भातृ-प्रेम का ऋण छोड़ कर और किसी बात में किसी का ऋणी न बनें। जो दूसरों को प्यार करता है, उसने संहिता के सभी नियमों का पालन किया। 'व्यभिचार मत करो, हत्या मत करो, चोरी मत करो, लालच मत करो, – इनका तथा अन्य सभी दूसरी आज्ञाओं का सारांश यह है अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। प्रेम पड़ोसी के साथ अन्याय नहीं करता। इसलिए जो प्यार करता है, यह संहिता के सभी नियमों का पालन करता है।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : धन्य है वह मनुष्य, जो तरस खा कर उधार देता है!
1. धन्य है वह, जो प्रभु पर श्रद्धा रखता और उसकी आज्ञाओं को हृदय से चाहता है। उसका वंश पृथ्वी पर फलेगा-फूलेगा। प्रभु की आशिष धर्मियों की सन्तति पर बनी रहती है !
2. वह धर्मियों के लिए अंधकार का प्रकाश है। वह दयालु, कोमलहृदय और न्यायप्रिय है। वह तरस खा कर उधार देता और ईमानदारी से अपना कारबार करता है।
3. वह उदारतापूर्वक दरिद्रों को दान देता है। उसकी न्यायप्रियता सदा बनी रहती है उसकी शक्ति तथा ख्याति बढ़ती जायेगी ।
अल्लेलूया! यदि मसीह के नाम के कारण आप लोगों का अपमान किया जाये, तो अपने को धन्य समझिए, क्योंकि ईश्वर का महिमामय आत्मा आप पर छाया रहता है। अल्लेलूया!
येसु के साथ-साथ एक विशाल जनसमूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा, "यदि कोई मेरे पास आये और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई-बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर न रखे, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता। जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।” "तुम में ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर खर्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी मेरे पास है? कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कह कर उसकी हँसी उड़ाने लगें, 'इस मनुष्य ने निर्माण कार्य प्रारंभ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका।" "अथवा कौन राजा ऐसा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करें कि जो बीस हजार की फौज के साथ मुझ पर चढ़ा आ रहा है, क्या मैं दस हजार की फौज से उसका सामना कर सकता हूँ? यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है, वह राजदूतों को भेज कर संधि के लिए निवेदन करेगा।" "इसी तरह तुम में से जो अपना सब कुछ नहीं त्याग देता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।”
प्रभु का सुसमाचार।
येयेसु हमें जो उनके अनुसरण करने वाले हैं अपने पीछे चलने और साथ रहने के लिए बुलाते हैं ताकि हम उन्हें सचमुच जान जाएं। किसी दौड या किसी यात्रा की शुरुआत हमें रोचक और आकर्षक लग सकता है लेकिन कुछ दूर दौडने या चलने के बाद हम यह जानने लगते हैं कि अब इससे आगे हम और नहीं दौड पायेंगे या नहीं चल पायेंगे। येसु के पीछे जाने में और उसके अनुसरण करते रहने में कई बार हमारे जीवन में चुनौतियां खडी होतीं हैं। कई बार हमारा उत्साह पारिवारिक दबावों और सामाजिक विद्वेश के कारण फ़ीका पडने लगता है। येसु अपने शिष्यों को, जो उनका अनुसरण करते हैं - यह बात साफ़ कहते हैं कि उनके पीछे जाने के लिए उन्हें एक कीमत तो चुकानी ही पडेगी। शिष्य बनकर उनके पीछे चलना येसु की ये भारी माँगें हैं जिन्हें हम हल्के में नहीं ले सकते। येसु को प्रेम करने वाले इस बात का ध्यान रखें कि येसु से अधिक वे किसी को प्यार न करें। न अपने परिवार जनों को और न ही अपने स्वयं को। येसु सिखाते हैं कि शिष्यों को उन्हीं के समान कष्ट सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। असल मायने में रोज दिन का कर्त्तव्य और दैनिक जिम्मेदारी ईमानदारी से ख्रीस्तीय रूप में पूरा करना ही, "अपना क्रूस उठाकर येसु के पीछे चलना है।" किसी भी उत्पीड़न के समय में आने वाले जोखिम से नहीं घबराना है। सच्चे दिल से येसु का अनुकरण करने के लिए जब हम दृढ़ संकल्प करते हैं तो हमें अपनी सम्पत्ति खोने का भय नहीं रहता, हम उसके विपरीत, स्वयं ख्रीस्त के प्रेम के खातिर खर्च करने और अपने सामर्थ्य अनुसार कुछ त्याग करने को तैयार हो जाते हैं। आज हम अपने लिए प्रार्थना करें कि ख्रीस्तीय रूप में हमारा प्रेम सबसे पहले केवल येसु के लिए समर्पित हो।
✍ फादर सिप्रियन खल्खो (पोर्ट ब्लेयर धर्मप्रान्त)Jesus calls us who follow him, to walk behind him and be with him so that we can truly know him. The beginning of a race or a journey may seem exciting and appealing, but after running or walking a short distance, we begin to realize that we cannot run or walk any further. In our lives, we often face challenges in following Jesus and continuing to follow Him. Sometimes our enthusiasm is dampened by family pressures and social conflict. Jesus clearly tells his disciples, those who follow him, will have to pay a price for following him. These are heavy demands of Jesus as disciples, and we cannot take them lightly. Those who love Jesus should be careful not to love anyone more than Jesus, not their family members, not even themselves. Jesus teaches that disciples must be willing to suffer like Him. In essence, fulfilling daily duties and responsibilities faithfully as Christians is "taking up one's cross and following Jesus." One must not be afraid of the risks that come with persecution. When we are truly determined to follow Jesus, we are not afraid of losing our possessions; on the contrary, we are willing to spend and sacrifice whatever we can for the love of Christ. Today, let us pray for ourselves that as Christians, our love may be dedicated first and foremost to Jesus alone.
✍ -Fr. Cyprian Xalxo (Port Blair Diocese)
येसु अपने श्रोताओं को बता रहे हैं कि, क्या आवश्यक है। सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण येसु का हमारे जीवन में प्रथम स्थान। हालांकि, येसु भी यही चाहते हैं कि, हम अपने परिवार, अपने दोस्तों और विश्व समुदाय को गहराई से प्यार करें और उनकी देखभाल करें। आज हम उस हर एक व्यक्ति से प्यार करने का प्रयास कर सकते हैं जिसका हम सामना करते हैं- किराने की दुकान पर मिला व्यक्ति, एक सहकर्मी जो संघर्ष कर रहा है, या एक व्यक्ति जिसे हम बिल्कुल पसंद नहीं करते हैं। येसु को उम्मीद है कि, हम अपनी दुनिया के हर व्यक्ति से सच्चा प्यार करेंगे। यह असंभव लग सकता है परन्तु नामुमकिन नहीं, क्योंकि इसको साकार करने बाबत् प्रभु येसु हमें अपने अनुग्रह और प्रेम से भर देते हैं। क्या हम अपने स्वयं के सुख-सुविधाओं को त्यागने और येसु के पक्ष में अपनी कुछ सांसारिक प्राथमिकताओं को पीछे छोड़ने के लिए तैयार है।
✍फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)Jesus is telling his listeners what is essential. First and foremost, Jesus must be first in our lives. However, Jesus also wants us to love and care deeply for our family, our friends and for the world community. Today may we strive to love each person we encounter: the person we pass in the grocery store, a co-worker who is struggling, or an individual we simply do not like. The quality of love that Jesus hopes we will have for one another surpasses the simple notion of liking another person. Rather, Jesus hopes that we truly will love every person in our world. This may sound impossible. However, with Jesus’ grace and love, we have the ability to do this. Are we ready to sacrifice our own comfort zone and leave behind some of our worldly priorities in favor of Jesus?
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
मार्टिन लूथर कहते हैं कि धर्म, जो कुछ नही देता, कुछ भी बलिदान नहीं करता है और कुछ भी नहीं सहता इस प्रकार के धर्म का कोई मूल्य नहीं है । आज का सुसमाचार हमको दो महत्वपूर्ण दिशा-निर्देशों द्वारा येसु का अनुयायी बनने के लिए तैयार करतंे है ।
प्राथमिकता तय करनाः- किसी भी नए उदयम् के लिए पहला कदम होता है प्राथमिकता तय करना, इसी प्राथमिकता के आधार पर ही हम लक्ष्य प्राप्त कर सकते है । प्राथमिकता निर्धारण करते ही हमें जीवन के कई सुखो को त्यागना पडता हैं । ये सुख सुविधा कोई चीज, कोई व्यक्ति या कोई जगह हो सकती है जिससे हम जूडे हैं । आज येसु अपने शिष्यों को रिस्तेे और संबंधों से एक कदम आगे के लिए आमंत्रित करते है । जो हम अपने लिए सबसे महत्वपूर्ण मानते है । प्रभु के लिए किये कुर्बान की सुन्दरता को हर एक श्क्ष्यि अपने जीवन में तब भी महसूस करते है जब प्रभु से उनका सबंध मजबूत हो और दुनिया के हर एक व्यक्ति उनके लिए मॉं-बाप और भाई-बहन बन जाते है।
अनुमान लगानाः- जब प्राथमिकताएॅ निर्धारित हो जाती हैं तब लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लागत का अनुमान लगाना आवश्यक होता है । जब हम लक्ष्य की ओर बढते हैं तो निर्माण और खरीद से पहले यह सुनिश्चित कर लेते है कि हमारे पास कार्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन है या नहीं । इस प्रक्रिया में हमे अनावश्यक तनाव, निराशा, और भारी नुकसान हो सकता है। मत्ती 25ः 1-25 में येसु दस कुवारियों के दृष्टान्त के माध्यम से समझाते है कि जब उन कुवारियों में तैयारी की समुचित व्यवस्था का अभाव था, तो उन्हे दुल्हे का देखने का मौका नहीं दिया गया और विवाह समारोह से बाहर निकाल दिया ।
जैसा कि हमने प्रभु के अनुसरण का निर्णय लिया हैं, तो आइए आज हम उनके साथ अपने संबंध को मजबूत करें । और सभी को अपना भाई-बहन समझो। प्रभू हमारे सभी साधनो व ऊर्जाओं को एकत्र कर परमेश्वर के राज्य के प्रसार के लिए हमें तैयार करें ।
✍ -फादर मेलविन चुल्लिकल
A religion that gives nothing, costs nothing, and suffers nothing, is worth nothing” Says Martin Luther. Today’s gospel places two important guidelines to prepare oneself to be the follower of Jesus.
1. Setting Priorities: Setting priority is the first step of any new venture we enter into. It is important for any firm or a group to achieve the target. Setting priorities presupposes foregoing many other comforts of life. These comforts may be a thing, person or a place we are attached to or comfortable with. Jesus today invites his disciples to move beyond blood relationships which we consider as most important in our life. The beauty of the renunciation is experienced only when the new relationship is built up with Jesus, where everyone in the world becomes a brother, sister, mother or father to the disciple.
2. Preparing Estimate: Once the priorities are set an estimate needs to be prepared to achieve the target. We are used to estimates and quotations before constructions and purchases. It is prepared only to make sure that we have the sufficient resources to complete the task. Failure in this procedure may invite unnecessary tension, despair and even a heavy loss. In Mat. 25: 1-13, Jesus himself gives an example of required preparation through the parable of Foolish Virgins. The failure of the foolish virgins in calculating the required oil puts them permanently out of the wedding party.
As we have decided to follow Jesus let us today strengthen our relationship with Jesus accepting everyone around us as brothers and sisters. May He use all our energy and recourses for spreading of Kingdom of God wherever we are.
✍ -Fr. Melvin Chullickal
प्रभु येसु आज के सुसमाचार में शिष्यत्व के बारे में कम से कम चार बिंदुओं पर जोर देते हैं। सबसे पहले, वह सभी पारिवारिक संबंधों से अलगाव की मांग करता है क्योंकि यह रक्त-संबंध से परे जाने और ईश्वर के परिवार का हिस्सा बनने का आह्वान है जहां हर कोई भाई या बहन बन जाता है। दूसरा, प्रभु येसु चाहते हैं कि हर कोई यह समझे कि शिष्यत्व सुख और आनंद का जीवन जीने का आह्वान नहीं है, बल्कि उसमें दुख या क्रूस शामिल है। तीसरा, वे चाहते हैं कि जो कोई भी शिष्य बनना चाहता है, वह यह सुनिश्चित करे कि वह अपने मार्ग पर आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक धीरज रखता है या नहीं। चौथा, प्रभु चाहते हैं कि हमें पता चले कि शिष्यत्व का मतलब बुराई के खिलाफ निरंतर युद्ध करना है और इसलिए वे हमें चेतावनी देते हैं कि शैतान का विरोध करने हेतु खुद को सुसज्जित करने के लिए विवेकपूर्ण बनें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Jesus emphasises at least four points about discipleship in today’s Gospel. First, he demands detachment from all family ties because this is a call to go beyond blood-relationship and become part of the family of God where everyone becomes a brother or sister. Second, Jesus wants everyone to understand that discipleship is not a call to live a life of comfort and pleasure but one that involves suffering or cross. Third, he wants anyone who desires to become a disciple to plan properly to ensure that he or she has the endurance required for facing the challenges that may come on the way. Fourth, Jesus wants us to know that discipleship means to be in constant war against the evil one and so he warns us to be prudent to equip ourselves for resist the devil.
✍ -Fr. Francis Scaria