मैं सब से पहले यह अनुरोध करता हूँ कि सभी मनुष्यों के लिए, विशेष रूप से राजाओं तथा अधिकारियों के लिए, अनुनय-विनय, प्रार्थना, निवेदन तथा धन्यवाद अर्पित किया जाये, जिससे हम भक्ति तथा मर्यादा के साथ निर्विघ्न तथा शांत जीवन बिता सकें । यह उचित भी है और हमारे मुक्तिदाता ईश्वर को प्रिय भी है, क्योंकि वह चाहता है कि सभी मनुष्य मुक्ति प्राप्त करें और सत्य को जान जायें। क्योंकि केवल एक ही ईश्वर है और ईश्वर तथा मनुष्यों के केवल एक ही मध्यस्थ हैं, अर्थात् येसु मसीह, जो स्वयं मनुष्य हैं और जिन्होंने सबों के उद्धार के लिए अपने को अर्पित किया है। उन्होंने उपयुक्त समय पर इसके सम्बन्ध में अपना साक्ष्य दिया है। मैं सच कहता हूँ, झूठ नहीं बोलता; मैं इसी का प्रचारक तथा प्रेरित, गैरयहूदियों के लिए विश्वास तथा सत्य का उपदेशक नियुक्त हुआ हूँ। मैं चाहता हूँ कि सब जगह पुरुष, बैर तथा विवाद छोड़ कर, श्रद्धापूर्वक हाथ ऊपर उठा कर प्रार्थना करें ।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : धन्य है प्रभु ! उसने मेरी प्रार्थना सुनी है ।
1. मैं तेरी दुहाई देता हूँ, तेरे पवित्र मंदिर की ओर अभिमुख हो कर, मैं हाथ जोड़ कर यह निवेदन करता हूँ। हे प्रभु ! मेरी प्रार्थना सुन
2. प्रभु मेरा बल है और मेरी ढाल । मेरा हृदय उस पर भरोसा रखता है। मुझे सहायता मिली है, मेरा हृदय आनन्दित है और मैं गाते हुए उसकी स्तुति करता हूँ
3. प्रभु अपनी प्रजा को बल देता और अपने अभिषिक्त की रक्षा करता है। अपनी प्रजा की रक्षा कर ! उसे आशीर्वाद दे, उसका चरवाहा बन जा, उसे सदा सँभालने की कृपा कर ।
अल्लेलूया ! ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो कोई उस में विश्वास करे, वह अनन्त जीवन प्राप्त करे । अल्लेलूया !
जनता को अपने ये उपदेश सुनाने के बाद येसु कफरनाहूम आये। वहाँ एक शतपति का अत्यन्त प्रिय नौकर किसी रोग से मर रहा था। शतपति ने येसु की चर्चा सुनी थी; इसलिए उसने यहूदियों के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों को येसु के पास यह निवेदन करने के लिए भेजा कि आप आ कर मेरे नौकर को बचायें। वे येसु के पास आ कर उन से आग्रह के साथ विनय करने लगे, "वह शतपति इस योग्य है कि आप उसके लिए ऐसा करें। वह हमारे राष्ट्र से प्रेम रखता है और उसी ने हमारे लिए सभागृह बनवाया है।" येसु उनके साथ चले। वह उसके घर के निकट पहुँचे ही थे कि शतपति ने मित्रों द्वारा येसु के पास यह कहला भेजा, "प्रभु ! आप कष्ट न करें, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें। इसी कारण मैंने अपने को इस योग्य नहीं समझा कि आपके पास आऊँ। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर अच्छा हो जायेगा। मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- जाओ, तो वह जाता है और दूसरे से - आओ, तो वह आता है और अपने नौकर से यह करो, तो वह यह करता है।" येसु यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने अपने पीछे आते हुए लोगों की ओर मुड़ कर कहा, "मैं तुम लोगों से कहता हूँ इस्राएल में भी मैंने इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया ।" और भेजे हुए लोगों ने घर लौट कर रोगी नौकर को भला-चंगा पाया ।
प्रभु का सुसमाचार।
सुसमाचार में, हम एक शतपति को कुछ यहूदी नेताओं को येसु के पास यह अनुरोध करने के लिए भेजते हुए पाते हैं कि वे उसके दास को चंगा करने के लिए उसके घर आए। जब येसु ने उनका अनुरोध स्वीकार किया और वे अपने रास्ते पर थे, तो उसने अपने दोस्तों को येसु के पास यह कहने के लिए भेजा, “हे प्रभु! आप कष्ट न करें, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें। इसलिए मैंने अपने को इस योग्य नहीं समझा कि आपके पास आऊँ। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।” यदि एक पल हम इस घटना पर विचार करते हैं, तो हम पूछ सकते हैं कि फिर शतपति ने येसु को अपने घर आने का अनुरोध करने के लिए संदेश क्यों भेजा। यदि हम आगे मनन-चिंतन करते हैं, तो हम पा सकते हैं कि येसु की यात्रा शतपति के लिए बहुत कीमती थी। उसने स्वयं को येसु के पास व्यक्तिगत रूप से जाने के योग्य नहीं समझा। वह इस बात से हैरान था कि येसु ने अपने दास को चंगा करने के लिए आने का फैसला किया। उन्होंने येसु के आगमन पर ध्यान देना शुरू किया और इसे अपने जीवन की वास्तविक स्थितियों में रख कर मनन किया। वह इस तथ्य से अभिभूत था कि येसु आ रहे हैं। उसने येसु की महानता और खुद की अयोग्यता के बारे में सोचा। वह एक ऐसे बिंदु पर आया जब वह येसु को उसके पास आने से रोकने के बारे में सोचे बिना नहीं रह सका। उसने उस दूर के स्थान से बीमारी को अपने दास से दूर जाने के लिए आदेश देने की येसु की शक्ति को समझा और स्वीकार किया। स्तोत्र 8:4-5 में हम पढ़ते हैं, “जब मैं तेरे बनाये हुए आकाश को देखता हूँ, तेरे द्वारा स्थापित तारों और चन्द्रमा को, तो सोचता हूँ कि मनुष्य क्या है, जो तू उसकी सुधि ले? आदम का पुत्र क्या है, जो तू उसकी देख-भाल करे?” लूकस 5:8 में हम देखते हैं कि सिमोन पेत्रुस येसु के घुटनों पर गिर पड़ा और बोला, “प्रभु! मेरे पास से चले जाइए। मैं तो पापी मनुष्य हूँ।” यह मुझे शर्मसार करता है कि मेरे जीवन में कितनी बार मैंने येसु को यूखारिस्त और वचन के रूप में बिना समझे और उनकी बहुमूल्य उपस्थिति को स्वीकार किए बिना अपने अंदर प्रवेश करने दिया है!
✍ - फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया
In the Gospel, we find a centurion sending some Jewish leaders to Jesus to request him to come to his home to heal his slave. When Jesus obliged and was on his way, he sent his friends to say to Jesus, “Lord, do not trouble yourself, for I am not worthy to have you come under my roof; therefore, I did not presume to come to you. But only speak the word, and let my servant be healed”. If we stop for a moment to reflect over this incident, we may ask why then did the centurion send word to request Jesus to visit his home. If we stretch our imagination, we can find that the visit of Jesus was very precious for the centurion. He did not think of himself as worthy to go to Jesus personally. He was surprised by the fact Jesus decided to come to heal his slave. He started meditating over the coming of Jesus placing it in the actual situations of his own life. He was overwhelmed by the fact that Jesus was coming. He thought of the greatness of Jesus and his own unworthiness. He came to a point when he could not but think of stopping Jesus from coming to him. He understood and acknowledged the power of Jesus to order sickness from that distant place to depart from his slave. In Ps 8:3-4, we read, “When I look at your heavens, the work of your fingers, the moon and the stars that you have established; what are human beings that you are mindful of them, mortals that you care for them?” Simon Peter fell down at Jesus’ knees, saying, “Go away from me, Lord, for I am a sinful man!” (Lk 5:8). This puts me into shame. How many times in my life have I allowed Jesus to enter me in the form of the Eucharist and in the form of the Word without understanding and acknowledging his precious presence!
✍ -Fr. Francis Scaria
जीवन में यदि विश्वास है तो आशा है, और यदि जीवन में येसु के प्रति सच्चा विश्वास है तो हमारे लिए सबकुछ संभव है। विश्वास के बारे में प्रभु येसु कहते है, ‘‘यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड़ से यह कहो, यहॉं से वहॉं तक हट जा, तो यह हट जायेगा, और तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं होगा।’’ (मत्ती 17ः20) इस संुदर विश्वास का उदाहरण हम आज के सुसमाचार में पाते है जहॉं पर एक शतपति के दृढ़ विश्वास और नम्रता द्वारा उसके बिमार नौकर को प्रभु येसु द्वारा चंगाई मिलती है।
उस शतपति को प्रभु येसु के शब्द मात्र पर इतना विश्वास था कि येसु जो कहेंगे वह जायेगा। वे समझ गये थे कि प्रभु येसु के पास सम्पूर्ण अधिकार और शक्ति है। इस प्रकार का विश्वास होना वास्तव में एक सच्चे विश्वासी का निशानी है। जिस प्रकार ईश्वर ने शब्द मात्र से संसार की सृष्टि की, ठीक उसी प्रकार येसु के शब्द मात्र से विभिन्न चीजें़ संभव है। शतपति का यह विश्वास हमारे सामने एक प्रश्न रखता है कि हमारा विश्वास येसु के प्रति किस प्रकार का है? विश्वास के द्वारा जिंदगी में पहाड़ जैसे लगने वाली समस्याएॅं, परेशानियॉं येसु के शब्द मात्र से दूर हो सकती है। आईये हम अपने विश्वास में दृढ़ता लायें।
✍फादर डेन्नीस तिग्गा
In life if there is faith than there is hope and in life if there is true faith in Jesus then there everything is possible for us. About faith Jesus tells, “If you have faith the size of a mustard seed, you will say to this mountain, Move from here to there, and it will move; and nothing will be impossible for you.” (Mt 17:20). We find the beautiful example of such faith in today’s gospel where the faith and humility of a Centurian towards Jesus lead to the healing of his servant.
The Centurian had deep faith in Jesus that whatever Jesus will say it will happen. He understood that Jesus has all the authority and power. Having such a faith is a sign of true believer. Just as God created the universe with mere words so also with Jesus’ words everything is possible. The faith of Centurian places a question in front of us that how is our faith towards Jesus? Through faith all the troubles and problems which seem like mountains can be removed just by the words of Jesus. Let’s bring firmness in our faith.
✍ -Fr. Dennis Tigga