आप लोग ईश्वर की पवित्र एवं परमप्रिय चुनी हुई प्रजा हैं। इसलिए आप लोगों को अनुकम्पा, सहानुभूति, विनम्रता, कोमलता और सहनशीलता को धारण कर लेना चाहिए। आप एक दूसरे को सहन करें और यदि किसी को किसी से कोई शिकायत हो, तो एक दूसरे को क्षमा करें। प्रभु ने आप लोगों को क्षमा कर दिया है; आप लोग भी ऐसा ही करें। इसके अतिरिक्त आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें। वह सब-कुछ एकता में बाँध कर पूर्णता तक पहुँचा देता है। मसीह की शांति आपके हृदयों में राज्य करे। इसी शांति के लिए आप लोग, एक शरीर के अंग बन कर, बुलाये गये हैं। आप लोग कृतज्ञ बने रहें । मसीह की शिक्षा अपनी परिपूर्णता में आप लोगों में निवास करे। आप बड़ी समझदारी से एक दूसरे को शिक्षा और उपदेश दिया करें। आप कृतज्ञतापूर्ण हृदय से ईश्वर के आदर में भजन स्तोत्र और आध्यात्मिक गीत गाया करें। आप जो कुछ भी कहें या करें, वह सब प्रभु के नाम पर किया करें। उन्हीं के द्वारा आप लोग पिता ईश्वर को धन्यवाद देते रहें ।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : सभी प्राणी प्रभु की स्तुति करें । अथवा : अल्लेलूया !
1. प्रभु के मंदिर में उसकी स्तुति करो। उसके महिमामय आकाश में उसकी स्तुति करो। उसके महान् कार्यों के कारण उसकी स्तुति करों । उसके परम प्रताप के कारण उसकी स्तुति करो
2. तुरही फूंकते हुए उसकी स्तुति करो। वीणा और सितार बजाते हुए उसकी स्तुति करो । ढोल बजाते हुए और नृत्य करते हुए उसकी स्तुति करो । तानपूरा और बाँसुरी बजाते हुए उसकी स्तुति करो
3. झाँझों की ध्वनि पर उसकी स्तुति करो । विजय की झाँझों को बजाते हुए उसकी स्तुति करो। सभी प्राणी प्रभु की स्तुति करें।
अल्लेलूया ! यदि हम एक दूसरे को प्यार करते हैं, तो ईश्वर हम में निवास करता है और ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम पूर्णता प्राप्त करता है। अल्लेलूया !
येसु ने अपने शिष्यों से यह कहा, "मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ अपने शत्रुओं से प्रेम रखो । जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो। जो तुम्हें शाप देते हैं, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो । जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो । जो कोई तुम से माँगे, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीन ले, उसे वापस मत माँगो । दूसरों से अपने साथ जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके साथ वैसा ही किया करो। यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है ? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं। यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है ? पापी भी ऐसा करते हैं। यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है ? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं। परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम रखो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो । तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतघ्नों और दुष्टों पर दया करता है।" "अपने स्वर्गिक पिता जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा। किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी। दो और तुम्हें भी दिया जायेगा । दबा दबा कर, हिला हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी की पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा ।"
प्रभु का सुसमाचार।
आज का सुसमाचार (लूकस 6:27–38) हमारे जीवन की सबसे बड़ी चुनौती प्रस्तुत करता है—अपने शत्रुओं से प्रेम करना। प्रभु येसु हमें केवल अच्छे लोगों से ही नहीं, बल्कि उन लोगों से भी प्रेम करने की शिक्षा देते हैं जो हमें नुकसान पहुँचाते हैं। यह कैसा कठिन संदेश है! लेकिन यही सच्चे शिष्यत्व का मार्ग है। कलीसिया की शिक्षा कहती है: “प्रेम शत्रुओं तक भी फैलना चाहिए; वह ख्रीस्तीय प्रेम की सबसे ऊँची अभिव्यक्ति है” (CCC 1825)। प्रभु कहते हैं—“जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, वैसे ही तुम उनके साथ करो।” क्या हम ऐसा कर पाते हैं? जब कोई हमें अपमानित करता है, तब क्या हम उनके लिए प्रार्थना करते हैं? जब कोई हमें चोट पहुँचाता है, क्या हम उन्हें आशीष दे पाते हैं? तो आज हम स्वयं से ये प्रश्न पूछें : क्या मेरे जीवन में ऐसे लोग हैं जिनके लिए मुझे क्षमा और प्रार्थना करनी चाहिए? क्या मैं केवल उन लोगों से प्रेम करता हूँ जो मुझसे प्रेम करते हैं, या मैं मसीह की तरह बिना शर्त प्रेम करने का साहस रखता हूँ? क्या मैं सचमुच उस पिता के समान बन रहा हूँ जो “दयालु और कृपालु है”? प्रिय जनो, आइए हम आज से यह संकल्प करें कि हम केवल शब्दों से नहीं, बल्कि अपने आचरण से भी शत्रुओं से प्रेम करेंगे। यही मसीह का मार्ग है और यही हमारी पहचान है।
✍ - फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट
Today’s Gospel (Luke 6:27–38) gives us perhaps the greatest challenge of our Christian life—to love our enemies. Jesus does not ask us to love only those who are kind to us, but even those who hurt us. How difficult this sounds! Yet, this is the way of true discipleship. The Catechism teaches: “The love of enemies is the highest expression of Christian charity. It is not optional but demands imitation of the divine love in prayer, forgiveness, and selfless service” (CCC 1825). The Lord says: “Do to others as you would have them do to you.” But do we really live this out? When someone insults us, do we pray for them? When someone hurts us, can we bless them? So today let us ask ourselves :- Are there people in my life whom I need to forgive and pray for? Do I love only those who love me, or do I dare to love as Christ loves—unconditionally? Am I becoming like the Father who “is kind to the ungrateful and the wicked”? My dear friends, let us resolve today to love not just in words but in actions—even towards those who oppose us. This is the way of Christ, and this is the true mark of a disciple.
✍ -Fr. George Mary Claret
माता पिता अपने बच्चों से प्रेम करते है और कुछ हद तक प्रेम करना हम अपने माता पिता या परिावार से ही सीखते है। लेकिन संसार या परिवार का प्यार सीमित रहता है। प्रभु येसु हमें असीमित प्यार करना सीखाते है क्योंकि वे स्वयं असीमित प्यार करते है। अक्सर देखा जाता है कि लोग अपनो से या जो उन से अच्छा व्यवहार रखते है उन्ही से प्रेम या अच्छा बर्ताव करते है। परंतु प्रभु येसु सिखाते है कि न केवल अपनों से परंतु ‘‘अपने शत्रुओं से भी प्रेम करों। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करों। जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।‘‘
इस प्रकार का प्रेम करना शायद असंभव सा लगता है क्योंकि इस प्रकार केवल ईश्वर ही कर सकते है। परंतु प्रभु येसु ने इसे इस संसार में एक मानव के रूप में कर के दिखाया और बतलाया कि यह असंभव नहीं है। असंभव उनके लिए है जो अपने को बड़ा समझते है, जो अपने को छोटा नहीं मानना चाहते जो केवल अपन अहम् पर भरोसा रखते है, इसलिए प्रभु येसु ने कहा है कि ‘‘जो अपने को बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने।’’(मत्ती 20ः26-27)।
जो प्रभु की शिक्षा के अनुसार प्रेम करता है, उसमें ईश्वरत्व झलकता है और वह ईश्वरता की ओर अग्रसर होता है। येसु ने भी यही कहा है, ’पूर्ण बनों जैसे कि तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।’
✍फादर डेन्नीस तिग्गाParents love their children and to the some extent we learn to love from parents or family. But the love of the world or family is limited. Lord Jesus teaches us to love limitless or unconditionally because he himself loves unconditionally. Usually we find people love and behave good with the known persons or whose behavior is good towards them. but Jesus teaches us that not only with our loved ones but “love your enemies, do good to those who hate you, bless those who curse you, pray for those who abuse you.”
This type of love seems to be impossible because this can be done by God only, but Lord Jesus did this on this earth in the form of human and showed us that it is not impossible. It becomes impossible for those who think themselves big or great, who never wants them to be little, who trusts only in his ego, therefore Lord Jesus says, “Whoever wishes to be great among you must be your servant, and whoever wishes to be first among you must be your slave” (Mt 20:26-27).
One who loves according to the teaching of Jesus reflects the divinity in himself/herself and he moves towards the divinity. Jesus also told, ‘Be perfect as your Heavenly Father is perfect.’
✍ -Fr. Dennis Tigga