योशुआ ने इस्त्राएलियों से यह कहा, "प्रभु पर श्रद्धा रखो और ईमानदारी तथा सच्चाई से उसकी उपासना करो। उन देवताओं का बहिष्कार करो; जिनकी उपासना तुम्हारे पूर्वज फ़रात् नदी के उस पार और मिस्र में किया करते थे। तुम प्रभु की उपासना करो। यदि तुम ईश्वर की उपासना नहीं करना चाहते, तो आज ही तय कर लो कि तुम किसकी उपासना करना चाहते हो – उन देवताओं की, जिनकी उपासना तुम्हारे पूर्वज नदी के उस पार करते थे अथवा अमोरियों के देवताओं की, जिनके देश में तुम रहते हो। मैं और मेरा परिवार, हम सब प्रभु की उपासना करना चाहते हैं।" लोगों ने उत्तर दिया, "प्रभु को छोड़ कर अन्य देवताओं की उपासना करने का विचार हम से कोसों दूर है। हमारे प्रभु-ईश्वर ने हमें और हमारे पूर्वजों को दासता के घर से, मिस्र देश से निकाल लिया है। उसी ने हमारे सामने महान् चमत्कार दिखाये हैं। हम बहुत लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं, बहुत-से राष्ट्रों से हो कर यहाँ तक आये हैं, और सर्वत्र उसी ने हमारी रक्षा की है। हम भी प्रभु की उपासना करना चाहते हैं, क्योंकि वही हमारा ईश्वर है।" तब योशुआ ने लोगों से कहा, "तुम प्रभु की उपासना नहीं कर सकोगे, क्योंकि वह पवित्र ईश्वर है, असहनशील ईश्वर है; वह तुम्हारे अपराध और पाप नहीं क्षमा करेगा। यदि तुम प्रभु को त्याग कर अन्य देवताओं की उपासना करोगे, तो यद्यपि वह तुम्हारी भलाई करता रहा, फिर भी वह तुम्हारी बुराई करेगा और तुम्हें नष्ट कर देगा।" लोगों ने योशुआ से कहा, "नहीं ! हम प्रभु की उपासना करेंगे।" तब योशुआ ने लोगों से कहा, "तुम लोग अपने विरुद्ध साक्षी हो, कि तुमने प्रभु को चुन लिया और उसी की उपासना करोगे।" उन्होंने उत्तर दिया, "हम साक्षी हैं।" इस पर योशुआ ने कहा, "तब तो अपने पास के पराये देवताओं का बहिष्कार करो और अपना मन ईश्वर में, इस्राएल के प्रभु में लगाओ।" लोगों ने योशुआ को यह उत्तर दिया, "हम प्रभु, अपने ईश्वर की उपासना करेंगे और उसी की बात मानेंगे।" योशुआ ने उसी दिन लोगों के साथ समझौता कर लिया। उसने सिखेम में उनके लिए संविधान और अध्यादेश बनाया। इसके बाद उसने उन बातों को प्रभु की संहिता के ग्रन्थ में लिख दिया। उसने बलूत के नीचे, प्रभु के मंदिर में एक बड़ा पत्थर खड़ा कर दिया और सब लोगों से कहा, "यह पत्थर हमारे विरुद्ध साक्ष्य देगा, क्योंकि इसने उन सब बातों को सुना, जिन्हें प्रभु ने हमें बताया। इसलिए यह तुम्हारे विरुद्ध साक्ष्य देगा, जिससे तुम अपने ईश्वर को अस्वीकार नहीं करो।" इसके बाद योशुआ ने लोगों को अपनी-अपनी भूमि में भेज दिया। इन घटनाओं के बाद प्रभु के सेवक, नून के पुत्र योशुआ का, एक सौ दस बरस की उमर में, देहान्त हुआ।
अनुवाक्य : हे प्रभु ! तू ही मेरा भाग्य है।
1. हे प्रभु ! तुझ पर ही भरोसा है। तू मेरी रक्षा कर। मैं प्रभु से कहता हूँ, "तू ही मेरा ईश्वर है।" हे प्रभु ! तू मेरा सर्वस्व और मेरा भाग्य है। तेरे ही हाथों में मेरा जीवन है।
2. मैं अपने परामर्शदाता ईश्वर को धन्य कहूँगा। मेरा अन्तःकरण रात को भी मुझे मार्ग दिखाता है। प्रभु सदा मेरी आँखों के सामने रहता है। वह मेरे दाहिने विद्यमान है, इसलिए मैं दृढ़ बना रहता हूँ।
3. तू मुझे जीवन का मार्ग दिखायेगा। तेरे पास रह कर परिपूर्ण आनन्द प्राप्त होता है, तेरे दाहिने सदा के लिए सुख-शांति है।
अल्लेलूया ! हे पिता ! हे स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने राज्य के रहस्यों को निरे बच्चों के लिए प्रकट किया है। अल्लेलूया !
उस समय लोग येसु के पास बच्चों को लाते थे, जिससे वह उन पर हाथ रख कर प्रार्थना करें। शिष्य लोगों को डाँटते थे, परन्तु येसु ने कहा, "बच्चों को आने दो और उन्हें मेरे पास आने से मत रोको, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन जैसे लोगों का है।" और वह बच्चों पर हाथ रख कर वहाँ से चले गये।
प्रभु का सुसमाचार।
स्वर्ग का राज्य बच्चों के समान लोगों का है। हमें में से हर एक व्यक्ति स्वर्ग में जाना जाता है और प्रभु येसु हम सभी को बताते है कि स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए हमें बच्चों जैसा बन जाना अर्थात् हममें बच्चों के समान मनोभाव होने की जरूरत हैं। बच्चों का दिल और मन साफ रहता है और वे हमेशा माता पिता पर निर्भर रहतंे है; ठीक उसी प्रकार हमें भी अपने मन को निर्मल बनाये रखने की जरूरत है तथा हमारे जीवन को ईश्वर पर निर्भर रखने की जरूरत है।
✍फादर डेन्नीस तिग्गाThe kingdom of heaven belongs to childlike people. Everyone of us want to go to heaven and Lord Jesus tells us that to enter heaven we need to become like children, that is, we need to have the attitude of children. Children have a pure heart and mind and are always dependent on their parents; In the same way we also need to keep our mind pure and our life dependent on God.
✍ -Fr. Dennis Tigga
आज के सुसमाचार में येसु कहते हैं - "इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं, कि कोई अपके मित्रों के लिए अपना प्राण दे दे।" प्रभु येसु ने निश्चित रूप से हमारे लिए यही किया। बाद में येसु आगे कहते हैं कि हम उनके द्वारा चुने गये हैं कि हम जाकर फल उत्पन्न करें, फल जो बना रहे। इससे पहले, येसु ने कहा था - "मैं सच्ची दाखलता हूँ"। उसके चेले वे डालियां हैं जो दाखलता से जीवन लेती हैं और फल देती हैं, स्थायी फल, बना रहने वाला फल।
हम देख सकते हैं कि यह सब संत मैक्सिमिलियन पर कैसे लागू होता है। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो बिना किसी हिचकिचाहट के एक भाई के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार थे, एक अजनबी जिसे वह वास्तव में नहीं जानता था। यह वह प्रेम है जिसके बारे में येसु बोलते हैं। और ज़ाहिर है, यह एक ऐसा कार्य है जिसे भुलाया नहीं गया है। यह आज तक फल देता है और हमें अपने भाई-बहनों की निःस्वार्थता से देखभाल करने के लिए प्रेरित करता है।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतIn the Gospel today Jesus says - “No one has greater love than this, to lay down one’s life for one’s friends”. Which, of course, is just what Jesus did for us. To love as he loves is to be ready to do exactly this. And who are our ‘friends’? They are those who have this love also.
Later in the passage Jesus says that we have been chosen by him to go out and bear fruit, fruit that will endure. Earlier, Jesus had said, “I AM the True Vine”. His disciples are those who are branches taking life from the vine and bearing fruit, lasting fruit.
We can see how all of this applies so aptly to Maximilian. Here is someone who unhesitatingly was ready to give his life for a brother, a stranger whom he did not really know. This is the love that Jesus speaks of. And, of course, it is an act that has not been forgotten. It bears fruit to this day and inspires us to imitate such great unselfishness and care for our brothers and sisters.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya