वर्ष का इकतीसवाँ सप्ताह, मंगलवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 12, 5-16

"हम एक दूसरे के अंग होते हैं।"

हम अनेक होते हुए भी मसीह में एक ही शरीर और एक दूसरे के अंग होते हैं। हमारे वरदान भी, हम को प्राप्त अनुग्रह के अनुसार, भिन्न-भिन्न होते हैं। हमें भविष्यवाणी का वरदान मिला, तो विश्वास के अनुरूप उसका उपयोग करें; सेवा-कार्य का वरदान मिला, तो सेवा कार्य में लगे रहें। शिक्षक शिक्षा देने में और उपदेशक उपदेश देने में लगे रहें। दान देने वाला उदार, अध्यक्ष कर्मिष्ठ और परोपकारक प्रसन्नचित हो। आप लोगों का प्यार निष्कपट हो। आप बुराई से घृणा तथा भलाई से प्रेम करें। आप सच्चे भाइयों की तरह एक दूसरे को सारे हृदय से प्यार करें। हर एक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ माने। आप लोग अथक परिश्रम तथा आध्यात्मिक उत्साह से प्रभु की सेवा करें। आशा आप को आनन्दित बनाये रखे। आप संकट में धैर्य रखें तथा प्रार्थना में लगे रहें, सन्तों की आवश्यकताओं के लिए चन्दा दिया करें और अतिथियों की सेवा करें। अपने अत्याचारियों के लिए आशीर्वाद माँगें - हाँ, आशीर्वाद, न कि अभिशाप! आनन्द मनाने वालों के साथ आनन्द मनायें, रोने वालों के साथ रोयें। आपस में मेल-मिलाप का भाव बनाये रखें। घमण्डी न बनें, बल्कि दीन-दुःखियों से मिलते-जुलते रहें।

📖भजन : स्तोत्र 130:1-3

अनुवाक्य : हे प्रभु! मेरी आत्मा को शांति में सुरक्षित रखने की कृपा कर।

1. हे प्रभु! मेरे हृदय में अहंकार नहीं है। मैं महत्त्वकांक्षी नहीं हूँ। मैं न तो बड़ी-बड़ी योजनाओं के फेर में पड़ा और न ऐसे कार्यों की कल्पना की, जो मेरी शक्ति के परे हैं।

2. मैं माँ की गोद में सोये हुए दूध छुड़ाये बच्चे की भांति तेरे सामने शांत और मौन रहता हूँ।

3. हे इस्राएल! प्रभु पर भरोसा रखो, अभी और अनन्तकाल तक।

📒जयघोष

अल्लेलूया! प्रभु कहते हैं, "थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सब मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।” अल्लेलूया!

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 14:15-24

"सड़कों पर और बाड़ों के आसपास जा कर लोगों को भीतर आने के लिए बाध्य करो, जिससे मेरा घर भर जाये।”

साथ भोजन करने वालों में से किसी ने येसु से कहा, "धन्य है वह, जो ईश्वर के राज्य में भोजन करेगा! ” येसु ने उत्तर दिया, "किसी मनुष्य ने एक बड़े भोज का आयोजन किया और बहुत-से लोगों को निमंत्रण दिया। भोजन के समय उसने अपने सेवक द्वारा निमंत्रित लोगों को यह कहला भेजा कि आइए, क्योंकि अब सब कुछ तैयार है। लेकिन वे सब के सब बहाना करने लगे। पहले ने कहा, 'मैंने खेत मोल लिया है और मुझे उसे देखने जाना है। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।' दूसरे ने कहा, 'मैंने पाँच जोड़े बैल खरीदे हैं और उन्हें परखने जा रहा हूँ। तुम से मेरा निवेदन है, मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।' और एक ने कहा, 'मैंने विवाह किया है, इसलिए मैं नहीं आ सकता'। सेवक ने लौट कर यह सब स्वामी को बता दिया। तब घर के स्वामी ने क्रुद्ध हो कर अपने सेवक से कहा, 'शीघ्र ही नगर के बाजारों और गलियों में जा कर कंगालों, लूलों, अंधों और लँगड़ों को यहाँ बुला लाओ'। जब सेवक ने कहा, 'स्वामी! आपकी आज्ञा का पालन किया गया है; तब भी जगह है', तो स्वामी ने नौकर से कहा, 'सड़कों पर और बाड़ों के आसपास जा कर लोगों को भीतर आने के लिए बाध्य करो, जिससे मेरा घर भर जाये। क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, उन निमंत्रित लोगों में से कोई भी मेरे भोजन का स्वाद नहीं ले पायेगा।"

प्रभु का सुसमाचार।



📚 मनन-चिंतन

येसु आज के "भोज के दृष्टांत" में ईश्वरीय राज्य के लिए अपने चुने लोगों के लिए बडे भोज का प्रबन्ध करने बाद उनको निमंत्रण देने की बात कहते हैं। येसु इस निमंत्रण के द्वारा दुनिया भर के सब लोगों को मुक्ति का आनन्द प्राप्त करने के लिए बुलाते हुए अपने संदेश को दोहराते हैं। यह कोई सामान्य भोज नहीं है। यह एक ऐसा स्वर्गीय भोज है जो समय के अंत में हो सकता है, लेकिन येसु इसके लिए पहले ही से निमंत्रण देते हैं। इस निमंत्रण को स्वीकारने का सही समय अभी है! लेकिन जैसे हम दृष्टांत में पाते हैं कि जिन्हें मूल रूप से आमंत्रित किया गया था, वे अपने झूठे बहानों से निमंत्रण अस्वीकार कर देते हैं - और वे अपनी ही चिंताओं में डूबे रहते हैं। ईश्वरीय निमंत्रण को ठुकराना, उसके प्रेम को ही तिरस्कत करना है। हम सभी इस बात से अवगत हैं कि जब हम कोई बहाना बनाकर अनुपस्थित होते हैं तो वहां हमारे प्रेमपूर्ण वर्ताव की बात समाप्त हो जाती है। हम अक्सर हमारे निमंत्रण देने वाले व्यक्ति की भावना का कद्र करने से चूक जाते हैं। हम सब अपनी छोटी सी दुनिया में अपनी ही चिंताओं के साथ जीने को इतने आत्मसंतुष्ट होते हैं कि हम सब प्रभु के निमंत्रण को बारम्बार नज़रअंदाज़ करते हैं। आज एक बार अपने से ये पूछना जरूरी है कि मैं ईश्वरीय निमंत्रण को कैसे और कब बहाना बना कर अस्वीकार करता या करती हूं।

फादर सिप्रियन खल्खो (पोर्ट ब्लेयर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In today's "Parable of the Banquet," Jesus speaks of having arranged a great banquet for his chosen people for the Kingdom of God and then inviting them. Through this invitation, Jesus reiterates his message, calling all people around the world to receive the joy of salvation. This is no ordinary feast. It is a heavenly banquet that may take place at the end of time, but Jesus extends the invitation in advance. The right time to accept this invitation is now! But as we see in the parable, those originally invited decline the invitation with false excuses and are preoccupied with their own worries. To reject God's invitation is to reject His love. We all know that when we make excuses and leave, our loving behaviour ends there. We often fail to appreciate the feelings of the person who invited us. We all become so complacent living in our own little worlds with our own concerns that we repeatedly ignore the Lord's invitation. Today it is important to ask myself once, how and when I reject the divine invitation by making excuses.

-Fr. Cyprian Xalxo (Port Blair Diocese)


📚 मनन-चिंतन - 1

येसु केवल एक कहानी नहीं बता रहे थे। येसु इस दृष्टांत में, उन व्यक्तियों का उल्लेख कर रहे थे जिन्होंने उनके साथ अपने और भोजन करने के निमंत्रण को सुन के इंकार कर दिया था। आज येसु हमें अपने घर आमंत्रित करते हैं। येसु हमारे साथ मेज पर बैठना चाहते है। हम उनके न्यौते पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे? येसु के साथ हमारी मित्रता का बंधन गहरा करना एक माध्यम है कि, हम उनके साथ भोज में भाग लें। इसलिए आइए हम इस पवित्र भोज में योग्य रीति से भाग लें और अपने रिश्ते का नवीनीकरण करें।

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


Jesus was not simply telling a story. In this parable, Jesus was referring to the many individuals who refused to listen to his invitation to come and dine with him. Today Jesus is inviting us to his house. Jesus wants to sit at table with us and talk with us. Jesus wants to break bread and share wine with each of us. How will you respond to his invitation? Will we also make excuses for not being able to take time to dine with him? Or will we joyfully accept his invitation and enjoy a long, leisurely meal with Jesus? What a wonderful opportunity we have been gifted with today. The deepening of our friendship with Jesus emanates from our presence at His dinner banquet which is none other than the Holy Mass. Let us therefore go to this one hour sacred celebration and build a deeper relationship with Jesus. However, the question remains: Will I accept Jesus’ invitation? What will be my response?

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

मनन-चिंतन -3

यह बहुत अजीब प्रतीत हो सकता है कि लोगों को भोज के लिए आमंत्रित किया जाता है और वे उसमें भाग न लेने के लिए बहाना बनाते हैं। उन्हें कुछ कठिन कार्य करने के लिए नहीं कहा जाता है, लेकिन भोजन का आनंद लेने के लिए। आइए उनके बहाने पर ध्यान दें। पहला बहाना खेत मोल लेने का है; दूसरा बैलों के पाँच जुए खरीदने का, और तीसरा हाल ही में विवाहित होने का। बहाने संपत्ति, पेशे और संबंध के हैं। गरीब लोग बहुत आसानी से मेजबान के निमंत्रण का जवाब देते हैं। यह स्पष्ट है कि यह दृष्टान्त ईश्वर के साथ हमारे संबंधों के बारे में है। यह सच है कि वास्तविक जीवन में जिन लोगों की जरूरतों की पूर्त्ति हो चुकी है, उनकी तुलना में जरूरतमंद लोग बहुत आसानी से ईश्वर के अनुकूल होते हैं। जिन लोगों की जरूरतें पहले से पूरी हो चुकी हैं, उनके पास जो कुछ हैं उनमें ही वे लीन रहते हैं। वे अपने पास जो कुछ हैं उन्हें अपने अधीन रखने की कोशिश करते हैं और धीरे-धीरे वे उन वस्तुओं या व्यक्तियों के अधीन बनने लगते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि येसु ने हमें बताया कि अमीर लोगों के लिए ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना लगभग असंभव है। हम ईश्वर से कई आशिषों के लिए प्रार्थना करते हैं; लेकिन बहुत बार आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद हम भगवान को ही भूल जाते हैं, जो आशीर्वाद का स्रोत और दाता हैं। यह एक आध्यात्मिक त्रासदी है। हमें चाहिए कि सभी उपहारों से अधिक उपहार देने वाले को प्यार करें। संत योहन कहते हैं, “तुम न तो संसार को प्यार करो और न संसार की वस्तुओं को। जो संसार को प्यार करता है, उस में पिता का प्रेम नहीं। संसार में जो शरीर की वासना, आंखों का लोभ और धन-सम्पत्ति का घमण्ड है वह सब पिता से नहीं बल्कि संसार से आता है। संसार और उसकी वासना समाप्त हो रही है; किन्तु जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वह युग-युगों तक बना रहता है।” (1योहन 2:15-17)

-फादर फ्रांसिस स्करिया


REFLECTION

It can appear to be very strange that the people are invited to a dinner and they make excuses for not attending it. They are not asked to do something difficult, but to enjoy a meal. Let us take note of the excuses they have. The first excuse is that of the purchase of a piece of land; the second is of the purchase of five yoke of oxen and the third is of being recently married. The excuses are of property, occupation and relationship. The poor very easily respond to the invitation of the host. It is evident that this parable is about our relationship with God. It is true that in real life the people in need respond to God much more easily than people whose needs are met. People whose needs are already met have a tendency to occupy themselves with what they have. They begin to possess them and gradually they are possessed by them. No wonder Jesus tells us that it is almost impossible for rich people to enter the Kingdom of God. We pray to God for many blessings; but very often after receiving the blessings we forget God, the source and giver of blessings. This is a tragedy. It is important to love the giver of gifts more than all the gifts. St. John says, “Do not love the world or the things in the world. The love of the Father is not in those who love the world; for all that is in the world — the desire of the flesh, the desire of the eyes, the pride in riches — comes not from the Father but from the world. And the world and its desire are passing away, but those who do the will of God live forever.” (1Jn 2:15-17)

-Fr. Francis Scaria