हे पृथ्वी के शासको! न्याय से प्रेम रखो। प्रभु के विषय में ऊँचे विचार रखो और निष्कपट हृदय से उसे खोजते रहो, क्योंकि जो उसकी परीक्षा नहीं लेते, वे उसे प्राप्त करते हैं। प्रभु अपने को उन लोगों पर प्रकट करता है, जो उस पर अविश्वास नहीं करते। कुटिल विचार मनुष्य को ईश्वर से दूर करते हैं। सर्वशक्तिमत्ता उन मूर्खी को परास्त कर देती है, जो उसकी परीक्षा लेते हैं। प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेश नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है। क्योंकि शिक्षा प्रदान करने वाला पवित्र आत्मा छल-कपट से घृणा करता है, वह मूर्खतापूर्ण विचारों से अलग रहता है और अन्याय से दूर भागता है। प्रज्ञा मनुष्य का हित तो चाहती है, किन्तु वह ईशनिन्दक को उसके शब्दों का दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ेगी, क्योंकि ईश्वर मनुष्य के अन्तरतम का साक्षी है; वह उसके हृदय की थाह लेता और उसके मुख के सभी शब्द सुनता है। प्रभु का आत्मा संसार में व्याप्त है। वह सब कुछ को एकता में बाँधे रखता है। और मनुष्य जो कुछ कहते हैं, वह सब जानता है।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : हे प्रभु! मुझे अनन्त जीवन के मार्ग पर ले चलने की कृपा कर।
1. हे प्रभु! तू मेरी थाह लेता और मुझे जानता है। मैं चाहे लेदूँ या बैठ जाऊँ – तू जानता है। तू दूर रहते हुए भी मेरे विचार भाँप लेता है। मैं चाहे चलूँ या लेट जाऊँ तू देखता है। मैं जो भी करता हूँ - तू सब जानता है।
2. मेरे मुख से बात निकल ही नहीं पायी कि तू उसे पूरी तरह जान गया। तू मुझे आगे से और पीछे से संभालता है, तेरा हाथ मेरी रक्षा करता रहता है। तेरी यह सूक्ष्म दृष्टि मेरी समझ के परे है। यह इतनी गहरी है कि मैं उसकी थाह नहीं ले सकता।
3. मैं कहाँ जाकर तुझ से अपने को छिपा लूँ? मैं कहाँ भाग कर तेरी आँखों से ओझल हो जाऊँ? यदि मैं आकाश तक पहुँच जाऊँ, तो तू वहाँ है; यदि मैं अधोलोक में लेहूँ, तो तू वहाँ भी है।
4. यदि मैं उषा के पंखों पर चढ़ कर समुद्र के उस पार बस जाऊँ, तो वहाँ भी तेरा हाथ मुझे ले चलता, वहाँ भी तेरा दाहिना हाथ मुझे सँभालता।
अल्लेलूया! आप लोग संसार में उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह चमकेंगे, क्योंकि जीवन का वचन आप लोगों को प्राप्त हो गया है। अल्लेलूया!
येसु ने अपने शिष्यों से यह कहा, "प्रलोभन अनिवार्य है, किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो प्रलोभन का कारण बनता है! उन नन्हों में से एक के लिए भी पाप का कारण बनने की अपेक्षा उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता। इसलिए सावधान रहो।" "यदि तुम्हारा भाई कोई अपराध करता है, तो उसे डाँटो और यदि वह पश्चात्ताप करता है, तो उसे क्षमा कर दो। यदि वह दिन में सात बार तुम्हारे विरुद्ध अपराध करता और सात बार आ कर कहता है कि मुझे खेद है, तो तुम उसे क्षमा करते जाओ।" प्रेरितों ने प्रभु से कहा, "हमारा विश्वास बढ़ा दीजिए।" प्रभु ने उत्तर दिया, "यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, उखड़ कर समुद्र में लग जा, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।”
प्रभु का सुसमाचार।
आज के सुसमाचार का अंश पढने से ताज्जुब करने वाली एक बात हमारे सामने आती है कि येसु जो हमें एक दूसरे को बडा प्रेम दिखाने और क्षमा की ही बात सिखाते हैं - भला ये कैसे बोल दिए कि प्रलोभन का कारण बनने वालों को बहुत कड़ी सजा दिया जाए; उनके गले में चक्की का पाट (यानि एक बड़ा और भारी पत्थर) बांधकर समुद्र में फेंक दिया जाए। प्रभु येसु ऐसा उदाहरण इसलिए देते हैं कि हम जान लें - बुरा उदाहरण देकर किसी को प्रलोभन के लिए मजबूर करना गम्भीर पाप है। इसकी गम्भीरता और बढ जाती है जब कोई बुरा नमूना छोटे बालक को दे देता/ देती है। अपने अपराधियों को माफी देने के मामले में अत्यन्त सहनशील और अपने आप को दया से भरने के लिए बुलाते हैं । काथलिक धर्मशिक्षा में हम पढते हैं: सात बार किसी को माफ़ करना कोई सख्त सीमा नहीं है, कि हम यह मान लें, एक दिन में आठवां अपराध अक्षम्य है; बल्कि, यह उस दया को दर्शाता है जिसकी कोई सीमा नहीं है। अपने विश्वास बढ़ाने के सम्बन्ध में काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा हम पाते है: विश्वास ईश्वर की ओर से एक निःशुल्क उपहार है। हमें इसे ईश्वर के वचन पर मनन करके, उसे आचरण में लाकर और संस्कारों को ग्रहण करके पोषित करना चाहिए। जब हमारी प्रार्थनाएँ और कार्य परोपकार की भावना या सच्चे प्रेम से प्रेरित होते हैं तो हमारा विश्वास बढ़ता है। इस प्रकार हमारा विश्वास तब जीवित बना रहता है जब हम ईश्वर और पड़ोसी के प्रति प्रेम से प्रेरित होकर उनकी सेवा करते हैं।
✍ फादर सिप्रियन खल्खो (पोर्ट ब्लेयर धर्मप्रान्त)Reading today's Gospel passage, we find a surprising thing: how could Jesus, who teaches us to show great love and forgiveness to one another, say that those who cause temptation should be punished severely; they should be thrown into the sea by tying a millstone (a large and heavy stone) around their necks. Lord Jesus gives such an example so that we know that giving a bad example and forcing someone to succumb to temptation is a serious sin. Its gravity increases further when a bad example is given to a small child. We are called to be extremely patient in forgiving our offenders and to be filled with mercy ourselves. In the Catholic Catechism we read: Forgiving someone seven times is not a strict limit, so that we would consider the eighth offense in a day unforgivable; rather, it demonstrates a mercy that knows no bounds. Regarding the cultivation of our faith, the Catechism of the Catholic Church states: Faith is a free gift from God. We must nurture it by meditating on God's Word, putting it into practice, and receiving the sacraments. Our faith grows when our prayers and actions are motivated by a spirit of charity or genuine love. Thus, our faith is kept alive when we serve God and neighbour out of love for them.
✍ -Fr. Cyprian Xalxo (Port Blair Diocese)
आज के सुसमाचार की शुरूआत येसु द्वारा अपने शिष्यों को फिर से सिखाने से होती है। वह अपने शिष्यों से कहते हैं। निश्चित रूप से पाप होगा। हालांकि, वह चेलों को चेतावनी देते है कि, ऐसा कुछ भी न करें जिससे किसी अन्य व्यक्ति की बदनामी हो। येसु के लिए यह सबसे बुरे कर्मो में से एक है जो हम कर सकते है। येसु अपने चेलों को सचेत करते हैं। येसु हमें स्मरण कराते हैं कि, हम अपने शब्दों अपने दृष्टिकोणों और अपने कार्यों के प्रति सचेत और जागरूक रहें। आज हमारे पास सकारात्मक और नकारात्मक होने की क्षमता है। हमारी पसंद क्या होगी? थोड़ा सा विश्वास बहुत कुछ हासिल करा सकता है। हम प्रभु में बढ़ते हुए विश्वास से एक परिवर्तित जीवन जीने का निरंतर प्रयास करते रहे।
✍फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)Today’s Gospel begins with Jesus again teaching his disciples. He tells his disciples that it is inevitable that sin will occur. However, he warns the disciples not to do anything that would cause scandal to another person or tempt an individual to sin. To Jesus, this is one of the worst things we can do. Jesus tells his disciples to be on their guard. They need to be mindful of what they do as well as what they say. Jesus is reminding us to be conscious and aware of our words, our attitudes, and our actions. Today we have the potential to be a positive influence or a negative influence! What will be our choice? A little bit of faith can accomplish a great deal. We may be looking at our lives and thinking that we cannot be that person. We cannot be the gentle corrector and faithful forgiver that Christ is commanding. A little bit of faith can accomplish a great deal. A growing faith in the Lord will lead to surprising results in a transformed life.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
आज का सुसमाचार कमजोर विश्वास वाले लोगों के प्रति दो दृष्टिकोणों की बात करता है।
1. प्रभाव द्वारा गुमराह करना।
2. अनुकंपा भरा रवैया।
प्रभाव द्वारा गुमराह करनाः समाज में एक नेता होना हमेशा एक सम्मान और साथ ही एक व्यक्ति के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। नेता को हमेशा अपने सभी शब्दों और कार्यों में एक आदर्श के रूप में देखा जाता है। 2 मक्कबियों के किताब 6ः24-28 में हम एलीआजर में एक महान नेता को देखते हैं। अपने कुछ साथियों द्वारा सूअर का मांस न खाने के विकल्प को देखते हुए और यह महसूस करते हुए कि यह युवाओं को गुमराह कर सकता है, उन्होंने यह कहते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि ‘‘मेरे ढोंग के माध्यम से एक संक्षिप्त क्षण जीने के लिए, वे (युवा) भटक जाएंगे और उस दौरान मैं अपने बुढ़ापे को अपवित्र और अपमानित करता हूं।’’ उन्हें डर था कि हालांकि उनका कार्य सही था, यह युवा पीढ़ी को गुमराह कर सकता है। वह वास्तव में एक महान नेता थे।
कमजोर विश्वास के लोग अपने नेताओं और समाज के सम्मानित लोगों के प्रभाव में बहुत आसानी से पड़ सकते हैं। येसु कहते हैं कि वह प्रभाव मत बनो जो दूसरों को पाप करने के लिए प्रेरित करता है।
छोटों के प्रति करूणामयी मनोवृत्तिः कमजोर विश्वास वाले लोगों के प्रति असीम करुणा का भाव होना चाहिए। कठोरता तो लोगों को ईश्वर से दूर ही करेगी। इस पृथ्वी पर अपने मिशन कार्य के दौरान येसु ने स्वयं इसके लिए एक उदाहरण रखा। उसने व्यभिचार में पकड़ी गई स्त्री पर, जकेयुस पर, कर लेने वाले मत्ती इत्यादि पर दया दिखाई। येसु कहते हैं कि पापी के पश्चाताप को बिना अभिलेख रखे महत्व दिया जाना चाहिए। करुणा और क्षमा को सच्चे शिष्य की पहचान के रूप में दिखाया गया है।
हम जो मसीह के अनुयायी हैं, हमारी यह जिम्मेदारी बनती है कि हम कमजोरों को अपने शब्दों और कार्यों के माध्यम से गुमराह न करें और साथ ही साथ यह जिम्मेदारी भी बनती है हि हम करुणा और क्षमा के माध्यम से उन्हें मसीह के लिए वापस जीते।
✍ -फादर मेलविन चुल्लिकल
Today’s gospel speaks of two attitudes towards people of feeble faith.
1. Misleading through influence.
2. Compassionate attitude.
Misleading through influence: To be a leader in the society is always an honour and at the same time a great responsibility for a person. The leader is always looked up as an ideal in all his words and deeds. In the book of 2Macc. 6: 24-28 we see a great leader in Eleazar. Given the option of not eating the pork by some of his companions and sensing that it could mislead the young he rejected their offer saying “through my pretense for the sake of living a brief moment longer, they (young) would be led astray because of me while I defile and disgrace my old age” He was afraid that though his action was right, it could mislead the younger generation. He was truly a great leader.
People of shallow faith can very easily fall into the influence of their leaders and respectable people of the society. Jesus says not to become that influence that force which tempts others to sin.
Compassionate attitude to the little ones: Limitless compassion should be the attitude towards the people of shallow faith. Rigidity will only distance the people from God. Jesus himself set an example for this during his ministry on this earth. He showed compassion to the woman caught in adultery, to Zacchaeus, to Mathew the tax collector, so on and so forth. He showed that the repentance of the sinner should be valued without keeping a record. Compassion and forgiveness are shown as the identity of a true disciple.
We who are the followers of Christ have the responsibility not to mislead the weaker ones through our words and actions and at the same time a responsibility to win them back for Christ through compassion and forgiveness.
✍ -Fr. Melvin Chullickal
पाप संक्रामक है। पाप करने के बाद, हेवा ने अपने पति को भी पाप करने के लिए प्रेरित किया। राजा सुलेमान की गैरयहूदी पत्नियों ने उसे अन्य देवी-देवताओं की वेदियों पर बलिदान चढ़ाने के लिए प्रभावित किया। प्रभु येसु हमें दूसरों को प्रलोभन न देने की चेतावनी देता है। वे बहुत ही कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, “प्रलोभन अनिवार्य है, किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो प्रलोभन का कारण बनता है! उन नन्हों में एक के लिए भी पाप का कारण बनने की अपेक्षा उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाटा बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।” (लूकस 17:1-2) हम सभी से प्रभु उम्मीद रखते हैं कि हम न केवल पवित्र जीवन जीयें बल्कि दूसरों को भी पवित्रता की राह में अग्रसर होने के लिए प्रभावित करें। प्रभु चाहते हैं कि हम एक-दूसरे को सुधारें और एक-दूसरे को क्षमा करें। संक्षेप में, ख्रीस्तीय विश्वासियों को समाज पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए कहा जाता है। हमें अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए काम करते रहना है। 'संसार की ज्योति’, 'आटा में खमीर' और 'पृथ्वी का नमक' इन सभी के द्वारा भी यही मांग की जाती है। समाज पर हम सकारात्मक प्रभाव डालें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Sin is contagious. After coming sin, Eve shared sin with her husband. King Solomon’s pagan wives influenced him to offer sacrifices at pagan altars. Jesus warns us about tempting others. He uses very strong words, “Occasions for stumbling are bound to come, but woe to anyone by whom they come! It would be better for you if a millstone were hung around your neck and you were thrown into the sea than for you to cause one of these little ones to stumble.” (Lk 17:1-2) All of us are expected not only to live a holy life but also influence others to live a holy life. The Lord wants us to correct each other and forgive each other. In short, Christians are called to be good influence on the society. We are to work to make our society better. This is what is demanded by the images of ‘the light of the world’, ‘leaven in the dough’ and ‘salt of the earth’. Be a positive influence on the society
✍ -Fr. Francis Scaria