वर्ष का चौबीसवाँ सप्ताह, बुधवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

तिमथी के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 3:14-16

"धर्म का रहस्य महान् है।"

मुझे आशा है कि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊँगा, किन्तु यह पत्र इसलिए लिख रहा हूँ कि मेरे आने में देर हुई, तो भी तुम यह जान जाओ कि ईश्वर के घर में लोगों का आचरण कैसा होना चाहिए। ईश्वर का घर जीवन्त ईश्वर की कलीसिया है, जो सत्य का स्तम्भ और मूलाधार है। धर्म का यह रहस्य निस्सन्देह महान् है - मसीह मनुष्य के रूप में प्रकट हुए, आत्मा के द्वारा सत्य प्रमाणित हुए, स्वर्गदूतों को दिखाई पड़े, गैरयहूदियों में प्रचारित हुए, संसार भर में उन पर विश्वास किया गया और वह महिमा में आरोहित कर लिये गये ।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 110:1-6

अनुवाक्य : प्रभु के कार्य महान् हैं। (अथवा : अल्लेलूया !)

1. धर्मियों की गोष्ठी और उनकी सभा में मैं सारे हृदय से प्रभु की स्तुति करूँगा। प्रभु के कार्य महान् हैं, भक्त जन उनका मनन करें

2. उनके कार्य प्रतापी और ऐश्वर्यमय हैं। उसका न्याय युग-युगों तक बना रहता है। प्रभु के कार्य स्मरणीय हैं। प्रभु दयालु और प्रेममय है।

3. वह अपने भक्तों को तृप्त करता और अपने विधान का सदा स्मरण करता है। उसने अपनी प्रजा को राष्ट्रों की भूमि दिला कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया ।

📒जयघोष

अल्लेलूया ! हे प्रभु ! आपकी शिक्षा आत्मा और जीवन है। आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है। अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 7:31-35

"हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुम नहीं रोये ।"

प्रभु ने कहा, "मैं इस पीढ़ी के लोगों की तुलना किस से करूँ? वे किसके सदृश हैं? वे बाजार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो एक दूसरे को पुकार कर कहते हैं : हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुम नहीं रोये : क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न रोटी खाता और न अंगूरी पीता है और तुम कहते हो – उसे अपदूत लगा है। मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और तुम कहते हो देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है। किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा उसकी प्रजा द्वारा उचित प्रमाणित हुई है।"

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार (लूकस 7:31-35) हमें दिखाता है कि प्रभु येसु अपने समय की पीढ़ी की तुलना उन बच्चों से करते हैं जो बाजार में बैठे रहते हैं, परन्तु न बाँसुरी की धुन पर नाचते हैं और न शोकगीत पर रोते हैं। दूसरे शब्दों में, लोगों ने न तो योहन बपतिस्ता के तपस्या के संदेश को स्वीकार किया और न ही प्रभु येसु के आनन्दमय सुसमाचार को। हम भी अक्सर ऐसे ही होते हैं। ईश्वर हमें कभी दुःख और अनुशासन के द्वारा, तो कभी आनन्द और आशीर्वाद के द्वारा बुलाते हैं। लेकिन हम उनकी उपस्थिति को पहचानने के बजाय शिकायत करते हैं, विरोध करते हैं या उदासीन रहते हैं। प्रभु येसु याद दिलाते हैं कि “ईश्वर की प्रज्ञा उसकी प्रजा द्वारा सही प्रमाणित हुई है।”, अर्थात् सच्चा विश्वास बहानों से नहीं, बल्कि ईश्वर के वचन के अनुसार जीवन जीने से प्रकट होता है। आज हम धर्माध्यक्ष और धर्माचार्य, संत रॉबर्ट बेलार्मीन का स्मरण करते हैं। उन्होंने अपनी क्षमता का प्रयोग घमण्ड के लिए नहीं किया, बल्कि सच्चाई को विनम्रता और साहस के साथ बचाने के लिए किया। वे हर परिस्थिति में ईश्वर की आवाज़ को सुनने और उसका पालन करने के लिए तैयार थे। आइए हम विचार करें : क्या हम ईश्वर को केवल अपनी शर्तों पर ही चाहते हैं? या हम तैयार हैं कि चाहे आनन्दमय क्षणों में या अनुशासन और कठिनाइयों के समय, हम उनकी पुकार को स्वीकार करें? मैं आज ऐसा जीवन कैसे जीऊँ जिससे मेरे कर्मों द्वारा मेरा विश्वास प्रकट हो?

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

Today’s Gospel (Luke 7:31-35) presents Jesus comparing His generation to children sitting in the marketplace, unhappy and unwilling to respond, no matter what is played for them—neither the flute of joy nor the dirge of mourning. In simple words, the people of His time refused to accept God’s invitation, whether it came through John the Baptist’s austere preaching or through Jesus’ joyful proclamation of the Kingdom. We too often behave the same way. God calls us in different situations—sometimes through discipline and suffering, sometimes through joy and blessing. But instead of recognizing His hand, we complain, resist, or stay indifferent. Jesus is reminding us that wisdom is proved right by her children, meaning true faith is shown not by excuses but by living according to God’s Word. St. Robert Bellarmine, whose memorial we celebrate today, is a great example. As a Jesuit, cardinal, and Doctor of the Church, he used his learning not to boast, but to defend the truth of the Church humbly and courageously. He was ready to listen to God’s voice in every season of life and respond with fidelity. Let us ask ourselves: Do we only want God in our way and on our terms? Or are we ready to accept His call, whether He comes to us in the joy of celebration or in the challenge of discipline? Do I recognize God’s voice both in joy and in suffering? Am I flexible to accept God’s will, or do I resist when it does not suit me? How can I live today in such a way that my faith is proved by my actions?

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन - 2

अंग्रेजी की कहावत है - "Strike when the iron is hot"। इसका शाब्दिक अर्थ है - जब लोहा गर्म हो तो उस पर प्रहार करें। इसका मतलब है कि अवसर मिलते ही उसका सदुपयोग करें क्योंकि अवसर आपका इंतजार नहीं करेगा। एक और कहावत है- समय और ज्वार किसी का इंतजार नहीं करते। उपदेशक 3:1-11 हमें सिखाता है कि हर बात का एक समय होता है। संत पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों से कहते हैं, “ईश्वर के सहयोगी होने के नाते हम आप लोगों से यह अनुरोध करते हैं कि आप को ईश्वर की जो कृपा मिली है, उसे व्यर्थ न होने दे; क्योंकि वह कहता है - उपयुक्त समय में मैंने तुम्हारी सुनी; कल्याण के दिन मैंने तुम्हारी सहायता की। और देखिए, अभी उपयुक्त समय है, अभी कल्याण का दिन है।” (2 कुरिन्थियों 6:1-2) संत योहन बपतिस्ता ने यह कहते हुए प्रचार किया, “अब पेड़ों की जड़ में कुल्हाड़ा लग चुका है। जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, वह काटा और आग में झोंक दिया जायेगा।" (मत्ती 3:10)। प्रभु येसु ने अपनी सार्वजनिक सेवकाई यह कहते हुए आरम्भ की, “समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।” (मारकुस 1:15)। मत्ती 25:1-13 बताता है कि किस प्रकार नासमझ कुँवारियों ने दूल्हे के साथ विवाह भवन में प्रवेश करने का मौका खो दिया। सुसमाचार में, प्रभु येसु अपने समय के लोगों को प्राप्त अवसरों का सदुपयोग न करने के लिए दोषी ठहराते हैं। उनकी तुलना प्रभु बाजार के बच्चों के साथ करते हैं। उन्होंने न संत योहन बपतिस्ता का स्वागत किया, और न ही प्रभु येसु का। वे उन दोनों के सन्देश सुनने और स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। आइए हम सुसमाचार की तात्कालिकता को समझें। आइए हम सावधान रहें कि अपने जीवन में परिवर्तन लाने और अपने आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने का कोई मौका न गंवाएं।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

We are very familiar with the saying in English “strike, while the iron is hot”. It means act as soon as the opportunity arrives as it will not wait for you. Another saying is – time and tide wait for no man. Eccl 3:1-11 teaches us that there is a time for everything. St. Paul tells the Corinthian believers, “As we work together with him, we urge you also not to accept the grace of God in vain. For he says, “At an acceptable time I have listened to you, and on a day of salvation I have helped you.” See, now is the acceptable time; see, now is the day of salvation!” St. John the Baptist preached saying, “the axe is lying at the root of the trees; every tree therefore that does not bear good fruit is cut down and thrown into the fire” (Mt 3:10). Jesus began his public ministry saying, “The time is fulfilled, and the kingdom of God has come near; repent, and believe in the good news.” (Mk 1:15). Mt 25:1-13 speaks about how the foolish virgins lost the opportunity to accompany the bridegroom. In the Gospel, Jesus refers to the people of his time not realising the opportunities they had before them but acting in a childish way. They did not synchronise their lives according to the message of St. John the Baptist or that of Jesus. Thus, they lost the chances offered to them. Let us understand the urgency of the Gospel. Let us be careful not to lose any chance for bringing changes in our lives and progressing in our spiritual life.

-Fr. Francis Scaria