वर्ष का छब्बीसवाँ सप्ताह, मंगलवार - वर्ष 1

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📕पहला पाठ

नबी ज़कर्या का ग्रन्थ 8:20-23

"बहुसंख्यक लोग येरुसालेम में प्रभु के दर्शन करने आएँगे ।"

विश्वमंडल का प्रभु यह कहता है- राष्ट्र तथा महानगरों के निवासी फिर आएँगे। एक नगर के लोग दूसरे नगर के लोगों के पास जा कर कहेंगे, "आइए, हम प्रभु की कृपा माँगने चलें; हम विश्वमंडल के प्रभु के दर्शन करने जाएँ। मैं तो जा रहा हूँ।" इस प्रकार बहुसंख्यक लोग और शक्तिशाली राष्ट्र विश्वमंडल के प्रभु के दर्शन करने और प्रभु की कृपा माँगने के लिए येरुसालेम आयेंगे । विश्वमंडल का प्रभु यह कहता है उन दिनों राष्ट्रों में प्रचलित सभी भाषाएँ बोलने वाले दस मनुष्य एक यहूदी की चादर का पल्ला पकड़ेंगे और कहेंगे, "हम आप लोगों के साथ चलना चाहते हैं, क्योंकि हम ने सुना है कि ईश्वर आप लोगों के साथ है।"

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 86:1-7

अनुवाक्य : ईश्वर हमारे साथ है ।

1. प्रभु पवित्र पर्वत पर बसे हुए अपने नगर को प्यार करता है। याकूब के अन्य नगरों की अपेक्षा सियोन के फाटक प्रभु को अधिक प्रिय हैं। हे ईश्वर के नगर ! वह तेरा गुणगान करता है

2. "मिस्र और बाबुल के निवासी मेरी आराधना करेंगे। जो तीरुस, फिलिस्तिया तथा इथोपिया में उत्पन्न हुए हैं, वे सभी सियोन को अपनी माता कहेंगे, क्योंकि वे उसकी सन्तान बन जाएँगे।"

3. सर्वोच्च प्रभु उसे सुदृढ़ बनाये रखेगा। वह राष्ट्रों की सूची में उनके विषय में लिखेगा कि वे सियोन की सन्तान हैं। वे सब नृत्य करते हुए यह गायेंगे - सभी लोग तुझे अपनी मातृभूमि मानते हैं।

📒जयघोष

अल्लेलूया ! मानव पुत्र सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है। अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 9:51-56

"येसु ने येरुसालेम जाने का निश्चय किया ।"

अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर येसु ने येरुसालेम जाने का निश्चय किया और संदेश देने वालों को अपने आगे भेजा । वे चले गये और उन्होंने येसु के रहने का प्रबंध करने के लिए समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया। लोगों ने येसु का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वह येरुसालेम जा रहे थे। उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, "प्रभु ! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे।" पर येसु ने मुड़ कर उन्हें डाँटा और वे दूसरी बस्ती चले गये।

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार लूकस 9:51-56 हमें दिखाता है कि प्रभु येसु के मिशन में प्रेम, क्षमा और समझ की कितनी अहमियत है। जब कुछ गाँव के लोग उन्हें अस्वीकार करने वाले नजर आए, तब प्रेरित याकूब और योहन क्रोध में कहने लगे: “प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे”। लेकिन प्रभु येसु ने उन्हें टोका। उन्होंने दिखाया कि ईश्वर का कार्य हिंसा और बदले में नहीं, बल्कि धैर्य, प्रेम और आज्ञाकारिता में निहित है। प्रभु येसु हमें यह सिखाते हैं कि हमारे जीवन में ईश्वर के मिशन के लिए क्रोध, घृणा या शक्ति के दिखावे का कोई स्थान नहीं है। हर कार्य में नम्रता, धैर्य और विश्वास जरूरी है। क्या मैं ईश्वर के मिशन में धैर्य और प्रेम से काम लेता हूँ, या क्रोध और असहिष्णुता में फँस जाता हूँ? क्या मैं पवित्र वचन का नियमित अध्ययन करता हूँ ताकि मैं मसीह को और बेहतर समझ सकूँ? क्या मैं संत जेरोम की तरह अपने जीवन को वचन और सेवा के लिए समर्पित कर सकता हूँ?

- फ़ादर जॉर्ज मेरी क्लारेट


📚 REFLECTION

Today’s Gospel shows us the importance of love, patience, and understanding in Jesus’ mission. When some villagers rejected Him, the disciples James and John became angry and said: “Lord, do you want us to call fire down from heaven to destroy them?” But Jesus rebuked them. He showed that God’s work is not in violence or revenge, but in patience, love, and obedience. Jesus teaches us that in our lives, there is no place for anger, hatred, or show of power when fulfilling God’s mission. Every action must be guided by humility, patience, and faith. Do I act with patience and love in God’s mission, or do I fall into anger and intolerance? Do I study the Scriptures regularly so that I may know Christ better? Can I dedicate my life like St. Jerome, to the Word of God and to serving others?

-Fr. George Mary Claret


📚 मनन-चिंतन - 2

सुसमाचार हमें बताता है कि जब येसु ने सन्देश वाहको को भेजा तो सामरियों ने उनका स्वागत करने से इंकार कर दिया। वह येरूसालेम जा रहे थे, क्योंकि उनके दुःख का समय निकट आ गया था। विभाजन से उत्पन्न प्रतिशोध और प्रतिशोध की जोशीली प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही थी जैसी शिष्य अपेक्षा कर रहे थे। एक दयालु प्रतिक्रिया येसु के हृदय के बहुत करीब हो सकती है। इसका मतलब है कि हम चिंतन और प्रार्थनापूर्वक विचार करें कि सुसमाचार हमारे विरोधियों के प्रति हमारे कार्यों को कैसे बदल सकता है। यह परिच्छेद हमें करुणामय प्रतिक्रिया के लिए बुलाता है। येसु के शिष्य सुसमाचार की खातिर, शत्रुतापूर्ण संस्कृति के सामने करुणा दिखाने के लिए बुलाये गए है। सुसमाचार का सेवक होना न्याय को उजागर नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रेम की घोषणा करना है।

फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.

📚 REFLECTION


The gospel tells us how Jesus is denied of hospitality by the Samaritans when he sent messengers. He was going up to Jerusalem, as the time of his passion was already drawing near. The zealous response of retribution and vengeance that results from division was precisely what the disciples were expecting. A compassionate response might be much closer to the heart of Jesus. This means we reflect and prayerfully consider how the gospel might change our actions towards our opponents. This passage calls us to a compassionate response. The disciple of Jesus is called to show compassion in the face of a hostile culture, for the sake of the gospel. To be a servant of the gospel is not to highlight judgment or long for execution, but to seek to save lives as long as God allows.

-Fr. Sanjay Kujur SVD

मनन-चिंतन -3

तिरस्कार जीवन की ऐसी सच्चाई है जिसे जीवन में हर किसी को सामना करना पड़ता है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि हर कोई हमारा स्वागत सत्कार करें। यहीं प्रभु येसु के साथ भी हुआ उन्हें अपने स्वयं के नगर के लोगों से तिरस्कार सहना पड़ा, फरीसी शास्त्री से तिरस्कार सहना पड़ा, गेरासेनियों के लोगो से तिरस्कार सहना पड़ा और आज के सुसमाचार में येसु को समारियों से तिरस्कार सहना पड़ा। परंतु येसु ने कभी भी उनका तिरस्कार करने वालो का बुरा नहीं चाहा परंतु उनका भला ही चाहा। जिस प्रकार वे कू्रस पर टॅंगे होने पर भी उनका अपमान करने वालों के लिए प्रार्थना करते है, ‘‘पिता! इन्हें क्षमा कर क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या कर रहें है।’’ यह स्वभाव ईश्वर का स्वभाव को दर्शाता है जो भले और बुरे दोनो पर सूर्य उगाता तथा धर्मियों और अधर्मियों दोनो पर पानी बरसाता है।

फादर डेन्नीस तिग्गा

📚 REFLECTION


Rejection is that reality of life which everyone has to face in their lives because it is not necessary that all will welcome us or all will be good to us. This happed with Jesus also; He bore the rejections of the people from his own home town, rejection from Pharisees and Scribes, rejection from the people of Gerasenes and in today’s gospel Jesus was rejected by the people of Samaria. But Jesus never thought of bad for the people who rejected him but instead thought only good for them. As being hung on the Cross he prays for those who humiliated him, “Father, forgive them; for they do not know what they are doing.” This nature reflects the nature of God who makes his sun rise on the evil and on the good, and sends rain on the righteous and on the unrighteous.

-Fr. Dennis Tigga