भाइयो ! आप स्वयं जानते हैं कि आप लोगों के यहाँ मेरा आगमन व्यर्थ नहीं हुआ है। आप जानते हैं कि हमें इसके ठीक पहले फ़िलिप्पी में दुर्व्यवहार और अपमान सहना पड़ा था, फिर भी हमने ईश्वर पर भरोसा रख कर, घोर विरोध का सामना करते हुए, निर्भीकता से आप लोगों के बीच सुसमाचार का प्रचार किया। हमारा उपदेश न तो भ्रम पर आधारित है, न दूषित अभिप्राय से प्रेरित है और न उस में कोई छल-कपट है। ईश्वर ने हमें योग्य समझ कर सुसमाचार सौंपा है। इसलिए हम मनुष्यों को नहीं, बल्कि हमारा हृदय परखने वाले ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उपदेश देते हैं। आप लोग जानते हैं और ईश्वर भी इसका साक्षी है कि हमारे मुख से चाटुकारी की बातें कभी नहीं निकलीं और न हमने लोभ से प्रेरित हो कर कुछ किया। हमने मनुष्यों का सम्मान पाने की चेष्टा नहीं की न आप लोगों का और न दूसरों का; यद्यपि हम मसीह के प्रेरित होने के नाते अपना अधिकार जता सकते थे। उलटे, अपने बच्चों का लालन-पालन करने वाली माता की तरह हमने आप लोगों के साथ कोमल व्यवहार किया। आपके प्रति हमारी ममता तथा हमारा प्रेम यहाँ तक बढ़ गया था कि हम आप को सुसमाचार के साथ अपना जीवन भी अर्पित करना चाहते थे।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : हे प्रभु ! तू मेरी थाह लेता और मुझे जानता है।
1. हे प्रभु ! तू मेरी थाह लेता और मुझे जानता है। मैं चाहे लेदूँ या बैठ जाऊँ तू जानता है। तू दूर रहते हुए भी मेरे विचार भाँप लेता है। मैं चाहे चलूँ या लेट जाऊँ तू देखता है। मैं जो भी करता हूँ तू सब जानता है।
2. मेरे मुँह से बात निकल ही नहीं पायी कि तू उसे पूरी तरह जान गया। तू मुझे आगे से और पीछे से सँभालता है, तेरा हाथ मेरी रक्षा करता रहता है। तेरी यह सूक्ष्मदृष्टि मेरी समझ के परे है। यह इतनी गहरी है कि मैं उसकी थाह नहीं ले सकता।
अल्लेलूया ! ईश्वर का वचन जीवन्त और सशक्त है। वह हमारी आत्मा के अन्तरतम तक पहुँच जाता है। अल्लेलूया !
येसु ने यह कहा, "ऐ ढोंगी शास्त्रियो और फ़रीसियो ! धिक्कार तुम लोगों को ! तुम पुदीने, सौंफ़ और जीरे का दशमांश तो देते हो; किन्तु न्याय, दया और ईमानदारी, संहिता की मुख्य बातों की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना तुम्हारे लिए उचित था। अंधे नेताओ ! तुम मच्छर छानते हो, किन्तु ऊँट निगल जाते हो।" "ऐ ढोंगी शास्त्रियो और फरीसियो ! धिक्कार तुम लोगों को ! तुम प्याले और थाली को बाहर से तो माँजते हो, किन्तु भीतर वे लूट और असंयम से भरे हुए हैं। रे अंधे फ़रीसी ! पहले भीतर से प्याले को साफ़ कर लो, जिससे वह बाहर से भी साफ़ हो जाये।"
प्रभु का सुसमाचार।
फरीसियों और शास्त्रियों को धिक्कारने के क्रम में आज प्रभु येसु उनकी प्राथमिकताओं पर सवाल उठाते हैं। वे नियमों को बढ़ा -चढ़ा कर लोगों के सामने पेश करते थे। ऐसा करते समय वे अक्सर अपने स्वार्थ के कारण या अन्य कारणों से धर्म के जिन पहलुओं पर उन्हें जोर देना चाहिए, वे उन पर जोर न देकर वे अन्य कम महत्वपूर्ण पहलुओं पर जोर देते थे। वे छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखते थे लेकिन जीवन और धर्म के लिए महत्वपूर्ण दया, करुणा, न्याय आदि को नजरंदाज कर देते थे। ईश्वर दया चाहते हैं लेकिन वे बाहरी दिखावे के लिए बड़ी कठोरता से नियमों का पालन करवाना चाहते थे। उनके अंदर, मन में क्या गंदगी भरी है उसे भुलाकर वे बाहरी साफ-सफाई पर ध्यान देते थे। अगर प्रभु के वचन और शिक्षा के ज्ञाता थे, तो उनका मन शुद्ध होना चाहिए था, उनका जीवन पूर्ण रूप से बदल जाना चाहिए था, लेकिन प्रभु के नियमों और शिक्षाओं का उन पर कोई असर नहीं होता था। अगर उनका मन साफ होता तभी वे प्रभु की इच्छा जान पाते, प्रभु के लिए क्या महत्वपूर्ण है यह जान पाते। हम अपने मन में झाँककर देखें क्या हमारा मन और हृदय साफ है?
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)In denouncing the Pharisees and the scribes, Jesus questions their priorities today. They exaggerated the laws and presented them before the people, and in doing so, often out of selfish motives or other reasons, they emphasized less important aspects of religion while neglecting the ones they should have stressed. They paid attention to trivial matters but ignored what was essential for life and faith—mercy, compassion, justice, and the like. God desires mercy, but they insisted on enforcing rules with great rigidity for the sake of outward appearances. Forgetting the filth within their hearts and minds, they focused only on outward cleanliness. If they were truly knowledgeable in the Word and teachings of the Lord, their minds should have been pure and their lives completely transformed, but the laws and teachings of the Lord had no real impact on them. Only if their hearts were pure could they have known the will of the Lord and understood what truly mattered to Him. We too must look within ourselves and ask: is our mind and heart pure?
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)