"सातवें महीने के इक्कीसवें दिन, नबी हग्गय को प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ी : "शअलतीएल के पुत्र यूदा के राज्यपाल जरुबबाबेल से, योसादाक के पुत्र प्रधानयाजक योशुआ और राष्ट्र के शेष लोगों से यह कहो क्या तुम लोगों में कोई ऐसा व्यक्ति जीवित है, जिसने इस मंदिर की पूर्व महिमा देखी है? और अब तुम क्या देख रहे हो? क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि कुछ भी नहीं बचा है? फिर भी हे जरुबबाबेल ! धीरज रखो ! यह प्रभु की वाणी है। हे योसादाक के पुत्र, प्रधानयाजक योशुआ ! धीरज रखो ! समस्त देश के निवासियो ! धीरज रखो ! यह प्रभु की वाणी है। निर्माण कार्य प्रारंभ करो। मैं तुम लोगों के साथ हूँ। यह विश्वमंडल के प्रभु की वाणी है। जब तुम मिस्र से निकल रहे थे, उस समय मैंने तुम से जो प्रतिज्ञा की है, मैं उसे पूरा करूंगा। मेरा आत्मा तुम्हारे बीच निवास करेगा। मत डरो ! क्योंकि विश्व-मंडल का प्रभु यह कहता है, 'मैं थोड़े समय बाद आकाश और पृथ्वी को, जल और थल को हिलाऊँगा, मैं सभी राष्ट्रों को हिला दूँगा। तब सब राष्ट्रों की सम्पत्ति यहाँ आएगी और मैं इस मंदिर को वैभव से भर दूँगा विश्वमंडल का प्रभु यह कहता है। चाँदी मेरी है और सोना मेरा है यह विश्वमंडल के प्रभु की वाणी है। इस पिछले मंदिर का वैभव पहले से बढ़ कर होगा - विश्वमंडल का प्रभु यह कहता है। और मैं इस स्थान पर शांति प्रदान करूंगा यह विश्वमंडल के प्रभु की वाणी है।"
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : मैं ईश्वर पर भरोसा रखूँगा। मैं अपने मुक्तिदाता और अपने ईश्वर की स्तुति करूँगा ।
1. हे ईश्वर ! मुझे न्याय दिला। इस विधर्मी पीढ़ी के विरुद्ध मेरा पक्ष ले। हे ईश्वर ! कपटी और कुटिल लोगों से मुझे बचाए रखने की कृपा कर
2. हे ईश्वर ! तू ही मेरा आश्रय है। तूने मुझे क्यों त्याग दिया? शत्रु के अत्याचार से दुःखी हो कर मुझे क्यों भटकना पड़ रहा है?
3. अपनी ज्योति और अपना सत्य भेज दे। वे मुझे मार्ग दिखाएँ और मुझे तेरे पवित्र पर्वत तक, तेरे निवासस्थान तक पहुँचा दें
4. मैं ईश्वर की वेदी के पास जाऊँगा, ईश्वर के पास, जो मेरा आनन्द है। मैं वीणा बजाते हुए अपने प्रभु-ईश्वर की स्तुति करूँगा ।
अल्लेलूया ! मानव पुत्र सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है। अल्लेलूया !
किसी दिन प्रभु येसु एकांत में प्रार्थना कर रहे थे और उनके शिष्य उनके साथ थे। येसु ने उन से पूछा, "मैं कौन हूँ, इसके विषय में लोग क्या कहते हैं?" उन्होंने उत्तर दिया, "योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं – प्राचीन नबियों में से कोई पुनर्जीवित हो गया है।" येसु ने उन से कहा, "और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?" पेत्रुस ने उत्तर दिया, "ईश्वर के मसीह ।" उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि वे यह बात किसी को भी नहीं बतायें । उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा ।"
प्रभु का सुसमाचार।
आज प्रभु येसु अपने शिष्यों से एक गहरा और व्यक्तिगत प्रश्न पूछते हैं: “लोग क्या कहते हैं कि मैं कौन हूँ?” और फिर सीधे उनसे पूछते हैं: “पर तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” यह केवल प्रेरितों के लिए ही नहीं, बल्कि हर युग के ख्रीस्तियों के लिए निर्णायक प्रश्न है। संत पेत्रुस साहसपूर्वक घोषणा करते हैं : “आप ही ईश्वर के मसीह हैं।” यह घोषणा विश्वास की नींव है। लेकिन प्रभु येसु तुरंत स्पष्ट करते हैं कि यह मसीह सांसारिक महिमा और सत्ता से नहीं, बल्कि दुःख, अस्वीकृति और क्रूस के मार्ग से होकर आएगा। मसीह का मार्ग बलिदान का मार्ग है, और उसके अनुयायी भी इसी मार्ग पर चलने को बुलाए गए हैं। हमारे जीवन में भी यही चुनौती है। हम अक्सर चाहते हैं कि मसीह केवल हमारी समस्याओं का हल करें, हमारी इच्छाएँ पूरी करें। लेकिन सच्चा शिष्यत्व तभी है जब हम मसीह को केवल एक सहायक नहीं, बल्कि अपने जीवन का प्रभु और उद्धारकर्ता मानकर उनका अनुसरण करें—जब वह हमें क्रूस के मार्ग पर ले जाते हैं। संत पेत्रुस की घोषणा हमें प्रेरित करता है, लेकिन साथ ही उनकी कमजोरी भी हमें याद दिलाती है कि विश्वास एक यात्रा है। उन्होंने मसीह को पहचाना, पर जब कठिनाई आई तो उन्हें इंकार भी किया। फिर भी प्रभु ने उन्हें क्षमा किया और अपनी कलीसिया का आधार बनाया। यह हमें आशा देता है कि हमारी दुर्बलताओं के बावजूद, प्रभु हमें अपने कार्य के लिए चुनते और संभालते हैं। क्या मैं सचमुच अपने जीवन में प्रभु येसु को मसीह और प्रभु मानता हूँ, या केवल सुविधा और मदद का स्रोत? क्या मैं उनके साथ दुःख और बलिदान का मार्ग चलने को तैयार हूँ? क्या मेरा विश्वास केवल शब्दों तक सीमित है, या मेरे जीवन के चुनाव और साक्षी में प्रकट होता है? आइए, आज हम यह कृपा माँगें कि हम केवल होंठों से नहीं, बल्कि अपने जीवन की संपूर्णता से प्रभु येसु की घोषणा करें—“आप ही ईश्वर के मसीह हैं।”
✍ - फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट
In today’s Gospel, we find the Lord Jesus asking His disciples a deep and personal question: “Who do people say that I am?” And then He directly asks them: “But who do you say that I am?” This is not only a decisive question for the Apostles, but for Christians of every age. St. Peter boldly declares: “You are the Messiah of God.” This proclamation is the foundation of faith. Yet Jesus immediately makes it clear that this Messiah will not come through worldly glory or power, but through suffering, rejection, and the way of the Cross. The path of the Messiah is the path of sacrifice, and His followers are called to walk that same path. This is the challenge in our lives as well. We often want Christ to only solve our problems and fulfill our desires. But true discipleship is when we follow Him not merely as a helper, but as our Lord and Savior — even when He leads us along the way of the Cross. St. Peter’s declaration inspires us, but his weakness also reminds us that faith is a journey. He recognized Christ, yet when faced with trial, he denied Him. Still, the Lord forgave him and made him the foundation of His Church. This gives us hope that, despite our weaknesses, the Lord chooses us and sustains us for His mission. So we must ask ourselves: Do I truly acknowledge Jesus in my life as the Christ and Lord, or do I see Him only as a source of help and convenience? Am I ready to walk with Him on the path of suffering and sacrifice? Is my faith limited to words, or is it revealed through my choices and the witness of my life? Let us pray today for the grace to proclaim Jesus not only with our lips but with the entirety of our lives: “You are the Messiah of God.”
✍ -Fr. George Mary Claret
‘‘और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूॅं?’’ यह प्रश्न येसु ने पेत्रुस से पूछा और इस प्रश्न पर हमने कई बार मनन चिंतन किया होगा। यह प्रश्न हम सब के लिए व्यक्तिगत रूप से सवाल करता है कि आखिर येसु ‘मेरे’ लिए कौन है? इस प्रश्न का हम ख्रीस्तीयों का जवाब यहीं होगा कि येसु प्रभु है, जिसकों कभी हम दोस्त के रूप में, सहायक के रूप में या एक मुक्तिदाता के रूप में या किसी अन्य रूप में जानते है। मान लिजिए यदि हम किसी अन्य धर्म में पैदा होते और हम येसु के बारे में दूसरों से सुनते तब हमारा जवाब क्या यही होता कि येसु ही प्रभु है। आइये हम दूसरों के कहने से नहीं परंतु अपने अंर्ततम से विश्वास करें कि येसु ही प्रभु है।
✍फादर डेन्नीस तिग्गा
“But who do you say that I am?” This is the question Peter was asked by Jesus and we too might have reflected on this many times. This question asks us personally that who is Jesus for ‘me’. The answer to this question for us Christians will be Jesus is the God whom we know as a friend, a helper, a Saviour or any other. Imagine if we would have born in some other religion and we would have heard about Jesus from others then whether our answer would have been same that Jesus is the Lord. Let’s believe not by the sayings of others but by our own conviction that Jesus is the Lord.
✍ -Fr. Dennis Tigga
प्रभु येसु यह जानना चाहते थे कि तीन साल उनके साथ रहने, उनकी शिक्षा सुनने तथा उनके कार्य देखने के बाद शिष्यों का उनके बारे में क्या विचार था। पेत्रुस ने सभी शिष्यों की ओर से कहा कि आप ईश्वर के मसीह हैं। उस समय के लोग यह सोच रहे थे कि योहन बपतिस्ता, एलियस या पुराने नबियों में कोई येसु के रूप में वापस आया है। उस सोच से हट कर जब शिष्यों ने उनको मसीह के रूप में देखा, तब प्रभु को पता था कि यह पिता ईश्वर ने ही उन पर प्रकट किया है। उस सच्चाई का एक और महत्वपूर्ण पहलू था जिसका ज्ञान शिष्यों के लिए जरूरी था। वह था दुख-भोग का पहलू। मसीह को दुख भोगना, मार डाला जाना तथा तीसरे दिन जी उठना होगा। वे शायद एक विजेता मसीह की ही कल्पना कर पा रहे थे। लेकिन दुख-भोग मसीह के जीवन का अभिन्न अंग था। हम येसु को क्रूस से अलग नहीं कर सकते हैं। हम क्रूसित प्रभु को ही मानते हैं और उन्हीं की हम घोषणा करते हैं।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Jesus wanted to know what the disciples had thought about him after having stayed with him, listened to him and seen his works. Peter, on behalf of the disciples, told him that he was the Christ. The people of that time thought John the Baptist, or Elijah or one of the prophets had come back to life in the person of Jesus. Differing from them when Peter proclaimed him as the Christ of God Jesus understood that the Father had revealed this to them. Yet he wanted them to grasp an important aspect of his messiahship – that of suffering. So he told them that the messiah is to suffer, to die and rise again on the third day. The disciples could think only of a triumphant messiah. But suffering was an indispensable aspect of the life of the messiah. We cannot separate Jesus from the Cross. We believe and proclaim the crucified Lord.
✍ -Fr. Francis Scaria