वर्ष का तेईसवाँ सप्ताह, बुधवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

कलोसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 3:1-11

"आप लोग मसीह के साथ मर चुके हैं। इसलिए आप अपने शरीर में उन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की हैं।"

आप लोग मसीह के साथ ही जी उठे हैं जो ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं इसलिए ऊपर की चीजें खोजते रहें । आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीजों की चिन्ता किया करें। आप तो मर चुके हैं, आपका जीवन मसीह के साथ ईश्वर में छिपा हुआ है। मसीह ही आपका जीवन हैं। जब मसीह प्रकट होंगे, तब आप भी उनके साथ महिमान्वित हो कर प्रकट हो जायेंगे । इसलिए आप लोग अपने शरीर में इन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, कामुकता, विषयवासना और लोभ का, जो मूर्तिपूजा के सदृश हैं। इन बातों के कारण ईश्वर का कोप आ पड़ता है। आप भी पहले यह सब कर चुके हैं, जब आप इस प्रकार का पापमय जीवन बिताते थे । अब तो आप लोगों को क्रोध, वासना, द्वेष, परनिन्दा और अश्लील बात-चीत सर्वथा छोड़ देनी चाहिए । एक दूसरे से झूठ कभी नहीं बोलें । आप लोगों ने अपना पुराना स्वभाव और उसके कर्मों को उतार कर एक नया स्वभाव धारण किया । वह स्वभाव अपने सृष्टिकर्त्ता का प्रतिरूप बन कर नवीन हो जाता और सच्चाई के ज्ञान की ओर आगे बढ़ता है, जहाँ पहुँच कर कोई भेद नहीं रहता, जहाँ न यूनानी है या यहूदी, न खतना है या ख़तना का अभाव, न बर्बर है, न स्कूती, न दास और न स्वतंत्र-वहाँ केवल मसीह हैं, जो सब कुछ और सब में हैं।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 144:2-3,10-13

अनुवाक्य : प्रभु सबों का कल्याण करता है।

1. मैं दिन-प्रतिदिन तुझे धन्य कहूँगा, मैं सदा-सर्वदा तेरे नाम की स्तुति करूँगा। प्रभु महान् और अत्यन्त प्रशंसनीय है। उसकी महिमा की सीमा नहीं

2. हे प्रभु ! तेरी सारी सृष्टि तेरा धन्यवाद करे; तेरे भक्त तुझे धन्य कहें। वे तेरे राज्य की महिमा गायें और तेरे सामर्थ्य का बखान करें

3. जिससे सभी मनुष्य तेरे महान् कार्य तथा तेरे राज्य की अपार महिमा जान जायें । तेरे राज्य का कभी अन्त नहीं होगा । तेरा शासन पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहेगा ।

📒जयघोष

अल्लेलूया ! प्रभु कहते हैं, "उल्लसित हो और आनन्द मनाओ, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा ।" अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 6:20-26

"धन्य हो तुम जो दरिद्र हो । धिक्कार तुम्हें, जो धनी हो ।"

येसु ने अपने शिष्यों की ओर देख कर कहा, "धन्य हो तुम, जो दरिद्र हो - स्वर्गराज्य तुम लोगों का है। धन्य हो तुम, जो अभी भूखे हो - तुम तृप्त किये जाओगे। धन्य हो तुम, जो अभी रोते हो तुम हँसोगे। धन्य हो तुम, जब मानव पुत्र के कारण लोग तुम से बैर रखेंगे, तुम्हारा बहिष्कार और अपमान करेंगे और तुम्हारा नाम घृणित समझ कर निकाल देंगे। उस दिन उल्लसित हो और आनन्द मनाओ, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। उनके पूर्वज नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।" "धिक्कार तुम्हें, जो धनी हो तुम अपना सुख-चैन पा चुके हो। धिक्कार तुम्हें, जो अभी तृप्त हो – तुम भूखे रहोगे । धिक्कार तुम्हें, जो अभी हँसते हो तुम शोक करोगे और रोओगे । धिक्कार तुम्हें, जब सब लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं- उनकें पूर्वज झूठे नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे ।"

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

आज हम इस दुनियाई बातों से इतने चिंतित हैं कि स्वर्गीय जीवन के बारे में विचार करने का समय ही नहीं रहता है। लूकस 6:20-26 से लिए हुए आज के सुसमाचार में प्रभु येसु कहते हैं जो उनके नाम के कारण दुनिया के द्वारा बैर किये जायेंगे, अपमानित किये जायेंगे और समाज एवं परिवार से निकाल दिए जायेंगे, उन्हें स्वर्ग राज्य प्राप्त होगा। आज हम बड़े तो अपने आपको नष्ट तो कर चुके हैं; दुःख कि बात यह है कि अपने बच्चों को और गहरे गर्त्त में गिराने का काम कर रहे हैं ! आज कितने सारे बच्चे और युवा कोचिंग के नाम पर रविवारीय पवित्र मिस्सा बलिदान में भी नहीं आते हैं? येसु हमें यह दिखाते हैं कि सच्ची खुशी सांसारिक सुख, धन या प्रशंसा में नहीं है, बल्कि ईश्वर पर पूर्ण विश्वास और उनकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने में है। जो लोग दुःख, भूख या उपेक्षा सहते हैं, उनके लिए ईश्वर का राज्य सच्चा सांत्वना है। प्रभु येसु हमें बुलाते हैं कि हम अपने जीवन को इस संसार की क्षणभंगुर वस्तुओं से न जोड़ें, बल्कि ईश्वर के राज्य की शाश्वत प्रतिज्ञा पर भरोसा रखें। क्या मैं अपनी खुशी केवल धन, आराम और प्रशंसा में खोजता हूँ? क्या मैं ईश्वर की ओर देखकर उनकी इच्छा के अनुसार जीने का प्रयास करता हूँ? क्या मैं कठिनाई में भी भरोसा रखता हूँ कि ईश्वर मुझे संभालेंगे? आइए, हम यह कृपा माँगें कि हम सच्चे अर्थों में “धन्य” बन सकें—सिर्फ इस संसार में नहीं, बल्कि ईश्वर के राज्य में।

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

Today we are so anxious and preoccupied with worldly matters that we hardly find time to think about eternal life. In today’s Gospel from Luke 6:20-26, the Lord Jesus says that those who are hated, insulted, and rejected by the world, by society, and even by their own families because of His name, will inherit the Kingdom of Heaven. Today, we adults have already lost our own way; the sad part is that we are also leading our children deeper into destruction! How many children and young people today, under the pretext of coaching classes, no longer even participate in the Holy Mass on Sundays? Jesus shows us that true happiness is not found in worldly pleasures, wealth, or human praise, but in complete trust in God and living according to His will. For those who suffer poverty, hunger, or rejection, the Kingdom of God is the true source of comfort. Jesus calls us not to attach our lives to the passing things of this world, but to place our trust in the eternal promises of His Kingdom. Do I seek my happiness only in wealth, comfort, and recognition? Do I strive to live according to God’s will, keeping my eyes fixed on Him? Do I continue to trust that God will sustain me, even in difficulties? Let us ask for the grace to become truly “blessed”—not only in this world, but in the eternal Kingdom of God.

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन - 2

अपनी महायाजकीय प्रार्थना में, अपने शिष्यों के बारे में, प्रभु येसु कहते हैं, "वे संसार के नहीं है जिस तरह मैं भी संसार का नहीं हूँ।" (योहन 17:16)। वे शिष्यता को दुनिया से अलग किये जाने के रूप में बताते हैं। वे अपने शिष्यों से कहते हैं, “यदि तुम संसार के होते, तो संसार तुम्हें अपना समझ कर प्यार करता। परन्तु तुम संसार के नहीं हो, क्योंकि मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया हैं। इसीलिये संसार तुम से बैर करता है।” (योहन 15:19)। संत पेत्रुस ख्रीस्तीय विश्वासियों को "परदेशी और प्रवासी" (1 पेत्रुस 2:11) कहते हैं। यदि हम इस संसार के नहीं हैं, तो एक प्रश्न उठता है कि हम फिर कहाँ के हैं। संत पौलुस यह स्पष्ट करते हुए बताते हैं, "हमारा स्वदेश तो स्वर्ग है" (फिलिप्पियों 3:20)। इसीलिए येसु अपने शिष्यों से कहते हैं, "मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।" (योहन 14:3)। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि यद्यपि हम संसार में हैं, फिर भी हम संसार के नहीं हैं। रोमियों 12:2 में संत पौलुस कहते हैं, "आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि बस कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है।" इसी बुनियादी समझ के साथ हमें आज का सुसमाचार पढ़ना चाहिए जो आशीषों और धिक्कारों के बारे में बताता है। ईश्वर के राज्य के मूल्यों के अनुसार, चीज़ें जिन्हें संसार में वरदान समझा जाता है, वे दुःखदायी हो सकती हैं और संसार की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ आशीर्वाद हो सकती हैं। प्रभु हमें इस धरती पर स्वर्गिक मूल्यों के अनुसार जीने की सद्बुद्धि दें।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In his high-priestly prayer, regarding his disciples, Jesus says, “They do not belong to the world, just as I do not belong to the world” (Jn 17:16). He spoke about the discipleship as a choice out of the world. He tells his disciples, “If you belonged to the world, the world would love you as its own. Because you do not belong to the world, but I have chosen you out of the world - therefore the world hates you” (Jn 15:19). St. Peter refers to Christians as “aliens and exiles” (1Pet 2:11). If we do not belong to this world, a question arises as to where we belong. St. Paul clarifies that when he says, “our citizenship is in heaven” (Phil 3:20). That is why Jesus tells his disciples, “And if I go and prepare a place for you, I will come again and will take you to myself, so that where I am, there you may be also” (Jn 14:3). Thus, it is clear that although we are in the world, we are not of the world. In Rom 12:2 St. Paul says, “Do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your minds, so that you may discern what is the will of God - what is good and acceptable and perfect”. It is with this basic understanding that we should read today’s Gospel which speaks of blessings and woes. Those things that are considered blessings in the world may be woes and the unfortunate happenings of the world may be blessings as per the values of the kingdom of God. May the Lord give us the wisdom to live the heavenly values here on this earth.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन - 3

अपनी महायाजकीय प्रार्थना में, अपने शिष्यों के बारे में, प्रभु येसु कहते हैं, "वे संसार के नहीं है जिस तरह मैं भी संसार का नहीं हूँ।" (योहन 17:16)। वे शिष्यता को दुनिया से अलग किये जाने के रूप में बताते हैं। वे अपने शिष्यों से कहते हैं, “यदि तुम संसार के होते, तो संसार तुम्हें अपना समझ कर प्यार करता। परन्तु तुम संसार के नहीं हो, क्योंकि मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया हैं। इसीलिये संसार तुम से बैर करता है।” (योहन 15:19)। संत पेत्रुस ख्रीस्तीय विश्वासियों को "परदेशी और प्रवासी" (1 पेत्रुस 2:11) कहते हैं। यदि हम इस संसार के नहीं हैं, तो एक प्रश्न उठता है कि हम फिर कहाँ के हैं। संत पौलुस यह स्पष्ट करते हुए बताते हैं, "हमारा स्वदेश तो स्वर्ग है" (फिलिप्पियों 3:20)। इसीलिए येसु अपने शिष्यों से कहते हैं, "मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।" (योहन 14:3)। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि यद्यपि हम संसार में हैं, फिर भी हम संसार के नहीं हैं। रोमियों 12:2 में संत पौलुस कहते हैं, "आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि बस कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है।" इसी बुनियादी समझ के साथ हमें आज का सुसमाचार पढ़ना चाहिए जो आशीषों और धिक्कारों के बारे में बताता है। ईश्वर के राज्य के मूल्यों के अनुसार, चीज़ें जिन्हें संसार में वरदान समझा जाता है, वे दुःखदायी हो सकती हैं और संसार की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ आशीर्वाद हो सकती हैं। प्रभु हमें इस धरती पर स्वर्गिक मूल्यों के अनुसार जीने की सद्बुद्धि दें।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In his high-priestly prayer, regarding his disciples, Jesus says, “They do not belong to the world, just as I do not belong to the world” (Jn 17:16). He spoke about the discipleship as a choice out of the world. He tells his disciples, “If you belonged to the world, the world would love you as its own. Because you do not belong to the world, but I have chosen you out of the world - therefore the world hates you” (Jn 15:19). St. Peter refers to Christians as “aliens and exiles” (1Pet 2:11). If we do not belong to this world, a question arises as to where we belong. St. Paul clarifies that when he says, “our citizenship is in heaven” (Phil 3:20). That is why Jesus tells his disciples, “And if I go and prepare a place for you, I will come again and will take you to myself, so that where I am, there you may be also” (Jn 14:3). Thus, it is clear that although we are in the world, we are not of the world. In Rom 12:2 St. Paul says, “Do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your minds, so that you may discern what is the will of God - what is good and acceptable and perfect”. It is with this basic understanding that we should read today’s Gospel which speaks of blessings and woes. Those things that are considered blessings in the world may be woes and the unfortunate happenings of the world may be blessings as per the values of the kingdom of God. May the Lord give us the wisdom to live the heavenly values here on this earth.

-Fr. Francis Scaria