वर्ष का तेईसवाँ सप्ताह, मंगलवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

कलोसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 2:6-15

"ईश्वर ने आप को मसीह के साथ पुनर्जीवित किया है और आपके सब अपराधों को क्षमा किया है।"

आपने मसीह को प्रभु येसु के रूप में स्वीकार किया; इसलिए उन्हीं से संयुक्त हो कर जीवन बितायें । उन्हीं में आपकी जड़ें गहरी हों और नींव सुदृढ़ हो । आप को जिस विश्वास की शिक्षा प्राप्त हुई है, उसी में दृढ़ बने रहें और आपके हृदयों में धन्यवाद की प्रार्थना उमड़ती रहे । सावधान रहें । कहीं ऐसा न हो कि कोई आप लोगों को ऐसे खोखले और भ्रामक दर्शनशास्त्र द्वारा बहकाये, जो मनुष्यों की परम्परागत शिक्षा के अनुसार है और मसीह पर नहीं, बल्कि संसार के तत्त्वों पर आधारित है। क्योंकि मसीह में ईश्वरीय तत्त्व की परिपूर्णता अवतरित हो कर निवास करती है और उन में आप इस परिपूर्णता के सहभागी हैं। मसीह विश्व की सभी शक्तियों और अधिकारों के शीर्ष हैं - सभी मसीह के अधीन हैं। उन्हीं में आप लोगों का खतना भी हुआ है। वह ख़तना हाथ से नहीं किया जाता, वह मसीह का खतना अर्थात् बपतिस्मा है, जिसके द्वारा पापमय शरीर को उतार दिया जाता है। आप लोग बपतिस्मा के समय मसीह के साथ दफ़नाये गये और उन्हीं के साथ पुनर्जीवित भी किये गये हैं, क्योंकि आप लोगों ने ईश्वर के सामर्थ्य में विश्वास किया, जिसने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया है। आप लोग पापों के कारण और अपने स्वभाव के खतने के अभाव के कारण मर गये थे। ईश्वर ने आप लोगों को मसीह के साथ पुनर्जीवित किया है और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया है। उसने नियमों का वह बन्धपत्र, जो हमारे विरुद्ध था, रद्द कर दिया और उसे क्रूस पर ठोंक कर उठा दिया है। उसने विश्व की प्रत्येक शक्ति और अधिकार को अपदस्थ कर दिया, संसार की दृष्टि में उन को नीचा दिखाया और क्रूस के द्वारा उन्हें परास्त कर दिया।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 144:1-2,8-11

अनुवाक्य : प्रभु सबों का कल्याण करता है।

1. हे मेरे ईश्वर ! मेरे राजा ! मैं तेरी स्तुति करूँगा। मैं सदा-सर्वदा तेरा नाम धन्य कहूँगा। मैं दिन-प्रतिदिन तुझे धन्य कहूँगा, मैं सदा-सर्वदा तेरे नाम की स्तुति करूँगा ।

2. प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है, वह सहनशील और अत्यन्त प्रेममय है। प्रभु सबों का कल्याण करता है, वह अपनी सारी सृष्टि पर दया करता है

3. हे प्रभु ! तेरी सारी सृष्टि तेरा धन्यवाद करे; तेरे भक्त तुझे धन्य कहें। वे तेरे राज्य की महिमा गायें और तेरे सामर्थ्य का बखान करें।

📒जयघोष

अल्लेलूया ! प्रभु कहते हैं, "मैंने तुम्हें चुना है जिससे तुम जा कर फल उत्पन्न करो, और तुम्हारा फल बना रहे ।" अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 6:12-19

"वह रात भर प्रार्थना में लीन रहे। उन्होंने बारह को चुन कर उनका नाम 'प्रेरित' रखा।"

उन दिनों येसु प्रार्थना करने के लिए एक पहाड़ी पर चढ़े और वह रात भर ईश्वर की प्रार्थना में लीन रहे। दिन होने पर उन्होंने अपने शिष्यों को पास बुलाया और उन में से बारह को चुन कर उनका नाम 'प्रेरित' रखा सिमोन (जिसे उन्होंने पेत्रुस नाम दिया) और उसके भाई अंद्रेयस को; याकूब और योहन को; फिलिप और बरथोलोमी को; मत्ती और थोमस को; अलफाई के पुत्र याकूब और सिमोन को, जो 'उत्साही' कहलाता है; याकूब के पुत्र यूदस इसकारियोती को, जो विश्वासघाती निकला । येसु उनके साथ उतर कर एक मैदान में खड़े हो गये। वहाँ उनके बहुत-से शिष्य थे और समस्त यहूदिया तथा येरुसालेम का और समुद्र के किनारे तीरुस तथा सिदोन का विशाल जनसमूह भी था, जो उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से मुक्त होने के लिए आया था। येसु ने अपदूतग्रस्त लोगों को चंगा किया। सभी लोग येसु को स्पर्श करने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योंकि उन से शक्ति निकल रही थी और सब को चंगा कर रही थी।

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

जब हम प्रार्थना करने जाते हैं तो हम अपनी योजनाओं को ईश्वर को बताकर उसे पूरी करने की मांग करते हैं। लेकिन प्रभु येसु अपने पिता की इच्छा जानने प्रार्थना किया करते थे। संत लूकस रचित सुसमाचार में विशेष रूप से बहुत सारी ऐसी घटनाओं का वर्णन है। लूकस 6:1-5 से लिए हुए आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने प्रेरितों को चुनने से पहले प्रार्थना करते हुए पाए जाते हैं। इसके विषय में काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा 2600 कहता है, “संत लूकस के अनुसार सुसमाचार, पवित्र आत्मा की क्रियाशीलता और मसीह के मिशन-कार्य में प्रार्थना के महत्व पर विशेष बल देता है। येसु अपने मिशन के निर्णायक क्षणों से पहले प्रार्थना करते हैं: अपने बपतिस्मा और रूपांतरण के समय पिता द्वारा दी गई गवाही से पहले, और अपने दुःखभोग के द्वारा पिता की प्रेमपूर्ण योजना को पूरा करने से पहले। (लूकस 3:21; 9:28; 22:32) वे अपने प्रेरितों के मिशन से जुड़े निर्णायक क्षणों से पहले भी प्रार्थना करते हैं: बारह प्रेरितों का चुनाव और बुलावे से पहले, पेत्रुस के उनके बारे में “ईश्वर का मसीह” स्वीकार करने से पहले, और फिर से जब प्रमुख प्रेरित पेत्रुस का विश्वास परीक्षा में न डगमगाए, इसके लिए। (लूकस 6:12; 9:18-20; 11:1; 22: 41-44) पिता द्वारा उनसे पूरी कराई जाने वाली मुक्ति-घटनाओं से पहले येसु की प्रार्थना उनके मानव-इच्छा का विनम्र और विश्वासपूर्ण समर्पण है, जो पिता की प्रेममयी इच्छा को स्वीकार करता है। प्रभु येसु के समान क्या हम भी ईश्वर की इच्छा जानने हमेशा प्रार्थना करने जायेंगे? आइए हम प्रभु येसु से सीखें।

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

When we go to pray, we usually tell God our own plans and demand Him to fulfill them. But the Lord Jesus used to pray in order to know the will of His Father. In the Gospel written by St. Luke, there are many such events described. In today’s Gospel, taken from Luke 6:1–5, we find the Lord Jesus praying before choosing His apostles. Regarding this, the Catechism of the Catholic Church, 2600, says: “The Gospel according to St. Luke emphasizes the action of the Holy Spirit and the meaning of prayer in Christ’s ministry. Jesus prays before the decisive moments of His mission: before His Father’s witness to Him during His Baptism and Transfiguration, and before His own fulfillment of the Father’s plan of love by His Passion (Luke 3:21; 9:28; 22:32). He also prays before the decisive moments involving the mission of His apostles: at His election and call of the Twelve, before Peter’s confession of Him as ‘the Christ of God,’ and again that the faith of the chief of the Apostles may not fail when tempted (Luke 6:12; 9:18-20; 11:1; 22:41-44). Jesus’ prayer before the events of salvation that the Father has asked Him to fulfill is a humble and trusting commitment of His human will to the loving will of the Father.” Like the Lord Jesus, shall we also go to prayer always to know God’s will? Let us learn this from the Lord Jesus.

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन - 2

येसु के जीवन में, हम देखते हैं कि वे पहाड़ों पर और सुनसान जगहों में प्रार्थना में लंबा समय व्यतीत करते थे। उनकी प्रार्थना अक्सर गुप्त होती थी। उन्होंने अपने शिष्यों को भी गुप्त रूप से, एकान्त में प्रार्थना करने को कहा। प्रार्थना प्रभु ईश्वर के साथ एक विशेष क्षण है। यह एक गहन क्षण होना चाहिए, किसी के द्वारा अविचलित। मूसा, एलिय्याह और दानिएल ने प्रार्थना के ऐसे गहन क्षणों का आनंद लिया। ऐसी तीव्र प्रार्थना में व्यक्ति अपने आस-पास और स्वयं को ही भूल जाता है। 1 समुएल 1 में, हम हन्ना को शीलो के मन्दिर में ऐसी ही प्रार्थना करते हुए पाते हैं। वाक्य 13 उसकी प्रार्थना का वर्णन इस प्रकार करता है: “हन्ना धीमे स्वर से बोलती थी। उसके होंठ तो हिल रहे थे, किन्तु उसकी आवाज नहीं सुनाई दे रही”। जब पौलुस और सीलास ने फिलिप्पी की जेल की सबसे भीतरी कोठरी में एक गहन प्रार्थना की, “तो एकाएक इतना भारी भूकम्प हुआ कि बन्दीगृह की नींव हिल गयी। उसी क्षण सब द्वार खुल गये और सब कैदियों की बेडि़याँ ढ़ीली पड़ गयीं।” (प्रेरित-चरित 16:26) ईश्वर के साथ उसकी गहन मुलाकात के बाद मूसा का मुखमण्डल देदीप्यमान बन जाता था (देखें निर्गमन 34:35)। ऐसी गहन प्रार्थना के दौरान व्यक्ति ईश्वर के प्रति आवेशित हो जाता है। येसु ने स्वर्गिक पिता के प्रेम से परिपूर्ण अपनी सार्वजनिक सेवकाई की। वे अपने शिष्यों को बुलाते हैं और भीड़ से भी बात करते हैं। वे सभी उनकी सेवकाई में ईश्वर के सामर्थ्य का अनुभव करते हैं। इससे पहले कि हम ईश्वर के राज्य की सेवकाई कर सकें, हमें भी ईश्वर से आवेशित होने की आवश्यकता है। हम अपने से ही सवाल करें। मेरी प्रार्थना कितनी तीव्र है? क्या मैं प्रभु द्वारा संचालित हूँ?

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In the life of Jesus, we see that he used to spent long hours in prayer on the mountains and in lonely places. His prayer was often a secret affair. He also told his disciples to pray in secret. Prayer is an exclusive moment with God. It needs to be an intense moment, undisturbed by anyone. Moses, Elijah and Daniel enjoyed such intense moments of prayer. In such an intense prayer, one forgets one’s surroundings and the very self. In 1 Sam 1, we find Hannah making such a prayer in the temple of Shiloh. Verse 13 describes her prayer like this: “Hannah was praying silently; only her lips moved, but her voice was not heard”. When Paul and Silas made an intense prayer in the innermost cell of the Philippian jail, “Suddenly there was an earthquake, so violent that the foundations of the prison were shaken; and immediately all the doors were opened and everyone’s chains were unfastened” (Act 16:26). The skin of Moses’ face would shine after his intense meeting with God (cf. Ex 34:35). During such an intense prayer one is charged with God. Jesus performed his public ministry charged with the love of the Heavenly Father. He calls his disciples and also speaks to the crowds. They all experience the power of God in his ministry. We too need to be charged with God before we can carry out the ministry of the Kingdom of God. Let us ask ourselves. How intense is my prayer? Am I charged with God?

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन-3

प्रार्थना प्रभु येसु के जीवन का एक अभिन्न अंग था जो उन्होने इस संसार में रहते हुए निरंतर किया। प्रार्थना से उन्हे बल और शक्ति मिलती थी जिससे वे पिता ईश्वर के कार्यो को पूरा कर सकें। प्रभु येसु ने हमेशा महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले देर रात तक या पूरी रात प्रार्थना किया करते थे। प्रार्थना के द्वारा वे पिता की ईच्छा को अच्छी तरह जान कर उन में आगे बढ़ने के लिए बल प्राप्त करते थे।

प्रभु येसु के लिए प्रार्थना सबसे महतवपूर्ण था, उन महान चिन्ह और चमत्कारों से भी महत्वपूर्ण जो उन्होंने किया। वे एक प्रार्थनामय इंसान थे और इस बात को उनके शिष्यों ने गहराई से जाना।

प्रार्थना एक ऐसा मधुर संवाद है जो मनुष्य और ईश्वर के बीच होता है। इस संवाद में दोनो तरफ से विचारों का आदान प्रदान होता है। हम भी प्रार्थना करते है परंतु अधिकतर लोगो की प्रार्थना केवल एक तरफा संवाद ही रहता है जहॉं पर हम केवल अपनी ही बाते करते जाते है परंतु प्रभु हम से क्या कहना चाहते है हम उनकी नहीं सुनतें। यही कारण है कि बहुत से लोग प्रार्थना में रुचि नहीं लेते क्योंकि उन्होने अभी तक प्रार्थना करना नहीं सीखा है। प्रार्थना वही सफल होती है जहॉं हम प्रभु के वचनो को भी सुनते है। हम प्रभु येसु के समान सच्चे प्रार्थनामय व्यक्ति बने।

फादर डेन्नीस तिग्गा

📚 REFLECTION


Prayer was the integral part of Jesus’ life which he always did while living on this earth. He was receiving the strength and power from the prayer in order to accomplish the work of Father Almighty. Before taking any important decision Lord Jesus always used to spend late night or even whole night in prayer. Through prayer knowing the will of God he receives the strength to go forward.

For Lord Jesus prayer was very important, even from the mighty signs and miracles which he performed. He was a prayerful person and this the disciples knew in depth.

Prayer is a sweet conversation between the human and God. In this conversation there is exchange of thoughts or words from both the sides. We too also pray but very often many people prayer remains one sided talking where we share only our thoughts but fail to listen what God wants us to tell. For this reason only many don’t take interest in prayer because till now they have not learned to pray properly. The prayer is only meaningful when we also listen to the words of God. We all should be a prayerful person like Jesus.

-Fr. Dennis Tigga