न्यायकर्ताओं के समय देश में अकाल पड़ा, इसलिए यूदा के बेथलेहेम का एक मनुष्य, अपने पत्नी और अपने दोनों पुत्रों के साथ, मोआब के मैदान में बसने आया। नोयमी का पति एलीमेलेक मर गया और वह अपने दोनों पुत्रों के साथ रह गयी। इन्होंने मोआबी स्त्रियों के साथ विवाह किया- एक ओर्फा कहलाती थी और दूसरी रूत। उन्होंने दस बरस तक वहाँ निवास किया। इसके बाद महलोन और किल्योन भी मर गये और नोयमी अपने दोनों पुत्रों और अपने पति से वंचित रही। तब उसने अपनी बहुओं के साथ मोआब के मैदान से चल देने का निश्चय किया, क्योंकि उसने सुना था कि प्रभु ने अपनी प्रजा की सुधि ली और उसे खाने के लिए रोटी दी थी। दोनों बहुएँ फूट-फूट कर रोने लगीं। ओर्फा अपनी सास को गले लगा कर अपने लोगों के यहाँ लौट गयी, किन्तु रूत ने अपनी सास का साथ नहीं छोड़ा। नोयमी ने उस से कहा, "देखो, तुम्हारी जेठानी अपने लोगों और अपने देवताओं के पास लौट गयी है। तुम भी अपनी जेठानी की तरह लौट जाओ।" किन्तु रूत ने उत्तर दिया, "इसके लिए अनुरोध न कीजिए कि मैं आप को छोड़ दूँ और लौट कर आप से दूर हो जाऊँ। आप जहाँ जायेंगी, वहाँ मैं भी जाऊँगी और आप जहाँ रहेंगी, वहाँ मैं भी रहूँगी। आपकी जाति मेरी भी जाति होगी और आपका ईश्वर मेरा भी ईश्वर होगा।" इस प्रकार नोयमी अपनी मोआबी बहू रूत के साथ मोआब के मैदान से लौटी। वे जौ की कटनी के प्रारंभ में बेथलेहेम पहुँची।
अनुवाक्य : मेरी आत्मा प्रभु की स्तुति करे। (अथवा अल्लेलूया !)
1. धन्य है वह, जिसका सहायक याकूब का ईश्वर है, जो अपने प्रभु-ईश्वर पर भरोसा रखता है। उसी प्रभु ने स्वर्ग और पृथ्वी बनायी, समुद्र भी, और जो कुछ उन में है।
2. प्रभु सदा ही सत्यप्रतिज्ञ है। वह पद्दलितों को न्याय दिलाता है, वह भूखों को तृप्त करता और बंदियों को मुक्त कर देता है।
3. वह अन्धों की आँखों को अच्छा करता और फुके हुए को सीधा करता है, वह परदेशी की रक्षा करता और अनाथ तथा विधवा को सँभालता है।
4. प्रभु धर्मियों को प्यार करता और विधर्मियों के मार्ग में बाधा डालता है। प्रभु, सियोन का ईश्वर, युगानुयुग राज्य करता रहेगा।
अल्लेलूया ! हे मेरे ईश्वर ! मुझे अपने मार्ग सिखा, तू मुझे अपनी सच्चाई के मार्ग पर ले चल। अल्लेलूया !
जब फ़रीसियों ने यह सुना कि येसु ने सदूकियों का मुँह बन्द कर दिया था, तो वे इकट्ठे हो गये और उन में से एक शास्त्री ने येसु की परीक्षा लेने के लिए उन से पूछा, "गुरुवर? संहिता में सब से बड़ी आज्ञा कौन-सी है !” येसु ने उस से कहा, "अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो। यह सब से बड़ी और पहली आज्ञा है। दूसरी आज्ञा इसी के सदृश है अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इन्हीं दो आज्ञाओं पर समस्त संहिता और नबियों की शिक्षा अवलंबित हैं।"
प्रभु का सुसमाचार।
ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना येसु ने न केवल हमें सिखाया परंतु उन्होंनें कू्रस पे मरण तक ईश्वर की आज्ञाओं को पूर्णता तक निभाया। येसु आज के सुसमाचार में शास्त्री द्वारा पूछे गये प्रश्न पर संहिता की दो सब से बड़ी आज्ञाओं के बारे में बताते है- ईश्वर को सारे ह्दय, सारी आत्मा और सारी बुद्धि से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना। यदि हम केवल ये दो आज्ञाओं का पालन करते हुए भी जीवन बितायेंगे तो हमारा जीवन इस संसार में सफलता और पूर्णता तक पहुँच जाएगा। और जीवन का मकसद साकार हो जाएगा क्योंकि इसके अलावा हमें और किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी।
✍फादर डेन्नीस तिग्गाNot only did Jesus teach us to obey God's commandments, but He completely obeyed God's commandments until His death on the cross. In today's Gospel, being asked by the scribe about the two greatest commandments of the law, Jesus answers - to love God with all your heart, with all your soul and with all your mind, and to love your neighbor as yourself. If we live our lives obeying only these two commandments, then our lives will reach to success and perfection in this world. And the purpose of life will be realized because apart from this we will not need anyone else.
✍ -Fr. Dennis Tigga
यद्यपि आज के सुसमाचार में येसु से पूछा गया प्रश्न उतने अच्छे उद्देष्य से नहीं पूछा गया था परन्तु वह प्र्श्न अपने आप में एक बहुत ही अच्छा प्रश्न है। येसु के समय यहूदी कानून में याने तोराह में 600 से अधिक आज्ञाएँ मानी जाती थीं। लोगों ने सवाल पूछा, 'क्या कोई एक आज्ञा थी जो अन्य सभी के ऊपर हो ?' फरीसियों के प्रश्न के उत्तर में यीशु ने जितना पूछा गया था उससे अधिक गहरा उत्तर दिया। उन्होंने न केवल सबसे महत्वपूर्ण आज्ञा दी, बल्कि जिसे वे स्वयं दो सबसे महत्वपूर्ण आज्ञा मानते थे।
दोनों आज्ञाओं में जो समान है वह है 'प्रेम' शब्द। ईश्वर के प्रति प्रेम हमारा प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए; केवल ईश्वर को ही हमारे पूरे अस्तित्व, हमें हमारे पूरे दिल, आत्मा और बुद्धि से प्यार करना है। येसु इस प्रथम आज्ञा को दूसरी महत्वपूर्ण आज्ञा से जोड़ते हैं और वो है, पड़ोसी के प्रति प्रेम। ऐसा लगता है कि येसु कह रहे हैं कि जो लोग पूरी तरह से ईश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं, वे दूसरों के प्रति ईश्वर के प्रेम में बरबस ही बंध जाएंगे। वे दूसरों से उसी प्रकार प्रेम करेंगे जैसे ईश्वर उनसे प्रेम करता है। येसु अपने जीवन में प्रेम के इन दोनों पहलुओं को साकार करते हैं। इन दिनों में जब संसार में ईश्वर के नाम पर दूसरों को इतना कष्ट दिया जाता है, तो इन दो अविभाज्य आज्ञाओं को याद रखना अच्छा है। ये हमारे बपतिस्मा की बुलाहट का सार हैं तथा एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। हम ईश्वर और एक दूसरे के प्रति प्यार में निरंतर बढ़ते रहें।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतThe motivation underpinning the question that the Pharisees ask Jesus in today's gospel reading left a lot to be desired. Yet, even though the motive for asking the question was suspect, the question itself was a very good one. There were considered to be over 600 commandments in the Jewish Law at the time of Jesus. Devout people asked the question, ‘Was there any one commandment that should stand above all the others?’ In answer to the question of the Pharisees Jesus gave more than he was asked for. He not only gave the most important commandment but what he considered to be the two most important commandments.
What is common to both commandments is the word ‘love’. God is to be the primary object of our love; God alone is to be loved with all our being, all our heart, soul and mind. Jesus seems to have been unique in linking this primary commandment with another commandment which was found in a different place in the Scriptures to that first commandment, the love of the neighbour. Jesus seems to be saying that those who truly love God with all their being will be caught up into God’s love of others, will love others in the way God loves them. Jesus is the one human being who fully embodies the two-fold love. His love for God was so total, his loving communion with God was so complete, that he became the perfect expression of God’s love for others. In these days when so much suffering can be inflicted on others in the name of God, it is good to be reminded of these two inseparable commandments. They are the essence of our baptismal calling.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya