
उस विद्रोही, दूषित और कठोर हृदय नगर को धिक्कार ! उसने न तो कभी प्रभु की वाणी पर ध्यान दिया और न कभी उसकी चेतावनी ही स्वीकारी। उसने कभी प्रभु पर भरोसा नहीं रखा। वह कभी उसकी शरण में नहीं गया। मैं लोगों के होंठ फिर शुद्ध करूँगा, जिससे वे सब के सब प्रभु का नाम लें और एक हृदय हो कर उसकी सेवा करें। एथोपिया की नदियों के उस पार से मेरे बिखरे हुए उपासक चढ़ावा लिये मेरे पास आयेंगे। उस दिन तुम्हें लज्जित नहीं होना पड़ेगा - तुम्हारे बीच मेरे विरुद्ध कोई पाप नहीं किया जायेगा, क्योंकि मैं तुम लोगों में से डींग हाँकने वाले अहंकारियों को दूर करूँगा। उसके बाद मेरे पवित्र पर्वत पर कोई भी घमंड नहीं करेगा। मैं तुम लोगों के देश में एक विनम्र एवं दीन प्रजा को छोड़ दूँगा। जो इस्राएल में रह जायेंगे, वे प्रभु के नाम की शरण लेंगे। वे अधर्म नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे और छल-कपट की बातें नहीं करेंगे। वे खायेंगे- पियेंगे और विश्राम करेंगे और कोई भी उन्हें भयभीत नहीं करेगा।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : दीन-हीन ने प्रभु की दुहाई दी। प्रभु ने उसकी सुनी और उसे बचा लिया।
1. मैं सदा ही प्रभु को धन्य कहूँगा, मेरा कण्ठ निरन्तर उसकी स्तुति करता रहेगा। मेरी आत्मा प्रभु पर गौरव करेगी। विनम्र सुन कर आनन्दित हो उठेंगे।
2. जो प्रभु की ओर दृष्टि लगाता है, वह आनन्दित होगा उसे कभी लज्जित नहीं होना पड़ेगा। दीन-हीन ने प्रभु की दुहाई दी। प्रभु ने उसकी सुनी और उसे हर प्रकार की विपत्ति से बचा लिया।
3. प्रभु कुकर्मियों से मुँह फेर लेता और पृथ्वी पर से उनकी स्मृति मिटा देता है। धर्मी प्रभु को दुहाई देते हैं। वह उनकी सुनता। और हर प्रकार की विपत्ति में उनकी रक्षा करता है।
4. प्रभु दु:खियों से दूर नहीं है। जिनका मन टूट गया, वह उन्हें सँभालता है। प्रभु अपने सेवकों की आत्मा को छुड़ाता है I जो प्रभु की शरण में जाता है, वह कभी नष्ट नहीं होगा।
अल्लेलूया ! हे प्रभु! आने में देर न कर अपनी प्रजा के पाप क्षमा कर। अल्लेलूया !
येसु ने महायाजकों और जनता के नेताओं से कहा, "तुम लोगों का क्या विचार है? किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उसने पहले के पास जा कर कहा, बेटा! जाओ, आज दाखबारी में काम करो। ' उसने उत्तर दिया, 'जी हाँ, पिताजी!' किन्तु वह गया नहीं। पिता ने दूसरे पुत्र के पास जा कर यही कहा। उसने उत्तर दिया, 'मैं नहीं जाऊँगा', किन्तु बाद में उसे पश्चात्ताप हुआ और वह गया। दोनों में से किसने अपने पिता की इच्छा पूरी की?" उन्होंने येसु को उत्तर दिया, "दूसरे ने। " इस पर येसु ने उन से कहा, "मैं तुम लोगों से कहे देता हूँ- नाकेदार और वेश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे। योहन तुम्हें धार्मिकता का मार्ग दिखाने आया और तुम लोगों ने उसपर विश्वास नहीं किया, परन्तु नाकेदारों और वेश्याओं ने उस पर विश्वास किया। यह देख कर तुम्हें बाद में भी पश्चात्ताप नहीं हुआ और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया।
प्रभु का सुसमाचार।
पवित्र बाइबिल के अनुसार यदि हम मनुष्य के इतिहास, पृष्ठभूमि और सभ्यता पर विचार करें तो हमें यह पाते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को रचा, बनाया, स्थापित किया और उसके साथ रहा। यह था ईश्वर का शाश्वत विधान जो मनुष्य को उसकी और उसकी आजाओं के प्रति कर्मठ एवं ईमानदार होने पर सदा प्रेरित करता रहा। लेकिन मनुष्य अपने नियमूलंधन द्वारा ईश्वर से दूर होता चला गया। आज के पाठ और सुसमाचार द्वारा माता कलीसिया हम सबों को यह याद कराती है कि हमें सदैव ईश्वर की वाणी पर ध्यान देना और उसका अनुसरण करना है जो हमारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। नबी सफन्याह द्वारा इस्राएल के हठ को ईश्वर नकारते हैं और उसके घमंड की निरर्थकता को सिद्ध करते हैं। वहीं सुसमाचार में प्रभु येशु दो पुत्रों के दृष्टान्त को माध्यम बनाकर उन हठी यहुदियो के घमंड और उनकी अज्ञानता की उपेक्षा करते हैं और उन्हें धार्मिकता के मार्ग पर शीघ्र अति शीघ्र चलने के लिए न्यौता देता हैं। पाठों का मूल संदेश संक्षिप्त में यह है कि हमें ईश्वर की वाणी को समझने और उस पर विश्वास लाने के लिए अपने घमंड का त्याग करना होगा।
✍ब्रदर टिंकु कुमार - ग्वालियर धर्मप्रांतAccording to the Holy Bible, when we reflect upon human history, background, and civilization, we find that God created man, established him, and remained with him. This was God’s eternal plan, which continually inspired humanity to be diligent and faithful to Him and to His commandments. Yet, through disobedience and stubbornness, man kept drifting away from God. Through today’s first reading and the Gospel, Mother Church reminds us that we must always listen attentively to God’s Word and follow it, for it paves the way to our salvation. In the book of Zephaniah, God rejects the obstinacy of Israel and reveals the futility of their pride. In the Gospel, Jesus uses the parable of the two sons as an example to expose the stubborn pride and ignorance of the Jews, inviting them instead to walk quickly and sincerely on the path of righteousness. The central message of these readings, in brief, is this: in order to understand and truly believe in the Word of God, we must renounce our pride.
✍ -Bro. Tinku Kumar (Gwalior Diocese)
इस दुनिया के लोगों को दो तरह के लोगों में बाँट सकते हैं - एक तरह के वे लोग जो आज के में दिए गए पहले पुत्र के समान हैं और दूसरे लोग दूसरे पुत्र के समान हैं। दोनों ही पुत्र उसी पिता के थे, और उसने दोनों की समान रूप से परवरिश की और दोनों को एक समान वातावरण एवं सुविधाएं मिलीं। उस पिता की उन दोनों से एक समान आशाएं थीं। एक पुत्र मन का साफ था, उसने अपने पिता से स्पष्ट बोल दिया कि वह काम करने नहीं जाएगा, लेकिन बाद में उसे बुरा लगा इसलिए वह गया। उसके लिए काम करना जरूरी था न कि चिकनी-चुपड़ी बातें करना। लेकिन दूसरे पुत्र के लिए लुभावनी बातें करना महत्वपूर्ण था न कि काम करना।
नाकेदार और वेश्या को समाज में सब लोग पापियों के रूप में ही जानते थे। यह बात किसी से नहीं छुपी थी कि ये लोग धर्म से परे और ईश्वर से दूर थे। लेकिन जब उन्हें पश्चाताप का बुलावा मिला तो उन्होंने अपना मन फिराया और अपने पाप स्वीकार किये और पश्चाताप किया। वहीं दूसरी ओर वे लोग थे जो दूसरों की नज़रों में बड़े पवित्र और धार्मिक समझे जाते थे, लेकिन यह केवल बाहरी दिखावा था, आंतरिक रूप से वे ईश्वर से बहुत दूर थे, और ईश्वर की इच्छा का पालन करने से उनका दूर-दूर का संबंध नहीं था। हम विचार करें, मैं किस प्रकार का व्यक्ति हूँ? क्या मैं पहले पुत्र के समान हूँ जो अपने पिता को बातों से प्रसन्न नहीं करता बल्कि उसकी इच्छा पूरी करता है, या दूसरे पुत्र के समान जिसकी बातें और कार्य एक दूसरे के विपरीत हैं?
✍ -फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
The people can be divided into two categories - one category is of the people who are like the first son of today’s gospel passage, and another like the second son. Both sons belonged to the same father who gave them same opportunities to grow and provided same environment and facilities. He also had same expectation from them. One had the courage to explicitly tell that he didn’t want to do what his father told him, but later felt bad and went. What was important for him, was to do what was to be done, not just the words of acceptance. For other son the empty words of assurance were important, not the actual action.
The prostitutes and tax collectors were acclaimed sinners, everyone in the society knew that they were far away from God and religion. But when they were called for repentance and change of heart, they realized their mistake and repented. On the other hand there were people who were considered to be religious, holy and closer to God. But that was only external show, internally they were far away from God and had nothing to do with what God wanted from them. Which kind of person am I? is it like the first son who doesn’t want to please with words but does according to the will of his father, or like the second son whose actions contradict his words?
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आज के सुसमाचार में दो बेटों का दृष्टांत है - एक जो आज्ञाकारिता की घोषणा करता है, लेकिन पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता है और दूसरा जो अवज्ञा की घोषणा करता है लेकिन पिता की आज्ञा का पालन करता है। हम इन दोनों पुत्रों की तुलना उडाऊ पुत्र के दृष्टान्त के दो पुत्रों से कर सकते हैं। छोटे पुत्र ने खुद को पिता से शारीरिक रूप से दूर कर लिया लेकिन उसके दिल में पिता के साथ एक बंधन था। दूसरी ओर बड़ा बेटा अपने घर में पिता के साथ रह रहा था, लेकिन उस में पिता के साथ दिल की निकटता नहीं थी। उसने पिता से कुछ पुरस्कार प्राप्त करने की अपेक्षा की। कहना पर्याप्त नहीं है, लेकिन हमें अपने कार्यों के माध्यम से अपने विश्वास को प्रमाणित करने की आवश्यकता है। संत पौलुस कहते हैं, ''यदि हम ईसा मसीह से संयुक्त हैं तो न ख़तने का कोई महत्व है और न उसके अभाव का। महत्व विश्वास का है, जो प्रेम से अनुप्रेरित है।” (गलात्तियों 5:6)। हमें चाहिए कि एक सक्रिय और जीवित विश्वास को अपने जीवन में पोषित करें।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
In the Gospel we have the parable of the two sons – one who declares obedience, but does not obey and the other who declares disobedience but obeys. We can compare these two sons with the two sons of the story of the prodigal son. The prodigal son distanced himself physically from the father but at heart he had a binding with the father. On the other hand the elder son was staying with the father in his house, but he did not have a closeness of the heart with the father. He served the Father expecting to receive some rewards. Saying is not enough but we need to reflect our faith through our actions. St. Paul says, “For in Christ Jesus neither circumcision nor uncircumcision counts for anything; the only thing that counts is faith working through love” (Gal 5:6). An active and living faith is what we need to cultivate.
✍ -Fr. Francis Scaria