वर्ष का पच्चीसवाँ सप्ताह, बुधवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

एज्रा का ग्रन्थ 9:5-9

"ईश्वर ने हमें हमारी दासता में नहीं त्यागा है।"

मैं, एज्रा, संध्याकालीन यज्ञ के समय तक अवाक् बैठा रहा। तब मैं अपने विषाद की अवस्था से जागा । मेरा कुरता और मेरी चादर फटी हुई थी। मैं घुटनों के बल गिर कर और अपने प्रभु-ईश्वर की ओर हाथ फैला कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा : "हे मेरे ईश्वर ! मैं इतना लज्जित हूँ कि तेरी ओर दृष्टि लगाने का साहस नहीं हो रहा है, क्योंकि हम अपने पापों में डूब गये हैं और हमारा दोष आकाश छूने लगा है। अपने पूर्वजों के समय से आज तक हम भारी अपराध करते आ रहे हैं। अपने पापों के कारण हम, हमारे राजा और हमारे याजक विदेशी राजाओं के हाथ, तलवार, निर्वासन, लूट और अपामन के हवाले कर दिए गए, जैसी कि आज हमारी दुर्गति है। अब हमारे प्रभु-ईश्वर ने हम पर थोड़े समय के लिए दया प्रदर्शित की। उसने कुछ लोगों को निर्वासन से वापस बुलाया और हमें अपने पवित्र स्थान में शरण दी है। उसने हमारी आँखों को फिर ज्योति प्रदान की और हमें हमारी दासता में विश्राम दिया है; क्योंकि हम दास ही हैं, किन्तु हमारे ईश्वर ने हमें हमारी दासता में नहीं त्यागा और हमें फारस के राजाओं का कृपापात्र बनाया है। उन्होंने हमें हमारे ईश्वर का मंदिर फिर बनाने और उसका पुनरुद्धार करने की अनुमति दी और यूदा तथा येरुसालेम में सुरक्षित स्थान दिलाया है।"

प्रभु की वाणी।

📖भजन : टोबीत 13:2,4,6-8

अनुवाक्य : अनादि-अनन्त ईश्वर धन्य है।

1. ईश्वर मारता भी है और दया भी करता है। वह अधोलोक में भी डालता है और उस में से निकालता भी है। कोई भी उसके हाथ से नहीं बच सकता ।

2. उसने हमें गैरयहूदी राष्ट्रों में बिखेर दिया, जिससे हम उन्हें प्रभु की महिमा दिखाएँ और सब मनुष्यों के बीच उसकी महिमा गाएँ; क्योंकि वही हमारा प्रभु और हमारा ईश्वर है।

3. उसने हमारे लिए क्या-क्या नहीं किया ! इसलिए उसे धन्यवाद देते रहो। न्यायी प्रभु को धन्य कहो और युगों के राजा की स्तुति करो

4. मैं निर्वासित होते हुए भी उसका स्तुतिगान करूँगा। मैं इस पापी राष्ट्र के सामने उसके सामर्थ्य और महिमा का बखान करूँगा।

5. हे पापियो ! उसके पास लौट जाओ। उसके सामने सदाचरण करो । उस पर भरोसा रखो, जिससे वह द्रवित हो कर तुम पर दयादृष्टि करे ।

📒जयघोष

अल्लेलूया ! ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चात्ताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो । अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 9:1-6

“येसु ने उन्हें ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने भेजा ।"

येसु ने बारहों को बुला कर उन्हें सब अपदूतों पर सामर्थ्य तथा अधिकार दिया और रोगों को दूर करने की शक्ति प्रदान की। तब येसु ने उन्हें ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने भेजा । उन्होंने उन से कहा, "रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया। अपने लिए दो कुरते भी न रखो। जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो। यदि लोग तुम्हारा स्वागत न करें, तो उनके नगर से निकल कर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।" वे चले गए और सुसमाचार सुनाते तथा लोगों को चंगा करते हुए गाँव-गाँव घूमने लगे ।

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

आज प्रभु येसु अपने बारह प्रेरितों को मिशन पर भेजते हैं। वे उन्हें सामर्थ्य और अधिकार देते हैं – दुष्टात्माओं को निकालने और रोगियों को चंगा करने का। लेकिन इसके साथ ही प्रभु येसु उन्हें बहुत ही गहरा आदेश देते हैं: “रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ-न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया। अपने लिए दो कुरते भी न रखो।” यह शिक्षा हमें शिष्यत्व के बारे में बहुत गहराई से सोचने को आमंत्रित करती है। येसु अपने प्रेरितों को याद दिलाते हैं कि उनका मिशन धन, योग्यता या मानवीय सुरक्षा पर नहीं, बल्कि ईश्वर पर पूर्ण भरोसे पर आधारित है। ईश्वर का राज्य सांसारिक सामर्थ्य से नहीं, बल्कि विश्वास, सादगी और प्रभु पर पूर्ण निर्भरता से फैलता है। प्रेरितों को प्रचार करने, चंगा करने और साक्षी देने के लिए बुलाया गया, लेकिन साथ ही उनसे ईश्वर पर निर्भर और सादगी से जीने की अपेक्षा की गई। यह हमारे जीवन के लिए भी एक क्रांतिकारी शिक्षा है। अक्सर हम अपनी सुरक्षा - वस्तुओं, संबंधों या अपनी योजनाओं में ढूँढते हैं। लेकिन प्रभु येसु हमें हल्का होकर चलने के लिए बुलाते हैं, ताकि हमारा हृदय ईश्वर के लिए स्वतंत्र रह सके। संतों ने इस सत्य को गहराई से जिया। असीसी के संत फ्रांसिस ने सब कुछ त्याग दिया और निर्धनता में रहकर सुसमाचार का जीवित साक्ष्य बने। संत मदर तेरेसा ने भी अपने लिए कुछ नहीं रखा, लेकिन लाखों लोगों को मसीह के प्रेम का अनुभव कराया। उनका जीवन हमें दिखाता है कि सच्ची शक्ति वस्तुओं में नहीं, बल्कि ईश्वर पर निर्भर रहने में है। क्या मैं केवल ईश्वर पर भरोसा करता हूँ या अपनी सम्पत्ति, क्षमताओं और सुरक्षा पर अधिक निर्भर रहता हूँ? क्या मैं सादगी से जीने के लिए तैयार हूँ ताकि मेरा हृदय ईश्वर के मिशन के लिए अधिक खुला रहे? क्या मैं उन लोगों का स्वागत और समर्थन करता हूँ जो प्रभु के नाम पर आते हैं, जैसे प्रेरित - लोगों की आतिथ्य पर निर्भर थे? आइए, आज हम यह कृपा माँगें कि हम भी सच्चे प्रेरित बन सकें—स्वतंत्र, सरल, प्रभु पर भरोसा करने वाले और संसार में चंगाई और सुसमाचार की खुशख़बरी ले जाने वाले।

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

Today, Jesus sends out His twelve apostles with a mission. He gives them power and authority to cast out demons and to heal the sick. But He also gives them very striking instructions: “Take nothing for your journey—no staff, nor bag, nor bread, nor money; and do not have two tunics.” This moment teaches us something very deep about discipleship. Jesus reminds His apostles that their mission is not based on wealth, skills, or human security, but on complete trust in God. The Kingdom of God is proclaimed not through worldly strength, but through faith, simplicity, and total dependence on the Lord. The apostles are called to preach, to heal, and to witness, but they are also called to do it with detachment. This is a radical teaching for us as well. In our lives we often look for security in possessions, in relationships, or in our own plans. But Jesus invites us to travel lightly, so that our hearts may be free for God. The saints lived this truth in powerful ways. St. Francis of Assisi gave up everything to live in poverty and became a living witness of the Gospel. St. Mother Teresa also lived with nothing of her own, yet touched millions with the love of Christ. Their lives show us that true power comes from dependence on God, not on things. Do I place my trust in God alone, or do I rely too much on my possessions, abilities, and securities? Am I willing to live with simplicity so that my heart can be more open to God’s mission? Do I welcome and support those who come in the name of the Lord, like the apostles who depended on hospitality? Let us ask the Lord today for the grace to be true apostles—free, simple, trusting in Him, and ready to bring healing and Good News to the world.

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन- 2

पिता ईश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को दुनिया को मुक्ति दिलाने हेतु भेजा। ईश्वर का पुत्र संसार में आया। उन्होंने ईश्वर के राज्य के संदेश का प्रचार किया। उनका तरीका भी संदेश था। येसु सर्वशक्तिमान ईश्वर है। वे केवल एक वचन से मानव-मुक्ति का कार्य पूरा कर सकते थे। यदि सृष्टि ईश्वर के वचन से पूरी हो सकती थी, तो मुक्ति भी केवल एक शब्द से ही पूरी हो सकती थी। लेकिन येसु ने इस्राएल के बारह गोत्रों की परंपरा का पालन करते हुए बारह प्रेरितों के एक दल को इकट्ठा किया। तरीका है संयुक्तता और संदेश भी है संयुक्तता। येसु ने अपनी गतिविधियों को जारी रखने के लिए बारह शिष्यों का एक समूह बनाया। वे अपने चारों ओर विभिन्न संकेंद्रित वृत्तों के केंद्रक के रूप में काम करेंगे। इस एकता की सुंदरता यह है कि येसु हमेशा उनके बीच में हैं। येसु टीम-वर्क यानि दलीय कार्य के विशेषज्ञ थे। उन्होंने प्रेरितों का दल गठित किया। उन्होंने उसे अपने शब्दों, कर्मों और उपस्थिति से बनाया। उन्होंने उनके लिए लक्ष्य निर्धारित किए और अनुसरण करने के तरीके निर्धारित किए। उन्होंने उन्हें उनकी गतिविधियों के लिए नियम और निर्देश दिए। इन सब से अधिक, येसु स्वयं एक रहस्यमय तरीके से उनकी संगति में उपस्थित थे। कलीसिया में मैजिस्टरियम अर्थात्‍ कलीसिया का प्रामाणिक शिक्षा-अधिकारी और पदानुक्रम कलीसिया के इतिहास के दौरान केवल विकास के कुछ परिणाम मात्र नहीं हैं। ये सब प्रभु येसु के जीवन और सेवकाई की शैली और उससे भी बढ़कर मसीह के रहस्य से उत्पन्न हुए हैं। कलीसिया और विश्वासियों की भलाई के लिए हमें इनका सम्मान करने और इनके प्रति विनम्र होने की आवश्यकता है।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

The Father sent his only son into the world to redeem the world. The Son of God came into the world. He preached the message of the Kingdom of God. His method too was the message. Jesus is Almighty God. He could have accomplished the work of redemption just by a word. If the creation could have been accomplished by the word of God, the redemption too could have been accomplished by just a word. But Jesus gathered a band of twelve apostles seemingly following the tradition of the twelve tribes of Israel. The method is communion and the message too is communion. Jesus formed a group of Disciples to carry on his activities. They would work as the nucleus of various concentric circles around them. The beauty of this communion is that Jesus is in their midst always. Jesus was an expert in team-work. He formed the team of the apostles. He formed them by words, deeds and presence. He set goals for them and stipulated methods to follow. He gave them rules and instructions for their activities. More than all these, Jesus himself was present in their communion in a mysterious way. The mechanism of the Magisterium and hierarchy in the Church are not merely some developments in the course of church history. We can trace them back to the style of Jesus’ life and ministry and more than that, to the mystery of Christ. We need to respect them and be docile to it for the good of the Church and the believers.

-Fr. Francis Scaria

मनन-चिंतन-3

प्रभु येसु शिष्यों को सुसमाचार सुनाने और चंगा करने के लिए भेजते है। येसु शिष्यों को वही कार्य करने के लिए भेजते है जो कार्य वे स्वयं कर रहे थे। इस बात को जानना उनके अनुयायियों के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि बहुत लोग प्रभु के अनुयायी बनने के लिए आगे आतेेे है परंतु वे अपने इस जीवन में आगे बढ़कर शायद बड़े बड़े कार्य करने लगते सिवाये येसु के कार्यो को छोड़कर। जहॉं हम देखते है इस संसार के दूसरें सभी कार्यों को करने के लिये बहुत चीजों की जरूरत होती है, परंतु प्रभु के कार्यो को करने के लिए किसी चीज़ की जरूरत नहीं पड़ती; जिस प्रकार आज का वचन बताता है, ’’रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया।’’ कहने का तात्पर्य है प्रभु के कार्य करने के लिए जिस चीज की भी जरूरत है उसको प्रदान करने वाला ईश्वर है, क्योंकि वह उसका कार्य है। हम प्रभु पर आश्रित होना सीखें।

फादर डेन्नीस तिग्गा

📚 REFLECTION


Lord Jesus sends the disciples to proclaim the Kingdom of God and to heal. Lord Jesus sends the disciples to do the same work which he was doing. This thing should be know to the followers because many come forward to follow him but as they go ahead in life they do all the big big works accept the works of Jesus. As we see that many things are required to do the works of the world but to do the work of God no things are required, as the word of God says today, “Take nothing for your journey, no staff, nor bag, nor bread, nor money.” That means to say the things required to do the work of God will be provided by God himself because it is his work. Let’s learn to depend on God.

-Fr. Dennis Tigga

मनन-चिंतन - 4

ख्रीस्तीय विश्वासी देने के लिए बुलाये गये हैं, लेने के लिए नहीं। प्रभु येसु हमें सिखाते हैं कि हम अपने पास जो कुछ हैं उनमें से ज़रूरतमंदों को दें। वे धनी युवक से कहते हैं, “जाओ, अपना सब कुछ बेच कर ग़रीबों को दे दो” (मारकुस 10:21) प्रभु स्वयं अपना शरीर और रक्त भी दे देते हैं। शिष्यों के विषय में संत लूकस 9:6 कहता है, “वे चले गये और सुसमाचार सुनाते तथा लोगों को चंगा करते हुए गाँव-गाँव घूमते रहे”। वे प्रभु येसु के अनुदेश के अनुसार शुभ संदेश, चंगाई और शांति देते हुए जा रहे थे। प्रभु ने उन्हें अनुदेश दिया कि जब लोग उनका तिरस्कार करते हैं, तब वे “उनके नगर से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दें”। (लूकस 9:5) यह इस बात का भी प्रमाण है कि हम आप से कुछ लेने के लिए नहीं बल्कि देने के लिए आए हैं, हम आप के गाँव की धूल तक लेकर नहीं जायेंगे। हर ख्रीस्तीय विश्वासी को देना सीखना चाहिए, जितना ज्यादा हम दे सकेंगे उतना ज्यादा हम ख्रीस्तीय बनेंगे। सब से बडा दान हम जो दे सकते हैं – वह है जीवन की कुर्बानी।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


Christians are called to give, not to take. The Lord teaches us that we should give to those in need from whatever we have. He told the rich young man, “go, sell what you own, and give the money to the poor” (Lk 10:21). In Lk 9:6 we are told that the disciples went from village to village preaching the good news and healing people. According to the instructions of Jesus they were going around giving good news, healing and peace. Jesus had instructed them, “Wherever they do not welcome you, as you are leaving that town shake the dust off your feet as a testimony against them” (Lk 9:5). This is also a testimony that the preacher of the good news does not expect to receive anything from those to whom he is sent, not even the dust. He receives only from God. It is God who provides for him in his own mysterious ways. It is also a warning to them who have rejected God himself when they rejected his disciples.

-Fr. Francis Scaria