येसु मसीह में अपने सहयोगियों प्रिस्का और अक्विला को नमस्कार, जिन्होंने मेरे प्राण बचाने के लिए अपना सिर दाँव पर रख दिया। मैं ही नहीं, बल्कि गैरयहूदियों की सब कलीसियाएँ उनका आभार मानती हैं। उनके घर में एकत्र होने वाली कलीसिया को नमस्कार। एशिया में मसीह के प्रथम शिष्य अपने प्रिय एपैनेतुस को नमस्कार और मरियम को भी, जिसने आप लोगों के लिए इतना कठिन परिश्रम किया। अपने सम्बन्धियों और बन्दीगृह में अपने साथियों अंद्रोनिकुस और युनियुस को नमस्कार। ये धर्मप्रचारकों में प्रतिष्ठित हैं और मुझ से पहले मसीह के शिष्य बने थे। प्रभु में अपने प्रिय अमाप्लिआतुस को नमस्कार। मसीह में अपने सहयोगी उरबानुस को और अपने प्रिय स्ताकिस को नमस्कार। शांति के चुम्बन से एक दूसरे का अभिवादन करें। मसीह की सब कलीसियाएँ आप लोगों को नमस्कार कहती हैं। मैं, तेरतियुस, जिसने यह पत्र लिपिबद्ध किया है, आप लोगों को नमस्कार करता हूँ। मेरा और समस्त कलीसिया का आतिथ्य-सत्कार करने वाला गायुस, इस नगर का कोषाध्यक्ष एरास्तुस और भाई क्वार्तुस आप लोगों को नमस्कार कहते हैं। हमारे प्रभु येसु मसीह की कृपा आप सभों के साथ हो। आमेन। सभी राष्ट्र विश्वास की अधीनता स्वीकार करें - उसी उद्देश्य से शाश्वत ईश्वर ने चाहा कि शताब्दियों से गुप्त रखा हुआ रहस्य प्रकट किया जाये और उसने आदेश दिया कि वह रहस्य नबियों के लेखों द्वारा सबों को बता दिया जाये। उसके अनुसार मैं येसु मसीह का सुसमाचार सुनाता हूँ। ईश्वर ही आप लोगों को उस सुसमाचार में सुदृढ़ बना सकता है। उसी एकमात्र सर्वज्ञ ईश्वर की, अनन्तकाल तक, येसु मसीह द्वारा महिमा हो। आमेन।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : हे प्रभु! मैं सदा-सर्वदा तेरा नाम धन्य कहूँगा।
1. मैं दिन-प्रतिदिन तुझे धन्य कहूँगा, मैं सदा-सर्वदा तेरे नाम की स्तुति करूँगा। प्रभु महान् और अत्यन्त प्रशंसनीय है। उसकी महिमा की सीमा नहीं।
2. सभी पीढ़ियाँ तेरी सृष्टि की स्तुति करेंगी और तेरे महान् कार्यों का बखान करती रहेंगी, तेरे ऐश्वर्य तथा तेरी महिमा का वर्णन करेंगी और तेरे चमत्कारों के गीत गाती रहेंगी।
3. हे प्रभु! तेरी सारी सृष्टि तेरा धन्यवाद करे; तेरे भक्त तुझे धन्य कहें। वे तेरे राज्य की महिमा गायें और तेरे सामर्थ्य का बखान करें।
अल्लेलूया! येसु मसीह धनी थे किन्तु आप लोगों के कारण निर्धन बने, जिससे आप लोग उनकी निर्धनता द्वारा धनी बनें। अल्लेलूया!
येसु ने अपने शिष्यों से यह कहा, "फूठे धन से अपने लिए मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे लोग परलोक में तुम्हारा स्वागत करें। "जो छोटी से छोटी बातों में ईमानदार है, वह बड़ी बातों में भी ईमानदार है और जो छोटी से छोटी बातों में बेईमान है, वह बड़ी बातों में भी बेईमान है। यदि तुम झूठे धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा! और यदि तुम पराये धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें तुम्हारा अपना कौन देगा! " "कोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता; क्योंकि वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन – दोनों की सेवा नहीं कर सकते।” फरीसी, जो लोभी थे, ये बातें सुन कर येसु की हँसी उड़ाते थे। इस पर येसु ने उन से कहा, "तुम लोग मनुष्यों के सामने तो धर्मी होने का ढोंग रचते हो, परन्तु ईश्वर तुम्हारा हृदय जानता है। जो बात मनुष्यों की दृष्टि में महत्त्व रखती है, वह ईश्वर की दृष्टि में घृणित है।"
प्रभु का सुसमाचार।
येसु कहते हैं "जो छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार है वह बडी बातों में भी ईमानदार है और जो छोटी-से-छोटी बातों में बेईमान है, वह बड़ी बातो में भी बेईमान है।" यदि तुम झूठे धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा?और यदि तुम पराये धन में ईमानदार नहीं ठहरे, तो तुम्हें तुम्हारा अपना धन कौन देगा? "कोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता; क्योंकि वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों की सेवा नहीं कर सकते।" येसु अपने शिष्यों को हर छोटी बात ईमानदार रहने की बात कहते हैं; छोटी बात ही तो बडी बनती है। हम छोटी हो या बडी बात- ईमानदार हैं तो ईमानदार हैं। येसु कहते हैं कि हमें झूठे धन और पराये धन के प्रयोग में ही ईमानदार रहने की जरुरत है- तब ही हम सच्चा धन और अपना धन पाने के हकदार होंगे। कहीं भी दो स्वामियों की सेवा करना सच में एक मुश्किल बात है और उनको एक जैसे प्रेम करना सम्भव नहीं है। येसु यह बोलने में नहीं हिचकते कि "जो बात मनुष्यों की दृष्टि में महत्त्व रखती है, वह ईश्वर की दृष्टि में घृणित है।" आज हम विचार करें कि कहां और किन बातों में हमारे लिए बेईमान बन जाने का डर रहता है। यदि हम ईमानदार हैं तो कितने पारदर्शी हैं? हम अपने से पूछें कि क्या मैं ख्रीस्तीय भाई या बहन के रूप में सब समय विश्वसनीय और भरोसेमंद हूं या नहीं? प्रार्थना करें कि कई दुनियाई जोखिमों के बावजूद हम प्रभु के प्रिय सेवक या सेविका के रूप में अपने को साबित कर सकें।
✍ फादर सिप्रियन खल्खो (पोर्ट ब्लेयर धर्मप्रान्त)Jesus says, "He who is honest in small matters is also honest in big matters, and he who is dishonest in small matters is also dishonest in big matters." If you are not honest with false wealth, who will entrust you with real wealth? And if you are not honest with someone else's wealth, who will give you your own? "No servant can serve two masters; for he will either hate the one and love the other, or he will honour the one and despise the other. You cannot serve both God and money." Jesus tells his disciples to be honest in every little thing; it is the little things that become big. Whether it be small or big, if we are honest, we are honest! Jesus says that we need to be honest in dealing with false wealth and other people's money – only then will we be worthy of true wealth and our own. It is truly difficult to serve two masters anywhere, and it is impossible to love them equally. Jesus does not hesitate to say, "What is important in the eyes of men is detestable in the sight of God." Today, let us consider where and in what ways we risk being dishonest. If we are honest, how transparent are we? Let us ask ourselves, am I trustworthy and reliable as a Christian brother or sister, at all times? Let's pray that despite many worldly risks, we may prove ourselves as beloved servants of the Lord.
✍ -Fr. Cyprian Xalxo (Port Blair Diocese)
बेईमानी की संपत्ति जैसे पैसा, संपत्ति, धन, दौलत, शक्ति और इस तरह की अन्य चीजें अस्थायी और नकली हैं। इस बेईमान संपित्त को रखना और उसे संभालना दोनों ही खतरनाक है। सच्चा धन स्वयं प्रभु येसु हैं। आइए हम प्रयास करें, उसकी तलाश करें, उसके बारे में अधिक जानें, उसके साथ व्यक्तिगत संबंध रखें और उसके बारे में अपने ज्ञान को दूसरों के साथ साझा करें। हमारे पास एक ही समय में बेईमान और सच्चा धन नहीं हो सकता। हमें वह चुनना होगा जो हम चाहते हैं और जिसे हम प्राथमिकता देते हैं। हमें अपने जीवन में गंभीरता से इन दोनों धनों में चयन करना है कि, मैं किसे चुनूँ?
✍फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)The dishonest wealth such as money, possessions, power and the like are temporary, fake and passing. And if we are not careful on handling this dishonest wealth it may possess and eventually destroy us or we may destroy others just to possess it. The true wealth is Jesus himself! Let us strive: To seek Him, to know more about Him, to have a personal relationship with Him and to share our knowledge about Him. We cannot have dishonest and true wealth at the same time we have to choose which one do we want. If you would choose dishonest wealth it will certainly satisfy your earthly cravings which by the way is bounded by time. So you enjoy it until such time that you leave it or it leaves you. And then you end up with nothing but misery. If we have the true and everlasting wealth that is Jesus; we will not anymore be looking for the temporary/dishonest wealth.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
धन सम्पदा एक बुरी शक्ति है जो एक इंसान को ईश्वर से परे या अलग करती है। यह धन का प्यार, संपत्ति का ताकत, अनियंत्रित जुनून का बल, हानिकारक लत आदि हो सकता है। यहॉं प्रश्न ईश्वर और धन के बीच चुनाव करना है। हमें धन का तिरस्कार क्यों करना चाहिए?
1 धन स्वामि को गुलाम बनाता हैः इब्रनियों 13ः5 ‘‘आप लोग धन का लालच न करें’’। लेखाविद्या में हम पढ़ते है कि ‘‘ धन एक अच्छा नौकर है लेकिन बुरा मालिक’’। इसका मतलब है कि धन व्यक्ति को अपने नियंत्रण में ले लेता है, वह उस व्यक्ति का स्वामी बन जाता है जो उसका ऋणी होता है 1तिमथी 6ः10 ‘‘क्योंकि धन का लालच सभी बुराईयों की जड़ है। इसी लालच में पड़ कर कई लोग विश्वास के मार्ग से भटक गये और उन्होंने बहुत-सी यन्त्रणाएँ झेलीं।’’ धन लोगों को कई गंदी प्रथाओं, गलत फैसलों, भ्रष्टाचार, अपराध आदि की ओर ले जा सकता है। वे पृथ्वी से बंध जाते हैं। मत्ती 6ः21 ‘‘क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वही तुम्हारा हृदय भी होगा।’’
2 स्वार्थ और लालच की ओर ले जाता हैः उपदेशक 5ः9 ‘‘जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेशा और पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से सन्तुष्ट नहीं हेाता है।’’ यह अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए लालच की ओर ले जाता है। इस प्रकार यह लोगों के संबंधों को प्रभावित करता है। व्यक्ति केवल स्वयं पर ध्यान केंद्रित करता है। उसके लिए दूसरों का कोई मूल्य नहीं है जब तक कि उनके संबंध मौद्रिक लाभ प्रदान न करें। लूकस 16ः19-31, धनी व्यक्ति और लाजरुस का दृष्टांत हमें उस स्वार्थी मनोवृत्ति की याद दिलाता है जो धन के द्वारा वशीभूत हो जाता है।
3 आइए हम धन के दास न बनें, स्वार्थी और लालची ना बनेें बल्कि केवल ईश्वर की और केवल उनकी ही सेवा करने का संकल्प लें।
✍ -फादर मेलविन चुल्लिकल
Mammon is an evil power which deviates one from God. It can be love of money, power of possessions, force of unruly passions, disruptive addictions etc.. The question here in the gospel is the choice one has to make between God and Mammon.
Why should we despise Mammon?
1. Mammon makes the owner slave: Heb 13:5 “Keep your lives free from love of money” In Accountancy we study that “money is a good servant but bad master”. He has to be at the beck and call of the master. It means that money takes control of the person, it becomes the master of the person who owes it. 1 Tim 6:10 “For the love of money is a root of all kinds of evil and in their eagerness to be rich some have wandered away from the faith and pierced themselves with many pains” Money can lead people to many filthy practices, wrong decisions, corruption, crimes etc.. They get tied to the earth. Mt 6:22 “ For where your treasure is, there your heart will be also”
2. Leads to selfishness and greediness: Eccl. 5:10 “The lover of money will not be satisfied with money; nor the lover of wealth with gain”. It leads to greediness to gain more and more. Thus it affects the relationship of the people. The person concentrates only on himself or herself. For him or her others are of no value unless their relationship provides the monitory gain. Lk. 16:19-31, the parable of rich man and Lazarus reminds us of the selfish attitude that can creep into ones heart if the money takes hold of the person.
Let us not become the slave of Mammon with selfishness and greediness but vow to serve God and only Him alone.
✍ -Fr. Melvin Chullickal