मैंने आँखें उठा कर एक दिव्य दृश्य देखा। मैंने हाथ में नापने की डोरी लिए हुए एक मनुष्य को देखा और मैंने पूछा, "आप कहाँ जा रहे हैं?" उसने मुझे उत्तर दिया, "मैं येरुसालेम नापने और यह देखने जा रहा हूँ कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई कितनी होगी।" जो स्वर्गदूत मुझ से बोल रहा था, वह आगे बढ़ा और एक दूसरे स्वर्गदूत ने उसके पास आकर कहा, "उस नवयुवक के पास दौड़ कर कहिए: येरुसालेम में मनुष्यों और पशुओं की इतनी भारी संख्या होगी कि उसके चारों ओर चारदीवारी नहीं बनायी जाएगी।" प्रभु यह कहता है, "मैं स्वयं उसके चारों ओर आग की दीवार बन कर रहूँगा और अपनी महिमा के पच्चीसवाँ सप्ताह शनिवार साथ उसके बीच में निवास करूँगा।" प्रभु कहता है, "हे सियोन की पुत्री ! आनन्द का गीत गा, क्योंकि मैं तेरे यहाँ निवास करने आ रहा हूँ। उस दिन बहुत-से राष्ट्र प्रभु के पास आएँगे। वे उसकी प्रजा बनेंगे, किन्तु वह तेरे यहाँ निवास करेगा।”
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : चरवाहा जिस तरह अपने झुण्ड की रक्षा करता है, प्रभु उसी तरह हमारी रक्षा करेगा।
1. हे राष्ट्रो ! प्रभु की वाणी सुनो। सुदूर द्वीपों तक यह घोषित करो, "जिसने इस्राएल को बिखेरा, वही उसे एकत्र करेगा और उसकी रक्षा करेगा, जैसा कि चरवाहा अपने झुण्ड की रक्षा करता है।"
<>2. क्योंकि प्रभु ने याकूब का उद्धार किया और उसे शक्तिशाली शत्रु के पंजे से छुड़ाया है। वे लौट कर सियोन पर्वत पर आनन्द के गीत गाएँगे, वे बड़ी संख्या में प्रभु के वरदान लेने आएँगे3. तब कुँवारियाँ उल्लसित हो कर नृत्य करेंगी, नवयुवक और वृद्ध एक साथ आनन्दित हो उठेंगे। मैं उनका शोक आनन्द में बदल दूँगा, मैं उन्हें सान्त्वना दूँगा और दुःख के बदले सुख प्रदान करूँगा ।>
अल्लेलूया ! हमारे मुक्तिदाता और मसीह ने मृत्यु का विनाश किया और अपने सुसमाचार द्वारा अमर जीवन को आलोकित किया । अल्लेलूया ।
सब लोग येसु के कार्यों को देख कर अचंभे में पड़ जाते थे, किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "तुम लोग मेरे इस कथन को भली-भाँति स्मरण रखो मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जाएगा।" परन्तु यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकी। इसका अर्थ उन से छिपा ही रह गया और वे इसे नहीं समझ पाते थे। इसके विषय में येसु से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था ।
प्रभु का सुसमाचार।
आज प्रभु येसु अपने शिष्यों को एक बहुत ही गहरी शिक्षा देते हैं। लोग उनके चमत्कारों को देखकर चकित हो रहे थे, लेकिन इसी क्षण में प्रभु येसु अपने शिष्यों को उनके दुःखभोग और क्रूस की ओर इंगित करते हैं। वे बताते हैं कि मानव पुत्र मनुष्यों के हाथों में पकड़वाया जायेगा। प्रभु अपने चेलों को सिखाना चाहते हैं कि सच्चा ख्रीस्तीय मार्ग केवल महिमा का नहीं, बल्कि क्रूस का भी मार्ग है। शिष्य इस शिक्षा को समझ नहीं पाए, क्योंकि उनका मन केवल सफलता, शक्ति और महिमा की ओर देख रहा था। परन्तु प्रभु येसु हमें याद दिलाते हैं कि ईश्वर की योजना हमेशा हमारी सोच से बड़ी होती है। दुःख और बलिदान हार नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रेम की गहराई और उद्धार की राह हैं। क्या मैं केवल चमत्कार और आशीर्वाद की खोज करता हूँ, या क्रूस और बलिदान के मार्ग को भी स्वीकार करता हूँ? क्या मैं गरीबों और जरूरतमंदों में प्रभु मसीह को पहचानने की कोशिश करता हूँ? क्या मेरा विश्वास केवल शब्दों में है या मेरे जीवन के कार्यों में भी प्रकट होता है?
✍ - फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट
Today, Jesus gives His disciples a profound teaching. While the people were amazed at His miracles, Jesus points His disciples to the Cross. He tells them that the Son of Man will be handed over to men. He is preparing them to understand that true discipleship is not only about glory and success, but also about sacrifice and suffering. The disciples could not understand this teaching, because their minds were still fixed on worldly honor and greatness. But Jesus reminds us that God’s plan is greater than our human thinking. The Cross is not defeat, but the deepest revelation of God’s love and the path to salvation. Am I searching only for miracles and blessings, or am I also ready to embrace the way of the Cross? Do I try to recognize Christ in the poor and needy around me? Is my faith expressed only in words, or does it become visible in my daily actions?
✍ -Fr. George Mary Claret
अपने दुखभोग और मृत्यु की भविष्यवाणी करते हुए येसु ने कहा, "तुम लोग मेरे इस कथन को भली भाँति स्मरण रखो "। येसु की पीड़ा और मृत्यु हमारे छुटकारे के रहस्य के केंद्र में है। इस तरह मानजाति को मुक्ति प्राप्त हुयी। येसु की मृत्यु न तो कोई दुर्घटना थी और न ही केवल उनके उपदेशों का परिणाम। कुछ लोग इसकी व्याख्या को इस प्रकार सरल बनाने की चेष्टा करते हैं। पास्का रहस्य मानवजाति के उध्दार के के लिए ईश्वरीय योजना का केन्द्र था। इसलिए इस रहस्य को बार-बार स्मरण करने की आवश्यकता होती है। संत पौलुस प्रभु भोज की स्थापना के बारे में बात करते हुए कहते हैं, "मैंने प्रभु से सुना और आप लोगों को भी यही बताया" (1 कुरिन्थियों 11:23) और यह कहते हुए समाप्त करते हैं, "जब-जब आप लोग यह रोटी खाते और वह प्याला पीते हैं, तो प्रभु के आने तक उनकी मृत्यु की घोषणा करते हैं”। (1 कुरिन्थियों 11:26)। येसु की मृत्यु को न केवल विश्वासियों द्वारा एक अनुष्ठानिक तरीके से मनाया जाता है, बल्कि विश्वासियों द्वारा इसे जिया भी जाता है। आईए हम, प्रभु येसु के दुखभोग और मृत्यु के महत्व को समझने और इसे अपने जीवन में जीने के लिए, कृपा माँगे।
✍ - फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया
While predicting his passion and death Jesus added, “Let these words sink into your ears”. Suffering and death of Jesus is at the centre of our mystery of redemption. That is the way the humanity was redeemed. The death of Jesus was not an accident, nor was it simply a consequence of what he preached, as some would simplify its interpretation. The Paschal Mystery was at the heart of the divine plan for the redemption of humanity. That is why this mystery needs to be commemorated again and again. St. Paul while speaking about the institution of the Lord’s supper says, “I received from the Lord what I also handed on to you” (1Cor 11:23) and concludes saying, “For as often as you eat this bread and drink the cup, you proclaim the Lord’s death until he comes’ (1 Cor 11:26). The death of Jesus is not only celebrated in a ritual way by the believers, but also lived by the believers. We need to ask the Lord to help us to understand the significance of the sufferings and death of Jesus and to live it in our own lives.
✍ -Fr. Francis Scaria
जिस व्यक्ति के पास शक्ति है लोगों के दुख और दर्द को दूर करने के लिए उसी व्यक्ति को दुख उठाना पड़े, इस बात को हज्म कर पाना या समझ पाना बहुत ही मुश्किल है। यह बिना मेल होने वाला बात बिलकुल ही अलग है जिसे समझ पाना शिष्यों के लिए भी आसान नहीं था। इसी बात को शास्त्रियों और नेताओं के साथ महायाजक भी नहीं समझ पायें इसलिये वे कू्रस में टंगे येसु से कहते है‘‘इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता’’ मत्ती 27ः41-42। प्रभु येसु का दुख भोगना उनके अपने लिए नहीं परंतु हम सब के लिये था। और इसी चीज़ को बहुत सारे संत एवं अच्छाई तथा पवित्र जीवन बिताने वाले करते है; वे अपने लिए नहीं परंतु दूसरों के लिए दुख सहते है। उदाहरण के तौर पर संत तेरेसा, संत अल्फोंसा इत्यादि। हम भी प्रभु येसु के समान दूसरों के लिए आशिष का माध्यम बनें।
✍फादर डेन्नीस तिग्गा
It is very difficult to digest that the one, who has the power to take away the sorrow and pain of others he himself has to suffer the pain. This mismatch is very different which was not easy for the disciples to understand. Same thing was not understood by the chief priests, the teachers of the law and the elders that is why they say to Jesus on the cross, “He saved others, but he can’t save himself” Mt 27:41-42. Jesus bearing the pain and suffering was not because of himself but because of us and for us; and the same thing is done by many Saints and people who live good and holy life; they do not bear the pain for themselves but for others. The example for this is Saint Teresa, Saint Alphonsa and so on. May we too also become the medium of blessings for others.
✍ -Fr. Dennis Tigga
येसु ने जो सिखाया और किया, उन सब को देख कर साधारण लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। वे उनकी बातें सुन कर आश्चर्यचकित हो जाते थे और स्वयं प्रश्न करते थे कि इन्हें यह सब ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ। वे उनके कामों को देख कर अचंभे में पड जाते थे और कहते थे हमने ऐसे कार्य कभी नहीं देखे। फिर भी येसु उन्हें यह समझाना चाहते थे कि क्रूस ही मुक्ति का साधन था। उनके शिष्यों के लिए उनकी महान शिक्षाओं और चमत्कारों को स्वीकार करना आसान था लेकिन एक पीड़ित तथा तिरस्कृत मसीह की कल्पना करना भी उनके लिए कठिन था। इसलिए येसु बार-बार अपने आगामी दुख-भोग और मौत पर जोर देते हैं ताकि उन्हें क्रूस के अपमान का सामना करने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार किया जा सके।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
The crowds were mesmerised by all that Jesus taught and did. They would hang on to his lips and ask themselves whether this man got all this wisdom. They would look at his deeds and wonder that they had never seen anything like that. Yet more than anything else Jesus wanted his disciples to know that Cross was the instrument of Redemption. It was easy for his disciples to accept his great teachings and miracles but it was hard for them even to visualize a suffering messiah. Hence Jesus would again and again come back to stress his impending passion and death to prepare them adequately to face the scandal of the cross.
✍ -Fr. Francis Scaria