प्रभु ने सीनय पर्वत पर मूसा से यह कहा, "वर्षों के सात सप्ताह, अर्थात् सात बार सात वर्ष, तद्नुसार उनचास वर्ष बीत जाने पर तुम सातवें महीने के दसवें दिन, प्रायश्चित्त के दिन, देश भर में तुरही बजवाओगे। यह पचासवाँ वर्ष तुम लोगों के लिए एक पुण्य वर्ष होगा और तुम देश में यह घोषित करोगे कि सभी निवासी अपने दासों को मुक्त कर दें। यह तुम्हारे लिए जयन्ती वर्ष होगा – प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फिर प्राप्त करेगा और प्रत्येक अपने कुटुम्ब में लौटेगा। पचासवाँ वर्ष तुम्हारे लिए जयन्ती वर्ष होगा – उस में तुम न तो बीज बोओगे, न पिछली फसल काटोगे और न अनछँटी दाखलताओं के अंगूर तोड़ोगे, क्योंकि यह जयन्ती वर्ष है। तुम उसे पवित्र मानोगे और खेत में अपने आप उगी हुई उपज खाओगे।" "उस जयन्ती वर्ष में प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फिर प्राप्त करेगा। जब तुम किसी देशभाई के हाथ कोई जमीन बेचते हो अथवा उस से खरीद लेते हो, तो तुम एक दूसरे के साथ बेईमानी मत करो। जब तुम किसी देशभाई से कोई जमीन खरीदते हो, तो उसका ध्यान रखो कि पिछले जयन्ती वर्ष के बाद कितने बरस बीत गये हैं और बाकी फसलों की संख्या के अनुसार बेचने वाले को विक्रय-मूल्य निर्धारित करना चाहिए। जब अधिक बरस बाकी हों, तो मूल्य अधिक होगा और यदि कम बरस बाकी हों, तो मूल्य कम होगा; क्योंकि वह तुम्हें फसलों की एक निश्चित संख्या बेचता है। तुम अपने देशभाई के साथ बेईमानी मत करो, बल्कि अपने ईश्वर पर श्रद्धा रखो, क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु-ईश्वर हूँ।"
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : हे ईश्वर ! राष्ट्र तेरी स्तुति करें, सभी राष्ट्र तेरी स्तुति करें।
1 हे ईश्वर। हम पर दया कर और हमें आशिष दे, हम पर प्रसन्न हो कर दयादृष्टि कर। पृथ्वी के निवासी तेरा मार्ग समझ लें, सभी राष्ट्र तेरा मुक्ति-विधान जान जायें।
2. सभी राष्ट्र उल्लसित हो कर आनन्द मनायें, क्योंकि तू न्यायपूर्वक संसार का शासन करता है। तू निष्पक्ष हो कर पृथ्वी के देशों का शासन करता और सभी राष्ट्रों का संचालन करता है।
3. पृथ्वी ने फल उत्पन्न किया है, क्योंकि हमारे ईश्वर ने हमें आशीर्वाद दिया है। ईश्वर हमें आशीर्वाद प्रदान करता रहे और समस्त पृथ्वी उस पर श्रद्धा रखे।
अल्लेलूया ! धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण अत्याचार सहते हैं- स्वर्गराज्य उन्हीं का है। अल्लेलूया !
उस समय राजा हेरोद येसु की चरचा सुनने लगा और उसने अपने दरबारियों से कहा, "यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह ये महान् चमत्कार दिखा रहा है।" हेरोद ने अपने भाई फिलिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था; क्योंकि योहन ने उस से कहा था, "उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है।" हेरोद योहन को मार डालना चाहता था, किन्तु वह जनता से डरता था; क्योंकि वह योहन को नबी मानती थी। हेरोद के जन्म-दिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को इतना मुग्ध कर लिया कि उसने शपथ खा कर वचन दिया, "जो भी माँगो मैं तुम्हें दे दूँगा।" उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, "मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए।" हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया। उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी। योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर येसु को इसकी सूचना दी।
प्रभु का सुसमाचार।
योहन बपतिस्ता और राजा हेरोद दोनों ही एकदम विपरीत स्वभाव और व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। योहन बपतिस्ता के पास ना तो कोई सांसारिक शक्ति थी, न धन-दौलत या महल। वह आराम या सुख की खोज में नहीं रहता था। उसे नाम और शोहरत नहीं चाहिए था, वह तो प्रभु का अग्रदूत मात्र था। मसीह के जूते का फ़ीता खोलने योग्य भी नहीं था। वहीं दूसरी ओर हेरोद के पास सांसारिक शक्ति और बल था। अनगिनत नौकर, सेवक और सैनिक थे। सब प्रकार की सुख सुविधा थी। वह सब कुछ था जो आधुनिक युग में भी हर किसी का सपना होता है। लेकिन उसके पास सत्य की शक्ति नहीं थी, इसलिए वह डरपोक था, उसके पास नैतिकता की पोशाक नहीं थी इसलिए उसे अपने ही दरबारियों के सामने शर्मिंदा होने का डर था। वहीं योहन बपतिस्ता के साथ सत्य का सामर्थ्य था इसलिए वह हेरोद के धन-बल से भी नहीं डरता था। वह पवित्र और सादा जीवन जीता था, इसलिए उसे लालच या सुख की लालसा नहीं थी। ये दोनों व्यक्ति आज की दुनिया के दो तरह के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सवाल यह है कि हम इन दोनों में से किस तरह के लोगों में शामिल हैं?
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)John the Baptist and King Herod were two individuals with completely opposite natures and personalities. John the Baptist had no worldly power, no wealth or palace. He did not seek comfort or luxury. He did not desire fame or popularity; he was merely a forerunner of the Lord. He even said he was not worthy to untie the straps of the Messiah’s sandals. On the other hand, Herod had worldly power and might. He had countless servants, attendants, and soldiers. He had all kinds of luxury and comfort — everything that, even in today’s world, many dream of. But he lacked the power of truth, and so he was a coward. He did not wear the robe of morality, and thus feared being humiliated in front of his own courtiers. John the Baptist, however, had the strength of truth and therefore was not afraid of Herod’s wealth or power. He lived a holy and simple life, and thus had no desire for greed or pleasure. These two men represent two kinds of people in today’s world. The question is: which of the two do we belong to?
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)
सत्य के लिए आवाज़ उठाने वालें बहुत ही हिम्मत वाले रहते हैं परंतु सत्य के लिए आवाज़ उठाने वाले, सत्य को उजागर करने वाले, या सत्य की राह पर चलने वाले बहुत ही कम होते है। योहन बपतिस्ता सत्य के साक्षी थे इसलिए वे निडरता पूर्वक सत्य का साथ देते थे। सत्य के लिए आवाज़ बनने के कारण उनको मरवा दिया जाता है। लोग मनुष्य का तो अंत कर सकते है परंतु वे उस आवाज़ को कभी नहीं नष्ट कर सकते जो सत्य की ओर है। सच्चाई को इस संसार की कोई भी ताकत नष्ट नहीं कर सकती, इसलिए हम सभी को सत्य के साथ खड़े रहनें की जरूरत है।
✍फादर डेन्नीस तिग्गाThose who raise their voice for the truth are very courageous, but there are very few who raise their voice for the truth, bring forth the truth, or follow the path of truth. John the Baptist was a witness to the truth, so he fearlessly supported the truth. He was killed for being the voice for the truth. People can destroy a man but they can never destroy the voice which is towards truth. Truth cannot be destroyed by any power in this world, so we all need to stand by the truth.
✍ -Fr. Dennis Tigga
जब हमारे मन में बुराई घर बना लेती है तो वह और दूसरी ऐसी चीज़ों को जन्म देती है जो हमें और अधिक गहरे पापों में धकेल देती हैं, दूसरी ओर जब हम निडरता से सत्य के साथ खड़े होते हैं, तो बुराई भी हमसे डरने लगती है. इसका जीता-जागता उदाहरण हम आज के सुसमाचार में देखते हैं. सन्त योहन बप्तिस्ता सत्य का जीवन जीते थे, अपने वचनों द्वारा निडर होकर ईश्वर का साक्ष्य देते थे, अपने जीवन द्वारा अपनी शिक्षाओं को प्रमाणित भी करते थे. वहीँ दूसरी ओर राजा हेरोद जिसके मन में बुराई ने घर कर लिया था, पाप ने उसे अपने चंगुल में फँसा लिया था, वह राजा होते हुए भी एक साधारण से दिखने वाले मामूली से इन्सान से डरता था.
सत्य के निडर सिपाही योहन बपतिस्ता का डर राजा हेरोद के मन में इस कदर समाया था, कि उसको अन्याय पूर्ण तरीके से मार डालने के बावजूद उसकी याद उसके मन में बनी हुई थी, इसलिए जब वह उसी सत्य के निडर सिपाही के दर्शन प्रभु येसु में करता है तो एक बार फिर डर जाता है. उसका डर उसके इन्ही शब्दों से बाहर आता है - कहीं यह योहन तो नहीं जिसे मैंने मरवा डाला था! हम जब भी कुछ गलत करते हैं, पाप करते हैं, अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध जाते हैं तो हम चैन से नहीं जी सकते. हमारा अपराध किसी न किसी रूप में हमें परेशान करता ही रहता है. मन की शान्ति पाने का एकमात्र उपाय है, अपनी गलती मानते हुए पश्चातापी करुणामय पिता के पास अपने पाप स्वीकार कर क्षमा माँगनी है.
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)When evil makes it dwelling place within us, then it gives birth to many other things that push us deeper into sin, whereas when we boldly stand with truth, the evil cannot withstand us. We see a living example of this in the gospel today. St. John the Baptist lived a life of Truth, he boldly bore witness to God through his life, and lived what he taught. On the other hand Herod being a king, whose heart was filled with darkness and evil, who was fully under the clutches of sin, was afraid of an ordinary homeless man.
The fear of the brave soldier of Truth, St. John the Baptist, was so much in his heart that, even after killing him unjustly, was afraid even of his memory. When saw same boldness and life of Truth in Jesus, he recalled John the Baptist. His fear is expressed in his own words from his mouth – “This is John the Baptist; he has been raised from the dead.” Whenever we commit sin or do wrong or go against our conscience, our heart cannot remain at peace. The guilt of sin keeps on bothering us, making us restless. There is only one way to attain the peace of mind, and that is, to accept the sinfulness, repent and turn to God and implore forgiveness, perhaps He may forgive us and accept us. Amen.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)