भाइयो ! हम चाहते हैं कि आप लोगों को मृतकों के विषय में निश्चित जानकारी हो। कहीं ऐसा न हो कि आप उन लोगों की तरह शोक मनायें, जिन्हें कोई आशा नहीं है। हम तो विश्वास करते हैं कि येसु मर गये और फिर जी उठे। जो येसु में विश्वास करते हुए मर गये हैं, ईश्वर उन्हें उसी तरह येसु के साथ पुनर्जीवित कर देगा। हमें मसीह से जो शिक्षा मिली है, उसके आधार पर हम आप से यह कहते हैं - हम जो प्रभु के आने तक जीवित रहेंगे, मृतकों से पहले ही महिमा में प्रवेश नहीं करेंगे। क्योंकि जब आदेश दिया जायेगा और महादूत की वाणी तथा ईश्वर की तुरही सुनाई पड़ेगी, तो प्रभु स्वयं स्वर्ग से उतरेंगे। जो मसीह में विश्वास करते हुए मर गये, वे पहले जी उठेंगे, इसके बाद हम, जो उस समय तक जीवित रहेंगे, उनके साथ बादलों में आरोहित किये जायेंगे और आकाश में प्रभु से मिलेंगे। इस प्रकार हम सदा प्रभु के साथ रहेंगे।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : प्रभु पृथ्वी का न्याय करने आ रहा है।
1. प्रभु के आदर में नया गीत गाओ। समस्त पृथ्वी प्रभु का भजन सुनाये। सभी राष्ट्रों में उसकी महिमा का बखान करो। सभी लोगों को उसके अपूर्व कार्यों का गीत सुनाओ।
2. प्रभु महान् है और अत्यन्त प्रशंसनीय। अन्य राष्ट्रों के देवता निस्सार हैं- हमारा प्रभु ही परम श्रद्धेय है। प्रभु ने आकाश का निर्माण किया है।
3. स्वर्ग में आननद हो और पृथ्वी पर उल्लास, सागर की लहरें गरज उठें, खेतों के पौधे खिल जायें और वन के सभी वृक्ष आनन्द का गीत गायें।
4. क्योंकि प्रभु का आगमन निश्चित है। वह पृथ्वी का न्याय करने आ रहा है। वह धर्म और सच्चाई से संसार के राष्ट्रों का शासन करेगा।
अल्लेलूया ! प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है। उसने मुझे दरिद्रों को सुसमाचार सुनाने भेजा है। अल्लेलूया !
येसु नाजरेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक दी गयी। पुस्तक खोल कर येसु ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा है; प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बंदियों को मुक्ति का और अधों को दृष्टि-दान का संदेश दूँ, दलितों को स्वतंत्रता प्रदान करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ। येसु ने पुस्तक बंद कर दी और उसे सेवक को दे कर वह बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर लगी हुई थीं। तब वह उन से कहने लगे, "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है।" सबों ने उनकी प्रशंसा की। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचंभे में पड़ गये और कहने लगे, "क्या यह योसेफ का बेटा नहीं है?" येसु ने उन से कहा, "तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे- ऐ वैद्य ! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।" फिर येसु ने कहा, “मैं तुम से कहे देता हूँ - अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं। फिर भी एलियस उन में से किसी के पास नहीं भेजा गया वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था। और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में से कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही नीरोग किया गया था।" यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये। वे उठ खड़े हुए और उन्होंने येसु को नगर से बाहर निकाल दिया। जिस पहाड़ी पर उनका नगर बसा था, वे येसु को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें; परन्तु वह उनके बीच से निकल कर चले गये।
प्रभु का सुसमाचार।
लूकस 4:16-30 से लिए हुए आज का सुसमाचार हमें ईश्वर की योजना और मनुष्य की अपेक्षाओं के बीच की खाई पर विचार करने आमंत्रित करता है। प्रभु येसु नबी इसायस द्वारा ईश्वर की भविष्य-वाणी को अपने में पूरा होने का सुसमाचार सुना रहे थे तो उनके नगर-वासियों ने जरुर उनकी शिक्षा की प्रशंसा की। लेकिन उसे अपना नहीं सके ! क्योंकि वे दुनियाई राजा का इंतजार कर रहे थे! क्या यही बात हमारे साथ भी होता है? या हम ईश्वर की बातों के लिए अपना हृदय खुला रखते हैं? प्रभु येसु के नगर-वासी तो उन्हें देखे और उनकी सुने। लेकिन क्या हम प्रभु की सुन सकते हैं? जरुर! लेकिन कैसे? ईश्वर आज भी हम से बातें करते हैं। संत अम्ब्रोस ने कहा है, "जब हम प्रार्थना करते हैं, तब हम ईश्वर से बातें करते हैं; और जब हम दिव्य वचन पढ़ते हैं, तब हम उसकी सुनते हैं।" क्या आप भी उनकी सुनना चाहते हैं? पवित्र बाइबिल खोलिए और पढ़िए! तो प्रिय भाइयो और बहनो, आइए हम नाजरेत के लोगों के समान न बनें, जिन्होंने प्रभु येसु की प्रशंसा तो की, परंतु उन्हें स्वीकार नहीं किया। हम ऐसे शिष्य बनें जो केवल वचन को सुनते ही नहीं, बल्कि उसे जीते भी हैं। यदि आप सचमुच उनकी आवाज़ सुनना चाहते हैं, तो अपनी बाइबिल खोलिए, प्रतिदिन पढ़िए, और आप ईश्वर की जीवित वाणी को आपसे बोलते हुए सुनेंगे।
✍ - फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट
In today’s Gospel taken from Luke 4:16–30, we are invited to reflect on the gap between God’s plan and human expectations. When the Lord Jesus proclaimed the Good News that the prophecy of God through the prophet Isaiah was fulfilled in Him, His townspeople surely admired His teaching. But they could not accept it as their own! Because they were waiting for a worldly king! Does the same thing happen with us? Or do we keep our hearts open to the words of God? The townspeople of the Lord Jesus saw Him and heard Him. But can we listen to the Lord? Certainly! But how? God still speaks to us today. St. Ambrose has said, “We speak to him (God) when we pray; we listen to him when we read the divine oracles (Holy Bible)” (CCC 2654). Do you also want to listen to Him? Open the Holy Bible and read! So dear friends, let us not be like the people of Nazareth who admired but did not accept Jesus. Let us be disciples who not only hear the Word, but also live it. If you truly want to listen to Him, open your Bible, read it daily, and you will hear the living voice of God speaking to you.
✍ -Fr. George Mary Claret
आज का सुसमाचार हमारे सामने येसु के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में से एक को प्रस्तुत करता है। येसु ने सभाग्रह में उपस्थित लोगों को इसायाह, अध्याय 61 की भविष्यवाणी को पढ़ कर सुनाया और घोषणा की कि वही भविष्यवाणी उनके सुनने में पूरी हो रही थी। दूसरे शब्दों में, येसु स्वयं को मसीह, यानि इश्वर का अभिषिक्त, घोषित कर रहे थे और उन्हें सौंपे गए कार्य थे दरिद्रों को सुसमाचार सुनाना, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश देना, दलितों को स्वतन्त्र करना और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करना। इक्किसवाँ पद उनके श्रोताओं की तत्काल प्रतिक्रिया को दर्ज करता है। "सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते थे"। जैसे-जैसे लोगों के साथ उनका विचार-विनिमय आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे भीड़ उनके खिलाफ हो जाती है। संत लूकस कहते हैं, “यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये। वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें” (वाक्य 28-29)। प्रभु येसु मानव जाति को उनके पापों से बचाने के लिए दुनिया में आए। उन्होंने उस कार्य पर ध्यान केंद्रित किया। चापलूसी और आलोचना उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। वे कभी भीड़ को खुश नहीं करना चाहते थे। उन्होंने वही किया जो अपने स्वर्गिक पिता को प्रसन्न करता था। हमें भी, ख्रीस्तीय होने के नाते, हमें सौंपे गए कार्यों से कभी भी नजर नहीं हटानी चाहिए। आइए हम ईश्वरीय इच्छा को विवारना और पालन करना सीखें।
✍ - फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया
Today’s Gospel presents before us one of the most significant moments in the life of Jesus. Jesus read from the prophesy of Isaiah 61 and declared that this very same prophecy was being fulfilled in their hearing. In other words, Jesus was declaring himself to be the messiah, the anointed one of God and that the tasks entrusted to him were to bring good news to the poor, to proclaim release to the captives and recovery of sight to the blind, to let the oppressed go free, and to proclaim the year of the Lord’s favour. Verse 21 records the immediate response of his listeners. “All spoke well of him and were amazed at the gracious words that came from his mouth”. As his encounter with the people progressed, the same crowd turned against him. “When they heard this, all in the synagogue were filled with rage. They got up, drove him out of the town, and led him to the brow of the hill on which their town was built, so that they might hurl him off the cliff.” (VV. 28-29). Jesus came into the world to save the humanity from their sins. He concentrated on that task. Flattery and criticism did not matter to him. He never wanted to please the crowd. He did only what pleased the Father in heaven. As Christians we should never lose sight of the tasks entrusted to us. Let us learn to discern and obey.
✍ -Fr. Francis Scaria
नाज़रेथ के लोगों के मन में बहुत ही आश्चर्य होता है जब वे येसु को उनके सभागृह में बोलते हुए सुनते हैं। प्रारंभ में हमें बताया गया कि 'वे उनके मुख से निकले अनुग्रहपूर्ण शब्दों को सुनकर चकित थे'। हालाँकि, उपदेश समाप्त होने के बाद वे उन पर क्रोधित होकर उन्हें उस पहाड़ी से नीचे फेंकने के लिए शहर से बाहर निकाल दिया, जिस पर नासरत बसा था।
दरअसल येसु ने शुरू में घोषणा की कि वे सुसमाचार याने शुभसंदेश सुनाने आये हैं, खासकर गरीबों, टूटे और जरूरतमंदों के लिए। नासरत के लोग इस खुशखबरी से खुश थे, लेकिन जब तक येसु ने अपनी खुशखबरी बोलना पूरी की, तब तक उनके कानों में बुरी खबर आ चुकी थी। इसका कारण यह था कि येसु ने यह घोषणा की कि उनका सुसमाचार का मिशन केवल इस्राएल के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्यजातियों के लिए भी था, जैसे नबी एलिय्याह और एलीशा ने इस्राएल के बाहर के लोगों के बीच सेवकाई और नबूवत की थी।
येसु ने अपने नगरवासियों के ईश्वर के प्रति संकीर्ण, राष्ट्रवादी, दृष्टिकोण को चुनौती दी, और उन्हें यह पसंद नहीं आया। येसु हमेशा ईश्वर के बारे में हमारे दृष्टिकोण को चुनौती देते हैं। ईश्वर, हम जितना उन्हें सोचते हैं उससे कई गुना महान है। केवल येसु के वचनों और कार्यों पर लगातार चिंतन करने से ही हम ईश्वर की गहराई को जानना शुरू करेंगे। और उन्हें पूरी तरह से तो हम इस लोक के जीवन के बाद ही जान पाएंगे। आइये हम येसु के द्वारा ईश्वर के प्रेम की ऊंचाई, गहराई, और चौड़ाई को जानें।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतThere is a very striking change of mood among the people of Nazareth as they listen to Jesus speak in their synagogue. Initially we are told that ‘they were astonished by the gracious words that came from his lips’. However, by the time Jesus had finished speaking ‘everyone in the synagogue was enraged’, so much so that they hustled Jesus out of the town with a view to throwing him down from the brow of the hill Nazareth was built on. Jesus initially declared that he had come to proclaim good news, especially to the poor, the broken and needy. The people of Nazareth were delighted with this good news, but by the time Jesus had finished speaking his good news had become bad news in their ears. The reason for this was because Jesus went on to announce that his mission of good news was not just to the people of Israel but to the pagans as well, just as the prophets Elijah and Elisha ministered to people outside of Israel.
Jesus challenged his townspeople’s narrow, nationalistic, view of God, and they did not like it. Jesus always challenges our view of God. There is always more to God than we imagine; it is only by constantly reflecting on the words and deeds of Jesus that we even begin to know God. It is only in the next life that we will know God as fully as God now knows us.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya