वर्ष का बत्तीसवाँ सप्ताह, मंगलवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

प्रज्ञा-ग्रन्थ 2:23-3:9

"मूर्ख लोगों को लगा कि वे मर गये हैं, किन्तु धर्मियों को शांति का निवास मिला है।"

ईश्वर ने मनुष्य को अमर बनाया; उसने उसे अपना ही प्रतिरूप बनाया। शैतान की ईर्ष्या के कारण ही मृत्यु संसार में आयी है। जो लोग शैतान का साथ देते हैं, वे अवश्य ही मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। धर्मियों की आत्माएँ ईश्वर के हाथ में हैं। उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं होगा। मूर्ख लोगों को लगा कि वे मर गये हैं – वे उनका संसार से उठ जाना घोर विपत्ति मानते थे और यह समझते थे कि हमारे बीच से चले जाने के बाद उनका सर्वनाश हो गया है। किन्तु धर्मियों को शांति का निवास मिला है। मनुष्यों को लगा कि धर्मियों को दण्ड मिल रहा है, किन्तु वे अमरत्व की आशा करते थे। थोड़ा कष्ट सहने के बाद उन्हें महान् पुरस्कार दिया जायेगा। ईश्वर ने उनकी परीक्षा ली और उन्हें अपने योग्य पाया है। ईश्वर ने घरिया में सोने की तरह उन्हें परख लिया और होम-बलि की तरह उन्हें स्वीकार किया। ईश्वर के आगमन के दिन वे दूँठी के खेत में धधकती चिनगारियों की तरह चमकेंगे। वे राष्ट्रों का शासन करेंगे; वे देशों पर राज्य करेंगे, किन्तु प्रभु ही सदा-सर्वदा उनका राजा बना रहेगा। जो ईश्वर पर भरोसा रखते हैं, वे सत्य को जान जायेंगे; जो उनके प्रति ईमानदार हैं, वे बड़े प्रेम से उसके पास रहेंगे; क्योंकि जिन्हें ईश्वर ने चुना है, वे कृपा तथा दया प्राप्त करेंगे।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 33:2-3,16-19

अनुवाक्य : मैं सदा ही प्रभु को धन्य कहूँगा।

1. मैं सदा ही प्रभु को धन्य कहूँगा, मेरा कंठ निरन्तर उसकी स्तुति करता रहेगा। मेरी आत्मा प्रभु पर गौरव करेगी। विनम्र, सुन कर, आनन्दित हो उठेंगे।

2. प्रभु की कृपादृष्टि धर्मियों पर बनी रहती है। वह उनकी पुकार पर कान देता है। प्रभु कुकर्मियों से मुँह फेर लेता हैं और पृथ्वी पर से उनकी स्मृति मिटा देता है।

3. धर्मी प्रभु की दुहाई देते हैं। वह उनकी सुनता और हर प्रकार की विपत्ति में उनकी रक्षा करता है। प्रभु दुःखियों से दूर नहीं है। जिसका मन टूट गया है, वह उन्हें सँभालता है।

📒जयघोष

अल्लेलूया! यदि कोई मुझे प्यार करेगा, तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा, मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आ कर उस में निवास करेंगे। अल्लेलूया!

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 17:7-10

"हम अयोग्य सेवक भर हैं, हमने अपना कर्त्तव्य मात्र पूरा किया है।"

प्रभु ने यह कहा, "यदि तुम्हारा सेवक हल जोत कर या ढोर चरा कर खेत से लौटे तो तुम में ऐसा कौन है जो उस से कहेगा, 'आओ, तुरन्त भोजन करने बैठ जाओ'? क्या वह उस से यह नहीं कहेगा, 'मेरा भोजन तैयार करो। जब तक मैं खा-पी न लूँ, कमर कस कर परोसते रहो। बाद में तुम भी खा-पी लेना'? क्या स्वामी को उस नौकर को इसीलिए धन्यवाद देना चाहिए कि उसने उसकी आज्ञा का पालन किया है? तुम्हारी भी वही दशा है। सभी आज्ञाओं का पालन करने के बाद तुम को कहना चाहिए, 'हम अयोग्य सेवक भर हैं, हमने अपना कर्त्तव्य मात्र पूरा किया है'।"

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

हम येसु के सेवक है। सेवकों के रूप में, येसु हमसे कार्यो को अच्छी तरह करने की अपेक्षा करते हैं। यही हमारी जिम्मेदारी हैं। वह यह भी उम्मीद करते हैं कि, हम कार्यों को प्यार से पूर्ण करेंगे। हालांकि, आज के सुसमाचार के संदर्भ में सेवक के लिए कोई पुरस्कार नहीं है। यदि हम अपना काम अच्छी तरह से पूरी लगन से करें तो हम संतुष्ट हो सकते हैं कि, हम जिम्मेदार सेवक रहे है। जब हम कड़ी मेहनत से और अच्छी तरह अपना कार्य पूरा करें तो हमें एक ‘‘अच्छे और विश्वासयोग्य सेवक’’ होने का संतोष मिलेगा। येसु को ज्ञात है कि, कौन वफादार और जिम्मेदार सेवक है वो उसी के अनुसार हमें पुरस्कार प्रदान करेंगे।

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


We also are the “servants” of Jesus. As servants, Jesus expects us to do the work well that is our responsibility. He also expects us to do it in a loving manner. However, in this parable, there is no reward for the servant. And we should not expect a “reward” from Jesus to fulfill our responsibilities. Rather, Jesus simply expects us to “go about our life”. Many of the activities and responsibilities of daily life are ordinary and boring activities and responsibilities. Yet, if we do our work well and in a pleasant manner, we can be satisfied that we have been responsible servants. Often, the work we do may never be acknowledged by anyone. However, if we have worked hard and done our job well, we will have the satisfaction of having been a “good and faithful servant.” What more can we ask? Jesus will recognize that we have been a faithful and responsible servant. And Jesus will reward us! Is this enough for us?

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

मनन-चिंतन -2

प्रभु येसु के अनुसार हम सभी को सेवक बनना चाहिए। धर्मग्रन्थ प्रभु येसु को "प्रभु के पीड़ित सेवक" के रूप में प्रस्तुत करता है। उन्होंने अपने ही शिष्यों के पैर धोकर अंतिम भोज में सेवक की अपनी भूमिका का प्रदर्शन किया। वह उन लोगों के चरणों में बैठ गया, जो उन्हें ’स्वामी’ कहते थे, और दास की तरह उनके पैर धोए। यह महान कार्य करने के बाद, उन्होंने उनसे कहा, “तुम मुझे गुरु और प्रभु कहते हो और ठीक ही कहते हो, क्योंकि मैं वही हूँ। इसलिये यदि मैं- तुम्हारे प्रभु और गुरु- ने तुम्हारे पैर धोये है तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोने चाहिये। मैंने तुम्हें उदाहरण दिया है, जिससे जैसा मैंने तुम्हारे साथ किया वैसा ही तुम भी किया करो।” (योहन 13:13-15) आज के सुसमाचार में प्रभु येसु हमें किसी भी प्रशंसा या प्रतिफल की उम्मीद किए बिना प्रभु और एक दूसरे की सेवा करने को कहते हैं। उनके अनुसार सेवा करना हमारा कर्तव्य है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


REFLECTION

According to Jesus we are all called to be servants. For that matter Jesus is presented by the Scripture as “the suffering servant of the Lord”. He demonstrated his role of the servant at the Last Supper by washing the feet of his own disciples. He sat at the feet of those who called him ‘Master’ and like a slave washed their feet. After that noble act, he said to them, “You call me Teacher and Lord — and you are right, for that is what I am. So if I, your Lord and Teacher, have washed your feet, you also ought to wash one another’s feet. For I have set you an example, that you also should do as I have done to you. ” (Jn 13:13-15) In today’s gospel, Jesus asks us to serve the Lord and one another without expecting any appreciation or remuneration. According to him it is our duty to serve.

-Fr. Francis Scaria