ने यह समझाने के लिए उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया। "किसी नगर में एक न्यायकर्त्ता था, जो न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता था। उसी नगर में एक विधवा थी। वह उसके पास आ कर कहा करती थी, 'मेरे मुद्दई के विरुद्ध मुझे न्याय दिलाइए' । कुछ समय तक वह अस्वीकार करता रहा। बाद में उसने मन-ही-मन सोचा, 'मैं न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता हूँ, किन्तु वह विधवा मुझे तंग करती है; इसलिए मैं उसके लिए न्याय की व्यवस्था करूँगा, जिससे वह बार-बार आ-आ कर मेरी नाक में दम न करती रहे'।" प्रभु ने कहा, "सुनते हो कि वह अधर्मी न्यायकर्त्ता क्या कहता है? क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए, जो रात-दिन उसकी दुहाई देते रहते हैं, न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा? क्या वह उनके विषय में देर करेगा? मैं तुम से कहता हूँ - वह शीघ्र ही उनके लिए न्याय करेगा। परन्तु जब मानव पुत्र आयेगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास बचा हुआ पायेगा?"
प्रभु का सुसमाचार।
आज की पूजनविधि प्रार्थना की शक्ति की ओर हमारा ध्यान खिंचती है। ईश्वर अपने भक्तों की प्रार्थनापूर्ण पुकार को अनसुना नहीं कर सकता। पहले पाठ में हम देखते हैं कि किस तरह से योशुआ अपने दुश्मनों को पराजित करते हैं क्योंकि प्रभु का सेवक मूसा अपने दोनों हाथ उठाकर प्रार्थना में लीन था। दूसरा पाठ हमें संदेश देता है कि ईश वचन को हमारे जीवन का आधार और केंद्र बनाना है, उससे हमें मार्गदर्शन लेना है, ग़लतियों को सुधारना है और ईश्वर की पवित्र प्रजा बनना है। आज का सुसमाचार प्रार्थना में अटल बने रहने बार ज़ोर देता है।
बड़े-बड़े विद्वानों ने प्रार्थना की व्याख्या अनेक विचारों और शब्दों में की है और हमें प्रार्थना का अर्थ समझाया है। कोई कहता है कि प्रार्थना का मतलब है ईश्वर से बातें करना, अथवा अपने जीवन की समस्याओं को ईश्वर के समक्ष रखना, या अपना हृदय खुला रखकर प्रभु की प्रेरणा को सुनना, यही प्रार्थना कहलाती है। प्रार्थना एक परिवार या समुदाय में उसे आपस में जोड़े रखने वाला गोंद है। लेकिन प्रार्थना को वास्तव में समझने के लिए हम में से प्रत्येक व्यक्ति को खुद अपने लिए अनुभव करना पड़ेगा। प्रार्थना में हम ईश्वर से वह सब माँगते हैं जो हमारे लिए भला और उचित है। हम जानते हैं कि जब हम किसी को बहुत प्यार करते हैं या कोई हमें प्यार करता है तो हम उनसे अपने उस प्रेम के रिश्ते को बनाए रखने के लिए उनसे हमेशा टच में रहते में। कभी कभी तो कई घंटे उनसे बातें करने में निकल देते हैं। प्रार्थना हमारे स्वर्गीय पिता और हमारे बीच में निरंतर चलते रहने वाली वही बात-चीत है।
पवित्र बाइबल में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं जहाँ अलग-अलग अवसर पर लोगों ने प्रभु की दुहाई दी और प्रभु ने उनकी सुनी। जब सब तरफ़ से निराशा हाथ लगती है तब प्रार्थना ही नई आशा उत्पन्न करती है। जब हमें प्रभु की मदद की ज़रूरत है और हम अपने स्वर्गीय पिता को पुकारते हैं, तो वह अपने बच्चों की पुकार क्यों नहीं सुनेगा? प्रार्थना में आज भी अपार शक्ति है। जैसे योशुआ युद्ध के मैदान में जंग लड़ रहा था, उसी तरह हम भी अपने जीवन में तरह-तरह की जंग लड़ते हैं। शायद हम में से कुछ लोग अपनी पढ़ाई में सफलता नहीं पा रहे, हो सकता है नौकरी की परेशानी है, या बुरे लोगों से परेशान हैं, बुरी परिस्थितियों का सामना करते हैं, बीमारियों और कठिनाइयों का सामना करते हैं। हमारे पास सैकड़ों ऐसे कारण हैं जिनसे हम प्रभु को पुकार सकते हैं।
आजकल ऐसा देखने में आता है कि पारिवारिक प्रार्थना में भारी कमी आयी है। कहते हैं कि “जो परिवार एक साथ प्रार्थना करता है, वह सदा एक साथ बना रहता है।” यह शत-प्रतिशत सत्य भी है। इसी कारण हम देखते हैं कि हमारे आस-पास बहुत से परिवार टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, हमारे बच्चे अंधकारमय भविष्य का शिकार हो जाते हैं, और परिवार के सदस्यों में आपसी झगड़ा होता रहता है। इसका प्रमुख कारण है, एक साथ मिलकर परिवार में प्रार्थना ना करना। आज कल पवित्र बाइबल की जगह मोबाइल, इंस्टाग्राम, यूटूब, और दूसरे उपकरणों ने ले ली है। यदि हमें अपने जीवन के युद्ध में विजयी होना है तो हमें ईश्वर की ओर मुड़ना है, और पवित्र वचन को अपने जीवन का आधार बनाना है, नियमित प्रार्थना करनी है।
✍ - फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today’s liturgy reminds us of the importance of the power of prayer. God does not ignore the prayerful cries of His beloved servants. The first reading describes about how Joshua gains victory against the enemies because Moses, the great servant of God, was in constant union with God through prayer. Second reading talks about how the scripture is to be the centre of our life for guiding, learning, correcting, even for being people of prayer and people of God. The gospel today illustrates the importance of persistence and perseverance in prayer.
Many theologians and have described and defined prayer in many ways and many words. Some say a prayer is nothing but talking to God, or sharing our problems with God or just listening to God with open heart. Prayer is uniting force in the family or in the community. Each one of us will have to individually experience for ourselves what the prayer is. Prayer is asking God, all that is good for us. We know when we love someone deeply or are loved deeply, we keep up that relationship alive through constant communication with that person. Sometimes people talk for hours to the ones whom they love. Prayer is that communication between our loving Father and us, his loving children.
In the holy Bible we have so many instances where people prayed for different occasions and God heard them. When nothing could work, the prayer worked. When you are in need of help and asked for the same to the heavenly Father, why wouldn't he give an ear to his children? The power of prayer is relevant even today. As Joshua was fighting the enemy in the battlefield, similarly we have our own battles to be fought. Many of us may be struggling with studies, with the job, with unpleasant people around us, with unpleasant situations, with sickness and difficulties. There may be uncountable reasons to turn to God in prayer.
There has been a great change in the practice of family prayer. It is said, “A family that prays together, stays together.” And it is very much true. But we see many of our families are broken and many families are scattered, many children of ours are lost with uncertain future, division and descent in the family. The underlying reason for this is reduced practice of family prayer. The reading of the holy Bible have been replaced with the other devices and gadgets. If we want to gain victory in the battles of our life, we have to turn to God in prayer and make the word of God as the basis and centre of our daily life.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आज के पाठ लगातार प्रार्थना और पवित्र वचन की घोषणा की आवश्यकता पर जोर देते हैं। हम देखते हैं कि जब इस्राएली लोग अमालेकियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे, तब मूसा इस्राएलियों के लिए हाथ उठा कर प्रार्थना करने लगे। जब तक उनके हाथ ऊपर उठाये हुए थे, तब तक योशुआ के नेतृत्व में इस्राएलियों ने लड़ाई जीत ली, लेकिन जब भी उन्होंने अपने हाथ नीचे किये, तब अमालेकियों ने जीत हासिल की। जब मूसा शारीरिक रूप से थक गये, तब हारून और हूर की मदद से, उन्होंने भगवान के सामने अपने हाथों को ऊपर उठाये रखा। वे शारीरिक रूप से तो थके थे, परन्तु आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली थे। हमारे जीवन में हम लगातार बुराई के खिलाफ लड़ाई में लगे हुए हैं, हमें प्रार्थना में अपने घुटने टेकने और अपने हाथ उठाने की जरूरत है, ताकि हम शैतान के विरुध्द लड़ाई जीत सकें। सुसमाचार का पाठ हमें अपने कार्य में बने रहने वाली एक महिला के बारे में बताता है और उसे न्याय मिलता है। दूसरे पाठ में संत पौलुस ईश्वर के वचन की अथक घोषणा पर जोर देते हैं। वे तिमथी से कहते हैं, "सुसमाचार सुनाओ, समय-असमय लोगों से आग्रह करते रहो। बड़े धैर्य से तथा शिक्षा देने के उद्देश्य से लोगों को समझाओ, डाँटो और ढारस बँधाओ"। हमारे जीवन में, अगर हम इन दो बातों पर ध्यान दे सकते हैं, तो हम पवित्रता में बढ़ने में एक लंबा रास्ता तय कर सकते हैं - लगातार प्रार्थना और सुसमाचार की अथक घोषणा।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Today’s readings emphasise the need for persistent prayer and proclamation. We find Moses lifting his hands up in prayer for the Israelites when they were fighting the battle against Amalekites. As long as his hands were raised, the Israelites under the leadership of Joshua won the battle, but whenever he let his arms fall, the Amalekites won. When Moses was physically tired, with the help of Aaron and Hur his arms remained lifted up before God for God’s people. Moses was physically tired, but spiritually strong. In our life we are continually engaged in a battle against the evil one, we need to bend our knees and lift our hands in prayer, so that we can win the battle. The Gospel passage too tells us about a woman persistent in prayer and as a result she gets justice. In the second reading St. Paul insists on relentless proclamation of the Word of God. He tells Timothy, “preach the word, be urgent in season and out of season, convince, rebuke, and exhort, be unfailing in patience and in teaching” (2Tim 4:2). In our lives, if we can pay attention these two things, we can go a long way in growing in holiness – persistent prayer and relentless proclamation.
✍ -Fr. Francis Scaria
नदी चट्टान को तोडकर भी अपना मार्ग बना लेती है। जब कोई चट्टान नदी का रास्ता रोक लेती है तो नदी अपने पूरे प्रवाह के साथ चट्टान पर प्रहार कर लगातार दबाव बनाये रखती है। जब तक नदी रास्ता नहीं ढुंढ लेती तब तक वह निरंतर चट्टान के विरूद्ध डटी रहती है। नदी की सफलता का रहस्य उसकी धाराओं का प्रवाह नहीं बल्कि उसका सतत या दृढ़ (Persistence) प्रयत्न है जो वह चट्टान रूपी अवरोध के विरूद्ध जारी रखती है। नदी का प्रवाह शक्तिशाली होता है, किन्तु वह चट्टान को भेदने में असमर्थ होता है। लेकिन नदी का जिददी स्वाभाव एक न एक दिन चट्टान की मजबूती को तोड देता है। जीवन में स्थायी या दीर्घकालीन सफलता केवल हमारे गुणों और प्रतिभाओं के बल पर नहीं बल्कि हमारे सतत प्रयत्नों की जीवटता पर निर्भर करती है। जीवन में सफलता का रहस्य निरंतर किये जाने वाले कार्यों से हासिल होता है। यदि हम कोई भला कार्य कभी-कभार करें तो इससे ज्यादा लाभ नहीं किन्तु हम यह भला कार्य निरंतर करें तो यह कार्य कितनी भी छोटा क्यों न हो बहुत बडी सफलता में तब्दील हो जाता है।
हमारा आध्यात्मिक जीवन भी ’निरंतरता’ (Persistence) के इसी सिद्धांत पर चलता है। प्रभु न्यायकर्ता और विधवा के दृष्टांत के द्वारा यही सिखाते हैं ’’नित्य प्रार्थना करनी चाहिये और कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिये।’’ जब हम किसी तकलीफ में हो या विशेष आवश्यकता में पडें हो तो प्रार्थना करते हैं किन्तु अवसर निकल जाने के पश्चात हम प्रार्थना करना छोड देते हैं। कभी किसी उद्देश्य को लेकर भी हम प्रार्थना शुरू करते हैं किन्तु प्रार्थना में निरंतरता (Persistence) के अभाव में हम अपने उद्देश्य से दूर रहते हैं। यही हमारी असफलता का मुख्य कारण है। विधवा मजबूरी, बेबसी और लाचारी का प्रतीक है। उसकी मदद के लिये शायद ही कोई आये। ऐसी परिस्थिति में उसे न्याय वहॉ का न्यायकर्ता ही दिला सकता था। न्यायकर्ता ’न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता था।’ ऐसे कठोर और भ्रष्ट व्यक्ति से न्याय प्राप्ति की आशा करना ही समय और संसाधन की बर्बादी है। ऐसी विकट और निस्सहाय स्थिति में वह विधवा अपनी दृढता का परिचय देती है और रोजाना न्यायकर्ता से न्याय की गुहार लगाती है। सुसमाचार कहता कि यह प्रक्रिया ’बहुत समय’ तक चलती रही। न्यायकर्ता अपने स्वाभाव के अनुरूप विधवा की गुहारों को नज़रअंदाज करता रहा। किन्तु विधवा की रोज-रोज की टोकने की आदत से वह परेशान हो उठता है। अंत में वह अपने स्वाभाव के विपरीत उस विधवा को न्याय प्रदान करता है। विधवा के इस विजय का कारण केवल उसका ’निरंतर’ गुहार लगाना था। उसने केवल अपनी इस अविस्मणीय दृढता (Persistence) के दम पर न्याय हासिल कर लिया।
प्रभु कहते हैं कि जब हठी और गैर-जिम्मेदार न्यायकर्ता रोज-रोज के आग्रह से तंग आकर न्याय करने को मजबूर हो सकता है तो हमारा स्वर्गिक पिता, जो न्यायी, दयालु है क्या हमारे लिये देर करेगा। कदापि नहीं किन्तु प्रार्थना में हमारा दृष्टिकोण भी विधवा की दृढ़ता (Persistence) के समान होना चाहिये। जिस प्रकार विधवा ने बहुत समय तक निरंतर आग्रह किया उसी प्रकार हमें भी प्रार्थना को दृढ़ता के साथ निरंतर करना चाहिये। हमारी इस दृढ़ता तथा सतता को देखकर ईश्वर हमें न्याय अवश्य प्रदान करेंगे। यदि हमने प्रार्थना की है और उसका समुचित उत्तर नहीं पाया है तो इसका कारण यही हो सकता है कि हम नित्य प्रार्थना नहीं कर पाये हो या कुछ समय बाद यह सोचकर कि कुछ नहीं हो रहा हम हत्तोसाहित हो गये हो।
दुराग्रह करने वाले मित्र के दृष्टांत से प्रभु यही बात हमें बताते हैं कि भले ही परिस्थितियॉ विपरीत तथा प्रतिकूल हो किन्तु यदि हमारा प्रार्थनामय आग्रह जारी रहे तो हम चमत्कारिक रूप से ईश्वरीय कृपायें प्राप्त कर सकते हैं।
न्यायकर्ताओं के गं्रथ में इस्राएलियों के बेनयामीनवंशियों से युद्ध को प्रार्थना में निरंतर आग्रह के उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। इस्राएलियों ने प्रभु से पूछकर बेनयामीनवंशियों से युद्ध किया किन्तु पहले दिन वे बुरी तरह हार गये। किन्तु हार निराश न होकर वे प्रभु के सामने पुनः विलाप करते हैं। प्रभु उन्हें उत्तर देता है, ’’हॉ, उनके विरूद्ध लडने जाओ।’’ किन्तु इस बार भी इस्राएली सेना हार जाती है। दो दिन में उनके 40 हजार योद्धा मार डाले जाते हैं। वे पुनः ईश्वर के पास जाकर उपवास एवं प्रार्थना करते हैं। प्रभु उन्हें पुनः लडने का आदेश देता है। इस बार इस्राएली सेना विजय प्राप्त करती है। (देखिये न्यायकर्ताओं 20:14-48) इतनी बार प्रार्थना करने के बावजूद वे हार जाते हैं किन्तु वे ईश्वर से प्रार्थना करना और सहायता मॉगना नहीं छोडते। उनका ’निरंतर आग्रह’ (Persistence) अंत में उन्हें विजय प्रदान करता है।
निर्गमन ग्रंथ में जब इस्राएली अमालेकियों से लडाई करते हैं तो मूसा इस दौरान उनके लिये हाथ ऊपर उठाये रखता था। तब इस्राएली प्रबल बने रहते थे। किन्तु ज्यों ही मूसा अपने हाथ नीचे करता वे हारने लगते थे। इसलिये हारून और हूर मिलकर मूसा के हाथ संभालते रहे। इस प्रकार मूसा सूर्यास्त तक अपने हाथ ऊपर उठाये रखे जिससे इस्राएली युद्ध में विजय प्राप्त कर सके। (देखिये निर्गमन 17:8-16)
हमारा प्रार्थनामय जीवन भी मूसा के हाथों के समान है। जब तब वे प्रार्थना में उठे रहते हैं हम प्रबल बने रहते हैं तथा ज्यों हमारी प्रार्थना शिथिल पडने लगता है हम कमजोर होने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों मंय विभिन्न प्रकार की सहायता से हमें अपनी प्रार्थनाओं को जारी रखना चाहिये जिससे हम अंत में विजयी हो।
✍ -फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन