वर्ष का उनतीसवाँ सप्ताह, मंगलवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 5:12-15,17-21

"मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप आरंभ हुआ; एक ही मनुष्य ईसा मसीह के द्वारा लोग जीवन प्राप्त करेंगे ।"

एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी हैं। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत-से लोग मर गये, किन्तु इस परिणाम से कहीं अधिक महान् है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य येसु मसीह द्वारा सबों को मिला है। यह भी सच है कि मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप - एक ही के द्वारा प्रारंभ हुआ, किन्तु जिन्हें ईश्वर की कृपा तथा पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा में मिलेगा, वे एक ही मनुष्य येसु मसीह के द्वारा जीवन का राज्य प्राप्त करेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस तरह एक ही मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप सबों को दण्डाज्ञा मिली, उसी तरह एक ही मनुष्य के प्रायश्चित्त के फलस्वरूप सबों को पापमुक्ति और जीवन मिला। जिस तरह एक ही मनुष्य के आज्ञाभंग के कारण सब पापी ठहराये गये, उसी तरह एक ही मनुष्य के आज्ञापालन के कारण सब पापमुक्त ठहराये जायेंगे। जहाँ पाप की वृद्धि हुई, वहाँ अनुग्रह की उस से कहीं अधिक वृद्धि हुई। इस प्रकार पाप मृत्यु के माध्यम से राज्य करता रहा, किन्तु हमारे प्रभु येसु मसीह द्वारा अनुग्रह, धार्मिकता के माध्यम से, अपना राज्य स्थापित करेगा और हमें अनन्त जीवन तक ले जायेगा ।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 39:7-10,17

अनुवाक्य : हे प्रभु ! मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करने आया हूँ।

1. तूने न तो यज्ञ चाहा और न चढ़ावा, किन्तु तूने मुझे सुनने के कान दिये। तूने न तो होम माँगा और न बलिदान, इसलिए मैंने कहा देख ! मैं आ रहा हूँ।

2. मुझे धर्मग्रंथ में यह आदेश दिया गया है कि मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करूँ। हे मेरे ईश्वर ! तेरी इच्छा पूरी करने में मुझे आनन्द आता है, तेरा नियम मेरे हृदय में घर कर गया है

3. मैंने सबों के सामने तेरे न्याय का बखान किया। तू जानता है कि मैंने अपना मुँह बन्द नहीं रखा

4. जो तुझे खोजते हैं, वे आनन्दित और प्रफुल्लित हो उठें। जो तेरी सहायता की राह देखते हैं, वे यह कहते जायें, "प्रभु महान् हैं।"

📒जयघोष

अल्लेलूया ! जागते रहो और सब समय प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम भरोसे के साथ मानव पुत्र के सामने खड़ा होने योग्य बन जाओ । अल्लेलूया !

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 12:35-38

"धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी आने पर जागता हुआ पायेगा।"

येसु ने अपने शिष्यों से यह कहा, "तुम्हारी कमर कसी रहे और तुम्हारे दीपक जलते रहें । तुम उन लोगों के सदृश बन जाओ जो अपने स्वामी की राह देखते रहते हैं कि वह बरात से कब लौटेगा, ताकि जब स्वामी आ कर द्वार खटखटाये तो वे तुरन्त ही उसके लिए द्वार खोल दें। धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी आने पर जागता हुआ पायेगा! मैं तुम से कहे देता हूँ : वह अपनी कमर कसेगा, उन्हें भोजन के लिए बैठायेगा और एक-एक को खाना परोसेगा। और धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी रात के दूसरे या तीसरे पहर आने पर उसी प्रकार जागता हुआ पायेगा।"

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

सुसमाचार का केंद्रीय विषय प्रभु का महिमामय पुनरागमन है। सुसमाचार परिच्छेद का सबसे महत्वपूर्ण विचार स्वामी की अनुपस्थिति है जो अपनों को बिना त्यागे दूर चला जाता है। इसे ईश्वर के कार्य करने के तरीके के रूप में सुझाते हुए, येसु मानवता को दी गई स्वतंत्रता का रहस्य भी शामिल किये। हम यह चुन सकते हैं कि शारीरिक दबाव के बिना, चालाकपूर्ण उपस्थिति महसूस किए बिना जीवन के उपहार का प्रबंधन कैसे किया जाए। दीपक जलते रहने का रूपक (निर्गमन २७:२० और लेव २४:२) प्रतीक्षा को सावधानीपूर्वक ध्यान देने के समय के रूप में दर्शाता है। स्वामी की स्पष्ट अनुपस्थिति उसके स्थान पर अपने और दूसरों के जीवन का पूर्ण मध्यस्थ बनने का दिखावा करने का प्रलोभन पैदा कर सकती है। ईश्वर के दृष्टिकोण से, प्रतीक्षा प्रेम के नियम पर प्रतिक्रिया करती है। हमारा जीवन और कर्म दीपक को मंद या बुझने न दें। आइए हम प्रभु की प्रतीक्षा में ईमानदार और वास्तविक बनें।

फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.

📚 REFLECTION


The central theme of the Gospel is the second coming of the Lord in glory. The most important idea of the Gospel passage is the absence of the master who steps away, without abandoning his own to whatever may come. In suggesting this as God’s way of working, Jesus also includes the mystery of the freedom given to humanity. We can choose how to manage the gift of life without physical pressure, without feeling a manipulative presence. The metaphor of the lamps to keep burning (Ex 27:20 and Lev 24:2) qualifies the waiting as a time of careful attentiveness. The apparent absence of the master can lead to the temptation to replace him, pretending to become the absolute arbitrators of life of one’s own and that of others. From God’s perspective, waiting responds to the law of love. Let not be our life and actions dim or douse the lamp. Let us be honest and real about our waiting for the Lord.

-Fr. Sanjay Kujur SVD

📚 मनन-चिंतन -2

तैयारी एक गुण है। यह एक बार की कार्यवाही नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है। यह किसी भी घटना के लिए तैयार रहने के लिए लगातार प्रयास करने की बात है। तैयार होने का अर्थ है तैयार रहना। लेकिन तैयार रहने के पीछे गहरा और महत्वपूर्ण सन्देश है। शादी की दावत के बाद घर लौटने वाले स्वामी के दृष्टांत में आश्चर्य का तत्व है। क्या वह पहरा देने के बजाय अपने सेवक को सोते हुए पाएगा?

इस दृष्टान्त में विश्वसनीयता और आलस्य के बारे दोहरे पाठ है। वफादारी किसी भी स्थायी और सार्थक रिश्ते की नींव होती है। अटूट प्रेम और निष्ठा के बंधन में प्रभु हमारे प्रति वफादार हैं। वादे का मतलब है, अपनी बात, वादे और प्रतिबद्धता को निभाना, चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो। विश्वसनीयता एक ऐसी चीज है जो ईश्वर के साथ मजबूत संबंध बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह ऐसी चीज है जिसकी ईश्वर हमसे अपेक्षा करते है। रहस्यमय रूप से ईश्वर विश्वसनीय बनने के लिए अनुग्रह और शक्ति देते है। वह वफादारी का पुरस्कार भी देते है।

प्रभु हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उन उपहारों और अनुग्रहों का सदुपयोग करें जो वह हमें देते हैं। जब स्वामी दूर होता है तो कर्तव्य को कल के लिए टालना प्रलोभन होता है लेकिन हम जानते हैं कि स्वामी हमसे आज करने की अपेक्षा करता है। हमें ईश्वर के प्रति वफादार रहना चाहिए और उसे अपने भण्डारीपन का हिसाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन

📚 REFLECTION


Preparedness is a virtue. It is not a one-time action but a process. It is a matter of consistent efforts to be prepared for any eventuality. Being prepared means being ready for action. There is something deeper and even more important behind it. There is an element of surprise in the parable of the master returning home after the marriage feast. Would he find his servant sleeping rather than keeping watchful guard?

The parable has a twofold lesson about faithfulness and against sloth. Faithfulness is the foundation for any lasting and meaningful relationship. The Lord is faithful to us in a bond of unbreakable love and fidelity. That is what a promise means, keeping one's word, promise, and commitment no matter how tough or difficult it gets. Faithfulness is something that plays a pivotal role in building up a strong relationship with God and something that he expects of us. Mystically God gives the grace and strength to be faithful. He also rewards faithfulness.

The Lord expects us to make good use of the gifts and graces he gives to us. The temptation while the Master is away is to postpone for tomorrow what we know the Master expects us to do today. We must be faithful to God and ready to give him an account of our stewardship.

-Fr. Ronald Melcum Vaughan

मनन-चिंतन - 3

प्रभु आज हमें जो संदेश देते हैं, वह यह है कि हमें उनसे मिलने के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए। वास्तव में हम उनसे हर पल मिलते रहते हैं। वे केवल सर्वज्ञ नहीं है - हर जगह मौजूद है, वह हर समय भी मौजूद है। येसु कहते हैं, "याद रखो- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ" (मत्ति 28:20)। वे लगातार हमारे साथ उपस्थित है। उनकी उपस्थिति निष्क्रिय नहीं है, लेकिन सक्रिय तथा गतिशील है। वे हम से हर समय उनको जवाब देने के लिए तैयार रहने की अपेक्षा करते हैं। य़ेसु चाहते हैं कि हम एक अच्छे सेवक की तरह हमेशा शुध्द अंतकरण तथा विनम्र हृदय से सतर्क और तैयार रहें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


SHORT REFLECTION

The message that the Lord gives us today is that we should be ready at all times to meet him. In fact we meet him at every moment. He is not only omniscient – present everywhere, he is also present at all times. Jesus says, “I am with you always, to the end of the age” (Mt 28:20). He is continually present with us. His presence is not a passive one, but a dynamic one demanding us to be ready to respond to him at all times. Jesus wants us to be ever alert and ready like a good servant with a humble heart and clean conscience.

-Fr. Francis Scaria